नई दिल्ली: दुनिया भर के दुश्मन देश एक-दूसरे के खिलाफ तरह-तरह की साजिशें कर रहे हैं। हाइब्रिड युद्ध उसी का हिस्सा है। यह बिना हथियारों के लड़ी जाने वाली जंग है। यह कई मायनों में चिंता पैदा कर रहा है। पिछले साल, बाल्टिक सागर में पानी के नीचे के विस्फोटों ने नॉर्ड स्टीम पाइपलाइन में छेद कर दिया था। डेनमार्क और स्वीडन के बीच बनी यह पाइपलाइन बुरी तरह से ख़राब हो गई है।
आपको बता दें, इस पाइपलाइन को जर्मनी को गैस की आपूर्ति करने के लिए बनाया गया था। विस्फोट के बाद, रूस ने कहा कि उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है, हालाँकि, पश्चिमी देशों को संदेह था कि यूक्रेन के समर्थन के कारण रूस ऐसा करेगा ताकि वह जर्मनी में गैस के लिए एक नया अवरोधक बनाकर जवाबी कार्रवाई कर सके। इस तरह बिना किसी लड़ाई के दूसरे देश को नुकसान पहुँचाने के तरीके को ही हाइब्रिड युद्ध कहा जाता है।
अगर सीधी भाषा में समझे तो किसी देश पर सीधे आक्रमण करना, उसे धीरे-धीरे खाली करने और नुकसान पहुँचाने की कोशिश करना एक हाईब्रिड वार है। उदाहरण के लिए, किसी देश को नुकसान पहुँचाना और साइबर हमले करना। इसके अलावा, पश्चिमी देशों में उन गतिविधियों को शुरू करके लोकतंत्र को बदलें जो उनके लिए हानिकारक हैं। यह सब हाइब्रिड वारफेयर का हिस्सा है।
हाइब्रिड हमले सशस्त्र युद्ध से कम खतरनाक नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन मामलों में सब कुछ अस्पष्ट है। इस हमले का सामना करने वाले देश कठिनाइयों का सामना करते हैं और यह जानने में विफल रहते हैं कि उनके पीछे कौन है। उनका लक्ष्य केवल देश की विरासत को नुकसान पहुँचाना नहीं है। इससे आप चुनावों को प्रभावित कर देश का नेतृत्व भी बदल सकते हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि इससे चुनाव भी प्रभावित हो सकते हैं। साल 2016 के बाद से रूस लगातार अमेरिकी चुनावी प्रक्रिया में दखलअंदाजी करता रहा है। उन्होंने हिलेरी क्लिंटन को अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में अभियान चलाया, हालाँकि रूस ने हमेशा इस बात से इनकार किया है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो पुतिन सरकार ने सायबर एक्टिविटी से जुड़े अकाउंट्स का सहारा लिया और ऑनलाइन बोट्स इस्तेमाल किया। बता दें, इस युद्ध का ख़ौफ़ पश्चिमी देशों में कायम हैं।
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