नई दिल्ली: आज बांग्लादेश आरक्षण के विरोध की आग में झुलस रहा है। यहां के युवाओं की मांग है कि 30 प्रतिशत आरक्षण को खत्म किया जाए ताकि उन्हें सरकारी नौकरियों में रोजगार सरलता से प्राप्त हो सके। क्या आपको पता है की इस आरक्षण को समय-समय पर सहूलियत के अनुसार बदला गया है । […]
नई दिल्ली: आज बांग्लादेश आरक्षण के विरोध की आग में झुलस रहा है। यहां के युवाओं की मांग है कि 30 प्रतिशत आरक्षण को खत्म किया जाए ताकि उन्हें सरकारी नौकरियों में रोजगार सरलता से प्राप्त हो सके। क्या आपको पता है की इस आरक्षण को समय-समय पर सहूलियत के अनुसार बदला गया है । चलिए जानते है कि आरक्षण पर कब बदलाव हुआ और इसमें न्याय प्रणाली की क्या भूमिका रही ?
कहानी की शुरूआत होती है साल 1971 में जब बांग्लादेश को मुक्ति संग्राम के बाद पाकिस्तान से आज़ादी मिली थी। एक साल बाद यानी 1972 में बांग्लादेश सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण देने लगे । इस आरक्षण के खिलाफ़ बांग्लादेश में अभी भी विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। इस विरोध के चलते आज बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने अपने पद से इस्तीफा देकर भारत में शरण ली हैं।
1972 से जारी इस आरक्षण व्यवस्था को 2018 में सरकार ने समाप्त कर दिया था। जून में उच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण प्रणाली को फिर से बहाल कर दिया था। कोर्ट ने आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करने के फैसले को भी गैर कानूनी बताया था। कोर्ट के आदेश के बाद देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे ।
हालांकि, बांग्लादेश की शेख हसीना की सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी । सरकार की अपील के बाद सर्वोच्च अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश को निलंबित कर दिया और मामले की सुनवाई के लिए 7 अगस्त की तारीख तय कर दी थी ।
मामले ने तूल तब और पकड़ लिया जब प्रधानमंत्री हसीना ने अदालती कार्यवाही का हवाला देते हुए प्रदर्शनकारियों की मांगों को पूरा करने से इनकार कर दिया। सरकार के इस कदम के चलते छात्रों ने अपना विरोध तेज कर दिया। प्रधानमंत्री ने प्रदर्शनकारियों को ‘रजाकार’ की संज्ञा दी। दरअसल, बांग्लादेश के संदर्भ में रजाकार उन्हें कहा जाता है जिन पर 1971 में देश के साथ विश्वासघात करके पाकिस्तानी सेना का साथ देने के आरोप लगा था।
21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को पलट दिया जिसके तहत सभी सिविल सेवा नौकरियों में आरक्षण को फिर से लागू कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में यह निर्धारित किया गया कि अब सिर्फ पांच फीसदी नौकरियां स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए आरक्षित रहेंगी। इसके अलावा दो फीसदी नौकरियां अल्पसंख्यकों या दिव्यांगों के लिए आरक्षित रहेंगी। वहीं, बाकी पदों के लिए कोर्ट ने कहा कि ये योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों के लिए खुले रहेंगे। यानी 93 फीसदी भर्तियां अनारक्षित कोटे से होंगी।
कोर्ट ने आरक्षण को लगभग खत्म ही कर दिया था, फिर विरोध क्यों हो रहा है? शुरू से ही प्रदर्शनकारी छात्र मुख्य रूप से स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए आरक्षित नौकरियों के खिलाफ विरोध कर रहे थे। प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि इसकी जगह योग्यता आधारित व्यवस्था लागू की जाए। प्रदर्शनकारी इस व्यवस्था को खत्म करने की मांग कर रहे थे और कह रहे थे कि यह भेदभावपूर्ण है और प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी के समर्थकों के फायदे के लिए है। आपको बता दें कि प्रधानमंत्री शेख हसीना बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं, जिन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का नेतृत्व किया था।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद माना जा रहा था कि विरोध प्रदर्शन खत्म हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आंदोलन और भी उग्र हो गया। छात्र संगठनों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मतलब विरोध प्रदर्शन खत्म होना नहीं है और उन्होंने प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र और विरोध प्रदर्शन के समन्वयक हसीब अल-इस्लाम ने कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सकारात्मक मानते हैं, लेकिन मांग करते हैं कि आरक्षण संशोधन विधेयक संसद में पारित किया जाए। इस्लाम ने कहा कि जब तक सरकार उनकी संशोधन मांगों के अनुसार कार्यकारी आदेश जारी नहीं करती, तब तक विरोध प्रदर्शन जारी रहेगा।
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