नई दिल्ली. दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट करने वाली आंग सान सू की जल्द ही म्यांमार की सर्वोच्च नेता बन जाएंगी. सू की को राष्ट्रीय चुनावों में भारी जीत हासिल हुई है और म्यांमार के सेना प्रमुख व राष्ट्रपति ने भी उनसे निर्बाध सत्ता हस्तांतरण का वादा किया है. सू की को जीत पर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने भी बधाई दी है.
अभी भी है राष्ट्रपति बनने पर संशय
म्यांमार के संविधान की धारा 59(एफ) के मुताबिक म्यांमार का कोई भी नागरिक जिसका कोई रिश्तेदार या संतान किसी भी विदेशी सत्ता के लिए लिए उत्तरदायी हो म्यांमार का राष्ट्रपति नहीं बन सकता. बता दें कि सू की के पति ब्रिटिश नागरिक थे और उनके बच्चे भी ब्रिटेन के ही नागरिक हैं. हालांकि सू की का कहना है कि सत्ता में आने के बाद उनकी पार्टी इस कानून में बदलाव कर देगी.
कौन हैं सू की
आंग सान सू की आज देश-विदेश में जान-पहचाना नाम है. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित और म्यांमार में लोकतंत्र के लिए सैनिक सरकार का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने वाली सू की पूरी दुनिया में एक मिसाल बन गई हैं. अपने इस विरोध के चलते उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा. सैनिक सरकार के द्वारा उन्हें 1989 से 2010 तक छोटी-छोटी अवधि की रिहाई के साथ घर पर नजरबंद रखा गया.
सू की का जन्म 19 जून 1945 को बर्मा के रंगून शहर में हूआ. उनके पिता आंग सान स्वतंत्र बर्मा के संस्थापक कहे जाते हैं. उन्होंने बर्मा को ब्रिटिश सरकार के बंधन से आजाद कराने में अहम भूमिका निभाई. सू की की मां डॉ किन की शादी के पहले महिला राजनैतिक समूह का हिस्सा रहीं. सू की जब महज सिर्फ दो वर्ष की थीं तभी उनके पिता की विपक्षी समूह ने हत्या कर दी.
भारत में भी बीता बचपन
सू ची ने अपने प्रारंभिक वर्ष बर्मा में ही व्यतीत किए जब 1960 में उनकी मां को भारत का बर्मा राजदूत नियुक्त किया गया तब वे अपनी मां के साथ भारत आ गईं. सू की ने अपनी शुरुआती पढ़ाई रंगून में ही पूरी की. आगे की पढ़ाई भारत से संपन्न की. उन्होंने नई दिल्ली के लेडी श्री राम कॉलेज से 1964 में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई की. इसके बाद वे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय चली गई जहां से उन्होंने 1967 में दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति में बीए किया.
यूनाइटेड स्टेट्स में उन्होंने प्रशासनिक एवं आय-व्यय के सवालों के लिए सलाहकारी संगठन में सह सचिव का पद ग्रहण कर लिया. उन्होंने 1972 में भूटान के विदेशी मंत्रालय में रिसर्च ऑफिसर के रूप में काम किया. उसी साल वे डॉ. माइकल ऐरिस के साथ विवाह बंधन में बंध गईं. 1973 में पहले बेटे अलेक्जेंडर के जन्म के समय यह जोड़ा इंग्लैंड आ गया. यहीं 1977 में इनके दूसरे बेटे किम का जन्म हुआ. शादी के पहले ही सू की ने ऐरिस को आगाह कर दिया था कि एक दिन म्यांमार के लोगों को मेरी जरुरत होगी और उस दिन मुझे वापिस जाना होगा.
पहला राजनीतिक कदम
देश के प्रति कर्तव्य की भावना उन्होंने अपने पिता से सीखी और वे भारत के अहिंसावादी नेता महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी से भी प्रभावित रहीं. 1985-1987 के बीच सू ची ने एक विजिटिंग स्कॉलर के रूप में क्योटो विश्वविद्यालय से अध्ययन किया. 1987 में सू ची ने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज से अपना फेलोशिप पूर्ण किया. इसके बाद 1988 में सू की अपनी बीमार मां की देखभाल करने के लिए रंगून वापिस लौट आईं. अगस्त-सितंबर 1988 में उन्होंने अपना पहला राजनैतिक कदम उठाया और जनरल सेक्रेटरी के रूप में नेशनल लाग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) में शामिल हो गईं. उन्होंने लोकतंत्र के समर्थन में कई भाषण दिए.
घर में नज़रबंद की गईं
उनके इसी समर्थन के चलते 20 जुलाई 1989 को उन्हें रंगून में स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रिस्टॉर्टेशन काउंसिल (एसएलओआरसी) ने घर पर ही नजरबंद कर दिया गया. इसी साल लंबे समय से बीमारी से पीड़ित उनकी मां का देहांत हो गया. गिरफ्तारी के शुरुआती वर्षों में सू की से किसी को भी मिलने की इजाजत नहीं थी लेकिन कुछ साल बाद उनके परिवार के लोगों को उनसे मिलने की स्वीकृति दे दी गई.
जुलाई 1995 में उन्हें रिहा कर दिया गया तब तक सू ची को सेना की देख-रेख में घर पर ही नजरबंद रखा गया. इसके बाद भी सरकार ने उनके आंदोलन पर बंदिशें जारी रखीं. उनकी रिहाई के प्रारंभिक सालों में उन्हें सिर्फ अपने आवासीय शहर तक जाने की छूट थी. सरकार ने उनके म्यांमार के बाहर जाने पर भी पाबंदी लगा रखी थी. सैनिक सरकार ने उन्हें देश के बाहर जाने और वहीं रहने के कई प्रस्ताव दिए लेकिन उन्होंने उसे नहीं माना.
रिहा होने के बाद भी नहीं छोड़ा म्यांमार
अपनी रिहाई के बाद भी उन्होंने प्रवक्ता के रूप में एनएलडी में अपने योगदान को बरकरार रखा. 1999 में उनके पति माइकल ऐरिस की इंग्लैंड में मृत्यु हो गई. म्यांमार सरकार ने ऐरिस की सू की से मिलने की अंतिम इच्छा को ठुकरा दिया था. सरकार के कहना था कि सू ची ऐरिस से मिलने चली जाएं. लेकिन सू की नहीं गईं वे घर पर ही रहीं. सू की को इस बात का डर था कि अगर वे चली गईं तब उनको वापिस म्यांमार में आने नहीं दिया जाएगा.