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क़तर संकट का सच यही है कि अमेरिका को धंधा करना है !

नई दिल्ली: खाड़ी देश क़तर इन दिनों संकट में है. क़तर पर आतंकी गुटों को आर्थिक मदद देने का आरोप लगाकर सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मिस्र जैसे इस्लामिक देशों ने पाबंदी लगा दी है. इन देशों ने क़तर से अपने राजनयिक संबंध भी तोड़ दिए हैं.
क़तर का संकट अभूतपूर्व है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंक के खिलाफ स्वयंभू नेता बने फिरने वाले अमेरिका ने क़तर पर कोई आरोप नहीं लगाया है. क़तर के पर कतरने की अगुवाई सऊदी अरब कर रहा है, जो अमेरिका का पिछलग्गू माना जाता है. कायदे से अमेरिका को भी क़तर पर लट्ठ लेकर पिल पड़ना चाहिए था, लेकिन अमेरिका ने खाड़ी देशों के झगड़े में अपना फायदा देखा.
एक हाथ से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने क़तर पर पाबंदी लगाने वाले अपने दोस्तों की पीठ थपथपाई और दूसरे हाथ से क़तर के लिए एक बड़े रक्षा सौदे पर दस्तखत कर दिए. डोनाल्ड ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन ने क़तर को 12 अरब डॉलर के हथियारों के सौदे को मंजूरी दी है. इस सौदे में क़तर को एफ-15 लड़ाकू विमान बेचना भी शामिल है. पेंटागन यानी अमेरिकी रक्षा मंत्रालय का कहना है कि इस सौदे से अमेरिका और क़तर के बीच सुरक्षा सहयोग बढ़ेगा.
क़तर संकट में अमेरिका के रवैए पर मुझे अपने स्कूली दिनों की घटनाएं याद आने लगी हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, वो एक कस्बे में था. स्कूल में दो गांवों के मनबढ़, दबंग छात्रों की तूती बोलती थी. कस्बे का इकलौता इंटर कॉलेज था, जहां व्यापारियों के बच्चे भी पढ़ने आते थे। कस्बा कबाड़ के कारोबार के लिए पूरे पूर्वांचल में मशहूर था.
स्कूल में दबंगई करने वाले दोनों गांवों के मनबढ़ों के लिए स्कूल में पढ़ने वाले व्यापारियों के बच्चे ‘कमाई’ का ज़रिया बन गए थे. इसके लिए मनबढ़ों ने बढ़ा शातिर तरीका ढूंढ रखा था. वो पहले अपने ही गिरोह के किसी लड़के को भेजकर ‘शिकार’ यानी किसी व्यापारी के बेटे को बेवजह पिटवाते थे. दो-चार बार की पिटाई के बाद वो बेचारा गिरोह के सरगना के पास जाता था. सरगना उसे आश्वासन देता था कि आगे से स्कूल में कोई भी उसे छुएगा तक नहीं, लेकिन इसके लिए व्यापारी के बेटे को ‘खर्चा-बर्चा’ करते रहना होगा. ‘खर्चा-बर्चा’ का मतलब होता था प्रोटेक्शन मनी…रंगदारी.
अब उपरोक्त कहानी के आलोक में क़तर संकट को देखें तो पूरा खेल समझ में आ जाता है. अमेरिका ने पहले अपने चेले (सऊदी अरब) को आगे करके क़तर के पर कतरवाए. क़तर के मन में भारी असुरक्षा बोध पैदा किया और नतीजा अमेरिका की उम्मीद के मुताबिक ही रहा. अपनी सलामती के लिए क़तर ने बिना देरी किए अमेरिका से हथियार खरीदने का फैसला कर लिया.
अमेरिका पूरी दुनिया में स्कूल के उन्हीं मनबढ़-दबंगों के गिरोह का सबसे बड़ा सरगना माना जाता है. उसका काम ही है दो देशों के बीच सिर-फुटौव्वल कराना और फिर रंगदारी वसूलना. खाड़ी युद्ध तेल के भंडार पर अमेरिकी कब्जे़ का नतीज़ा था. दुनिया भर के देशों को एक-दूसरे से भिड़ाकर अपने हथियारों के लिए बाज़ार बनाने का काम अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के दौर से ही कर रहा है.
पूरी दुनिया में हथियारों का जितना सौदा होता है, उसका एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा अकेले अमेरिका के पास है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, 2012 से 2016 के बीच अमेरिका ने 47 अरब डॉलर से ज्यादा के हथियारों का निर्यात किया है. अमेरिका को रूस से तगड़ी चुनौती मिल रही है. रूस की चुनौती से पार पाने के लिए ज़रूरी है कि अमेरिका उन देशों के बीच मतभेद पैदा करे, जिनके पास हथियार खरीदने के लिए भरपूर दौलत है. खाड़ी के देश अमेरिका के लिए आसान ‘शिकार’ हैं, क्योंकि वहां पैसों की कोई कमी नहीं है. ज्यादातर खाड़ी देशों में लोकतंत्र नहीं है, इसलिए हथियारों की होड़ पर सवाल उठाने और बवाल मचाने वाले भी नहीं हैं.
क़तर को हथियार बेचने से पहले अमेरिका ने सऊदी अरब को थोक के भाव हथियार बेचे. 2012 से 2016 के आंकड़ों के मुताबिक भारत के बाद सऊदी अरब ही दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार खरीद रहा था. अब अमेरिकी हथियारों से लैस सऊदी अरब अगर क़तर को आंखें दिखाए, तो बेचारा क़तर करे भी तो क्या? उसे अपनी सुरक्षा के लिए हथियारों की ज़रूरत पड़नी ही थी. ज़रूरत के साथ ही उसे ये भी ख्याल था कि सऊदी अरब के अमेरिकी हथियारों का मुकाबला अमेरिका से खरीदे गए हथियारों से ही हो सकता है.
दिलचस्प बात ये है कि क़तर का इस संकट में साथ देने के लिए तुर्की सामने आया. वही तुर्की जो हथियार खरीदने वाले देशों की लिस्ट में छठे नंबर पर है. खाड़ी देशों के बीच अविश्वास की खाई जितनी गहरी होगी, ध्रुवीकरण भी उतना ही तेज़ होगा. ये बात अमेरिका से बेहतर भला कौन समझ सकता है? फिलहाल सीरिया संकट के नाम पर खेमेबंदी हुई है. क़तर संकट के नाम पर खेमेबंदी की शुरुआत हो चुकी है. ये सिलसिला थमेगा नहीं, क्योंकि अमेरिका को धंधा करना है. धंधा तभी होगा, जब ज़रूरत पैदा की जाएगी और हथियारों की ज़रूरत पैदा करने के लिए नफरत पैदा करना अनिवार्य है, जिसमें अमेरिका को महारत हासिल है.
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