पेरिस. फ्रांस की राजधानी पेरिस में पेरिस जलवायु परिवर्तन वार्ता का अंतिम मसौदा जारी हो गया है जिस पर सभी राजी हुए तो धरती का तापमान औद्योगीकरण के वक्त के तापमान से 2 डिग्री से ज्यादा ऊपर नहीं जाने का लक्ष्य तय हो जाएगा. 2020 से विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर की सहायता भी दी जाएगी.
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पिघलते ग्लेशियर और धरती के बढ़ते तापमान की चिंता से परेशान 196 देश के प्रतिनिधि अब इस मसौदे को मंजूर या नामंजूर करेंगे. मसौदे में धरती का तापमान औद्योगीकरण से पहले के तापमान से 2 डिग्री से ऊपर नहीं जाने देने का लक्ष्य रखा गया है और कहा गया है कि कोशिश 1.5 सेंटीग्रेड की भी करेंगे अगर संभव हुआ तो.
भारत और चीन को नहीं मंजूर 1.5 डिग्री सेल्सियस लिमिट
चीन और भारत को 1.5 डिग्री सेल्सियस की लिमिट मंजूर नहीं है इसलिए 2 डिग्री पर बात बन सकती है. भारत और चीन के पास कोयला का बहुत भंडार है जिससे ये देश अपने विकास की जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ लंबे समय तक इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं.
मसौदे को मंजूरी मिली तो 2020 के बाद विकसित देश 100 अरब डॉलर उन विकासशील देशों को मदद में देंगे जो ग्लोबल वार्मिंग को कंट्रोल करने की खातिर अपने विकास और दूसरे प्रोजेक्ट की कुर्बानी देंगे. मसौदा जारी करने के बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी से बात भी की है ताकि भारत इस मसौदे को समर्थन दे.
मसौदे में मोदी के ‘क्लाइमेट जस्टिस’ और ‘सस्टेनेबल लाइफस्टाइल’ पर एक पाराग्राफ
अगर संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेंट चेंज फ्रेमवर्क कन्वेंशन में शामिल 196 देशों के प्रतिनिधि इस मसौदे को मंजूरी दे देते हैं तो 22 अप्रैल, 2016 को न्यूयॉर्क के संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में इस समझौते पर दस्तखत करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान-की-मून तमाम देशों के नेताओं को बुलावा भेजेंगे.
मसौदे के मुताबिक क्योटो समझौते की ही तरह पेरिस समझौता भी किसी देश के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं होगा. इसका सीधा मतलब ये है कि सदस्य देशों की सरकार या संसद को अगर ये समझौता पसंद नहीं आता है तो वो इसे नामंजूर कर देंगे और उन देशों पर इसके लिए कोई जुर्माना नहीं लगेगा.
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 30 नवंबर को पेरिस में दिए गए भाषण का असर इस मसौदे पर दिख रहा है. मसौदे में एक पाराग्राफ ‘क्लाइमेट जस्टिस’ और ‘सस्टेनेबल लाइफस्टाइल’ पर है. ये दोनों बातें उठाते हुए मोदी ने क्लाइमेंट चेंज से से मुकाबले का सबसे ज्यादा दायित्व विकसित देशों के कंधे पर डाला था.