क्या कारगिल युद्ध के जरिए 1971 की हार का बदला लेना चाहता था पाक

नई दिल्ली। 8 मई, 1999. पाकिस्तान की 6 नॉरदर्न लाइट इंफ़ैंट्री के कैप्टन इफ़्तेख़ार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आज़म चौकी पर बैठे थे, उन्होंने देखा कि कुछ भारतीय चरवाहे पास में ही अपने मवेशियों को चरा रहे थे. पाकिस्तानी सैनिकों ने आपस में सलाह मश्वरा की कि क्या इन चरवाहों को बंदी बना लिया जाए? किसी ने कहा कि अगर इन्हें बंदी बनाया जाता है, तो वो उनका राशन खा जाएंगे जो कि ख़ुद उनके लिए भी काफ़ी नहीं है इसलिए उन्हें वापस जाने दिया गया. क़रीब डेढ़ घंटे बाद ये चरवाहे भारतीय सेना के 6-7 जवानों के साथ वहाँ वापस लौटे, तब भारतीय सैनिकों ने अपनी दूरबीन से इलाक़े का मुआयना किया और वापस चले गए. इसके करीब 2 बजे वहाँ एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया. ये हेलिकॉप्टर इतना नीचे था कि कैप्टन इफ़्तेख़ार को पायलट का बैज तक साफ़ नज़र आ रहा था. ये वो पहला मौक़ा था जब भारतीय सैनिकों को भनक पड़ी कि बहुत सारे पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की पहाड़ियों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है.

भारत के राजनीतिक नेतृत्व को कब्ज़े की भनक तक नहीं..

उधर भारतीय सैन्य अधिकारियों को तो ये आभास हो गया कि पाकिस्तान की तरफ़ से भारतीय क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ हुई है लेकिन उन्होंने समझा कि इसे वो अपने स्तर पर सुलझा लेंगे. इसलिए उन्होंने इस बार में राजनीतिक नेतृत्व को बताना ज़रूरी नहीं समझा.

सियाचिन को भारत से अलग करना था मकसद

दिलचस्प बात ये थी कि उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलैंड और चेक गणराज्य की यात्रा पर गए थे और वहाँ उन्हें इसकी पहली ख़बर सैनिक अधिकारियों से नहीं, बल्कि वहाँ के भारतीय राजदूत के ज़रिए मिली.

अब सवाल ये उठता है कि लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के इस तरह गुपचुप तरीक़े से कारगिल की पहाड़ियों पर जा बैठने का मकसद क्या था. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मुशर्रफ़ को ये बात बहुत बुरी लगी थी कि भारत ने 1984 में सियाचिन पर क़ब्ज़ा कर लिया था. उस समय मुशर्रफ पाकिस्तान की कमांडो फ़ोर्स में मेजर हुआ करते थे. उन्होंने कई बार उस जगह को ख़ाली करवाने की कोशिश की थी लेकिन वो सफल नहीं हो पाए थे, इसलिए इस तरह घुसपैठ कर उनका मकसद सियाचिन को भारत से अलग करना था.

जब वाजपेयी ने नवाज़ शरीफ को लताड़ा

जब भारतीय नेतृत्व को मामले की गंभीरता का पता चला तो उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई, उस समय भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन मिलाया था.

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव’ में इस बारे में लिखते हैं, “वाजपेयी ने नवाज़ शरीफ़ से शिकायत की कि आपने मेरे साथ बहुत बुरा सलूक किया है, एक तरफ तो आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ़ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर घुसपैठ कर रहे थे. नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है, उन्होंने कहा कि वे परवेज़ मुशर्रफ़ से बात कर उन्हें वापस फ़ोन करेंगे. तभी वाजपेयी ने कहा कि आप मुझसे नहीं मेरे साथ बैठे एक शख्स से बात करिए.”

जब दिलीप कुमार ने नवाज़ शरीफ को सुनाई खरी-खोटी

ख़ुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा ‘नीदर अ हॉक नॉर अ डव’ में आगे लिखते हैं, “नवाज़ शरीफ उस समय सकते में आ गए जब अटल बिहारी वाजपेयी ने दिलीप कुमार को फोन थमाया और उन्होंने दिलीप साहब की आवाज़ सुनी. दिलीप कुमार ने उनसे कहा- मियाँ साहब, हमें आपसे ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी क्योंकि आपने हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की बात की है. मैं आपको बता दूँ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, तो भारतीय मुसलमान बुरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उनके लिए अपने घर से बाहर निकलना भी दूभर हो जाता है.

पाकिस्तान का ज़बरदस्त प्लान

इस स्थिति का जिस तरह से भारतीय सेना ने सामना किया उसकी कई जगह आलोचना भी हुई. पूर्व लेफ़्टिनेंट जनरल हरचरणजीत सिंह पनाग जो बाद में कारगिल में तैनात भी रहे, वे कहते हैं, “मैं कहूँगा कि ये पाकिस्तानियों का बहुत ज़बरदस्त प्लान था कि उन्होंने आगे बढ़कर ख़ाली पड़े बहुत बड़े इलाक़े पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. वो लेह कारगिल सड़क पर पूरी तरह से हावी हो गए थे, ये उनकी एक बड़ी कामयाबी थी.”

लेफ़्टिनेंट पनाग कहते हैं, “3 मई से लेकर जून के पहले हफ़्ते तक हमारी सेना का प्रदर्शन सामान्य से बहुत नीचे थम मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि पहले एक महीने हमारा प्रदर्शन बहुत ही शर्मनाक था. उसके बाद जब 8वीं डिवीजन ने चार्ज लिया और हमें इस बात का एहसास होने लगा कि उस इलाक़े में कैसे काम करना है, इसके बाद कहीं हालात सुधरना शुरू हुए. निश्चित रूप से ये बहुत मुश्किल ऑपरेशन था क्योंकि एक तो पहाड़ियों में आप नीचे थे और वो ऊँचाइयों पर थे. ये उसी तरह हुआ कि आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ है और आप नीचे से चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश कर रहे हैं, ये बहुत मुश्किल था. दूसरी दिक़्क़त थी उस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी, तीसरी बात ये थी कि आक्रामक पर्वतीय लड़ाई में हमारी ट्रेनिंग उस समय बहुत कमज़ोर थी.”

युद्ध पर क्या बोले मुशर्रफ

कारगिल युद्ध पर जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी बार-बार दोहराया कि उनकी नज़र में ये बहुत अच्छा प्लान था, जिसने भारतीय सेना को ख़ासी मुश्किल में डाल दिया था. मुशर्रफ़ ने अपनी आत्मकथा ‘इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर’ में लिखा, “भारत ने इन चौकियों पर पूरी ब्रिगेड से हमले किए, जहाँ हमारे सिर्फ़ आठ या नौ सिपाही ही तैनात थे. जून के मध्य तक उन्हें कोई ख़ास कामयाबी भी नहीं मिली थी, भारतीयों ने ख़ुद माना कि उनके 600 से अधिक सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक घायल हुए.”

जब भारत ने जीती बाज़ी

जून का दूसरा हफ़्ता ख़त्म होते-होते धीरे-धीरे चीज़ें भारतीय सेना के नियंत्रण में आने लगी थीं. उस समय जनरल वेद प्रकाश मलिक से पूछा गया कि इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ क्या था? मलिक का जवाब था ‘तोलोलिंग पर जीत. वो पहला हमला था जिसे हमने को-ऑरडिनेट किया था, ये हमारी सेना की बहुत बड़ी कामयाबी थी. चार-पाँच दिन तक ये लड़ाई चली, ये लड़ाई इतनी नज़दीक से लड़ी गई कि दोनों तरफ़ के सैनिक एक दूसरे को जो गालियाँ दे रहे थे वो भी दोनों पक्षों को सुनाई दे रही थी.”

जनरल मलिक कहते हैं, “हमें इस जीत की बहुत कीमत भी चुकानी पड़ी, हमारी बहुत कैजुएल्टीज़ हुईं. छह दिनों तक हमें भी घबराहट-सी थी कि क्या होने जा रहा है लेकिन जब वहाँ जीत मिली तो हमें अपने सैनिकों और अफ़सरों पर भरोसा हो गया कि हम इन्हें क़ाबू में कर लेंगे.

 

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