Aurangzeb Controversy: औरंगज़ेब का नाम लेते ही महाराष्ट्र में भड़क गई हिंसा… घावों से भरा है इतिहास

मुंबई: औरंगजेब और हिंदुओं के बीच की खटपट को भले ही इतिहासकारों में तीन राय हो लेकिन देश की जनता के मन में एक ही राय है. काशी में विश्वनाथ मंदिर और मधुरा में केशवराज का मंदिर तुड़वाने के लिए औरंगज़ेब की खूब आलोचना की जाती है. मानने वालों के लिए औरंगजेब विश्वविजेता था जिसे आलमगीर भी कहा जाता है. लेकिन पश्चिम में सिक्खों ने और दक्कन मराठों ने उसके विजय का रथ रोक दिया था जिनपर औरंगजेब ने बेइंतिहा जुल्म किए. इसी जुल्मों का असर है कि आज देश के कई इलाकों में औरंगजेब का नाम बर्दाश्त नहीं किया जाता है.

मराठा और सिक्खों से जुड़ा काला इतिहास

इस बात का सबूत है औरंगजेब से संबंधित वायरल वीडियो पर कोल्हापुर में होने वाली हिंसा. बुधवार यानी 7 जून को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुई हिंसा ने प्रदेश में सियासत तेज कर दी है. इस पूरे विवाद को तह तक जानने के लिए जरूरी है सिक्खों और मराठों के उस इतिहास को पढ़ना जिसमें औरंगजेब के दिए जख्म लिखे हैं. ये जख्म अब तक हरे हैं जिसका सबूत है पिछले दो दिनों में अहमदनगर और कोल्हापुर में हुई हिंसा.

पक्ष-विपक्ष के तर्क

हिंदुओं और गैर मुस्लिमों से भेदभाव से भरे वसूले जाने वाले जजिया टैक्स को अकबर ने बंद करवाया था उसकी शुरुआत औरंगजेब ने की थी. औरंगजेब ने अपने शासन काल में शरीयत को लागू किया था इतना ही नहीं उसने 1668 में हिंदू त्योहारों पर पाबंदी लगाई और 1699 में मंदिर तुड़वाए. हालांकि कई इतिहासकारों का तर्क इससे अलग है. कई लोगों का मानना है कि इसके पीछे औरंगजेब के इन आदेशों के पीछे हिंदू नफरत न मानकर राजनीतिक मकसद मानते हैं.

इस्लाम कबूल न करने पर वीरों की हत्या

इतिहासकार रिचर्ड ईटन के अनुसार औरंगजेब के शासन काल में उन्हीं मंदिरों को तु़ड़वाया गया था जहां से मुगल सल्तनत के विरोधियों को मदद दी जाती थी. औरंगजेब ने इसलिए कभी दक्षिण भारत के मंदिरों को नहीं तुड़वाया. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि औरंगज़ेब हिंदुओं को साथ लेकर चलता था. इतिहासकर कैथरीन बटलर का मानना है कि औरंगजेब ने जितने मंदिर तुड़वाए थे उसे कहीं ज्यादा बनवाए और दान दिए.

 

गुरु तेगबहादुर और छत्रपति संभाजी महाराज

 

एक अन्य इतिहासकार एम अतहर अली की दलील है कि बादशाह के हिंदू दरबारियों और करीबियों की तादाद औरंगजेब के पिता शाहजहां के वक्त 24 फीसदी थी. लेकिन औरंगजेब के समय में वो 33 फीसदी रही. औरंगजेब को इस तरह से डिफेंड किया जाता है. हालांकि इसके पीछे विरोधियों का तर्क है कि इस्लाम स्वीकार करने की शर्त न मानने की वजह से सिक्खों के गुरु तेगबहादुर और छत्रपति शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी की हत्या कर दी गई थी. यह भी नहीं झुठलाया जा सकता कि दोनों ही वीरों के सामने शर्त रखी गई थी कि वह औरंगजेब के सामने झुककर इस्लाम कबूल कर लें. इस शर्त के आगे ना झुकने और शहादत को गले लगाने के लिए मराठा इतिहास में छत्रपति संभाजी महाराज को धर्मवीर भी कहा जाता है.

मराठा और महाराष्ट्र कनेक्शन

1634 में महाराष्ट्र से औरंगजेब का पहला संपर्क तब होता है जब उसे मुगल शासक शाहजहां दक्कन का सूबेदार बनाकर भेजते हैं. आज के महाराष्ट्र के खड़की का नाम औरंगजेब ने बदलकर औरंगाबाद रख दिया था. कुछ ही समय बाद वह दिल्ली लौट गया और 1652 में शाहजहां दक्कन का सूबेदार बनकर वापस लौटा. इस बार औरंगज़ेब बीजापुर और गोलकुंडा (आज का कर्नाटक) की ओर बढ़ता है. औरंगजेब ने 1659 में दिल्ली की गद्दी अपने नाम की और दुनिया कि एक चौथाई आबादी समेत साढ़े बारह लाख स्क्वायर मील जमीन पर अपना राज चलाया. वह उस समय का सबसे अमीर शासक बना जिसके महत्वाकांक्षा और गुरुर को पश्चिम में सिक्ख और दक्कन में मराठा ठेस पहुंचाते थे.

 

मराठों ने दक्षिण जीतने से रोका

औरंगजेब का झगड़ा छत्रपति शिवाजी महाराज से उसके दक्कन का सूबेदार बनने से था. जहां दिल्ली की तरफ औरंगजेब की नजर घूम जाती थी, बीजापुर और दक्कन के किलों और शहरों को शिवाजी महाराज जीत ले जाते। मराठों की छापामार और गुरिल्ला नीति (गनिमीकावा) मुगल सेना पर हावी थी. दक्षिण जीतने से औरंगजेब को शिवाजी महाराज और उनके बेटे संभाजी महाराज ने रोक दिया जिसके बदले उन्हें कैद करवा कर आगरा किले में बंद किया गया. लेकिन चतुराई और बहादुरी से वह दोनों भाग निकले.

नाकों चने चबवा दिए

इतिहासकार मानते हैं कि एक समय ऐसा आया जब शिवाजी महाराज औरंगजेब के मनसबदार बनने के लिए तैयार हो चुके थे. उन्हें औरंगजेब पूरे दक्षिण की कमान देने जा रहा था हालांकि वह उन पर पूरी तरह से भरोसा ना कर पाया. औरंगजेब के मन में मराठों के लिए और भी ज्यादा खुन्नस पलने लगी. मराठों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद भी मुगलों की नाक में दम कर दिया था. शिवाजी महाराज के बेटे संभाजी से औरंगजेब से बगावत करने वाले बेटे की काफी अच्छी दोस्ती थी. उसे फारस भागने में संभाजी महाराज ने मदद की थी.

नहीं भुलाई जा सकती संभाजी की हत्या

सन् 1689 में संभाजी के बहनोई गानोजी शिर्के ने सभी राज मुगल कमांडर मुकर्रब खान के हवाले कर दिए. इसके बाद संभाजी महाराज अपने 25 वफादारों के साथ पकड़े गए. औरंगजेब के आदेश पर उनके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया गया. मुगल और मराठा रिकॉर्ड में इन बातों को लेकर अलग-अलग तरह का ज़िक्र दिखाई देता है. मुग़ल रिकॉर्ड बताता है कि संभाजी महाराज ने बादशाह का अपमान कर अपने लिए मौत का फरमान लिखवाया. इतना ही नहीं उनपर हत्या, लूटपाट जैसे अपराधों का आरोप लगाया गया है.

दूसरी ओर मराठों के इतिहास में संभाजी की हत्या इस्लाम कबूल करने की शर्त को ना अपनाते हुए हुई थी. 11 मार्च 1689 को उनके शरीर को लोहे के बने बाघ के पंजे से आगे और पीछे से फाड़ कर हत्या की गई. कई जगह इस बात का भी ज़िक्र किया जाता है कि संभाजी के शरीर को टुकड़ों में काटकर नदी में फेंक दिया गया था.

जब औरंगजेब की सेना से दक्कन और दक्षिण नहीं संभला तो उसने दिल्ली छोड़ दी. वह दक्कन और दक्षिण की तरफ खुद 1683 से चल पड़ा. महाराष्ट्र के अहमदनगर में उसकी मौत 3 मार्च 1707 को हुई. आज भी मराठा इतिहास में औरंगज़ेब को सबसे क्रूर और जुल्मी राजाओं की तरह देखा जाता है.

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