नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने के मामले में बड़ा फैसला सुनाया है. न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि (मुस्लिम महिला तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून 1986 को धर्मनिरपेक्ष कानून वर वरीयता नहीं मिल सकती.
इस फैसले के साथ ही 39 साल पहले शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार द्वारा उसे पलटने पर भी बहस शुरू हो गई है. उस मामले में शाहबानो पीड़ित महिला थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था और ताजा मामले में पीड़ित महिला आगा है.
सबसे पहले बात ताजा मामले- मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य की. अब्दुल समद नाम के व्यक्ति ने 2017 में अपनी पत्नी आगा से तलाक दे दिया. मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक मुस्लिम पतियों को इद्दत काल यानी तीन महीने तक तलकाशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देना होता है. उसके बाद पत्नी और बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. शुरू में यह मामला परिवार न्यायालय में गया जहां फैमिली कोर्ट ने अब्दुल समद को अपनी पूर्व पत्नी को 20000 रुपये प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया.
समद इस फैसले के खिलाफ तेलंगाना हाईकोर्ट चले गये और दलील दी कि उन्होंने मुस्लिम पर्सनल ला के मुताबिक तलाक लिया है इसलिए भरण पोषण देने की जिम्मेदारी नहीं बनती. तेलंगाना हाई कोर्ट ने 13 दिसंबर 2023 को परिवार अदालत के फैसले को सही ठहराया. समद की दलील खारिज कर दी लेकिन भरण पोषण की राशि 20000 से घटाकर 10000 महीना कर दिया. समद को ये फैसला मंजूर नहीं था लिहाजा भागे भागे सुप्रीम कोर्ट आये जहां पर इस मामले की सुनवाई हुई.
न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की डबल बेंच ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद फैसला दिया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, सीआरपीसी की धारा 125 को रद्द नहीं करेगा. यह धारा सभी महिलाओं पर लागू होती है जिसमें मुस्लिम महिला भी शामिल है. समद के वकील वसीम कादरी की दलील थी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा-125 के तहत भरण पोषण भत्ता पाने की हकदार नहीं है, और कोर्ट को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 के प्रावधानों को लागू करना होगा लेकिन कोर्ट ने उसकी दलील ख़ारिज कर दी. कोर्ट के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि वो किसे प्राथमिकता दे. मुस्लिम महिला अधिनियम या सीआरपीसी की धारा 125 को, आखिर में कोर्ट ने मुस्लिम महिला के पक्ष में फैसला सुनाया.
शाहबानो इंदौर की रहने वाली एक मुस्लिम महिला थीं, उनके वकील पति मोहम्मद अहमद खान ने वर्ष 1975 में अपनी पत्नी को 59 साल की उम्र में तलाक दे दिया. शाहबानो की पहाड़ जैसी जिंदगी के साथ साथ 5 बच्चे भी थे लिहाजा खुद और 5 बच्चों के पालन पोषण के लिए पति से गुज़ारा भत्ते की मांग की. शाहबानो के पति वकील थे लिहाजा उन्होंने शरियत का हवाला देकर उनकी मांग को ठुकरा दिया. ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और 23 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ को दरकिनार करते हुए शाहबानो के पति को उन्हें हर माह 180 रुपया गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. कोर्ट के इस फैसले से उलमा आग बबूला हो गये, मुस्लिम नेता खिलाफत में उतर आये.
उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, वो उलेमाओ के दबाव में आ गये और 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया. यानी कि धारा 125 मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण नहीं देगी. उनके इस फैसले से नाराज होकर तत्कालीन सरकार में कबिनेट मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे दिया था. इसके बाद खूब हंगामा मचा था और राजीव गांधी सरकार की आलोचना हुई थी मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगे. अब आगा के मामले में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने वैसा ही फैसला सुनाया है. देखना यह है कि मोदी सरकार कोर्ट के फैसले से छिड़ी बहस से कैसे निपटती है?
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