चंडीगढ़. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के नतीजों की तस्वीर साफ हो गई है. हरियाणा में भाजपा ने उम्मीद से परे सफलता हासिल की है जबकि कांग्रेस माहौल बनाने के बावजूद लक्ष्य से काफी पीछे रह गई. हरियाणा में भाजपा को लगभग 50 सीटें मिल रही हैं तो कांग्रेस को 35. अन्य के खाते में आधा दर्जन […]
चंडीगढ़. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के नतीजों की तस्वीर साफ हो गई है. हरियाणा में भाजपा ने उम्मीद से परे सफलता हासिल की है जबकि कांग्रेस माहौल बनाने के बावजूद लक्ष्य से काफी पीछे रह गई. हरियाणा में भाजपा को लगभग 50 सीटें मिल रही हैं तो कांग्रेस को 35. अन्य के खाते में आधा दर्जन सीटें जा रही हैं. दोनों के वोट प्रतिशत में मामूली अंतर है, कांग्रेस को 39.97 फीसद वोट मिला है जबकि भाजपा को 39.63 फीसद. इसके बावजूद भाजपा को ज्यादा सीटें मिली और कांग्रेस को कम.
वहीं बात करें कश्मीर की तो नेशनल कांफ्रेंस को 43 और कांग्रेस को 8 सीटें मिल रही है जबकि भाजपा 27, पीडीपी 2 और अन्य को 8 मिल रही है. बेशक जम्मू-कश्मीर में भाजपा की सरकार नहीं बन रही है लेकिन उसे सीटें अच्छी संख्या में मिली हैं. इससे भी ज्यादा उसके लिए खुशी की बात यह कि कांग्रेस के हरियाणा में पांव उखड़ गये और कश्मीर ने नकार दिया. सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव में कमजोर हुई भाजपा ने ऐसा क्या किया कि जिस हरियाणा में जवान-किसान और पहलवान नाराज थे वहां पर भाजपा ने 2024 में वो कर दिखाया जो वह 2014 और 2019 में भी नहीं कर पाई थी. दूसरा यह कि इससे राष्ट्रीय फलक और विपक्ष खासतौर से कांग्रेसस और राहुल गांधी की राजनीति पर क्या फर्क पड़ेगा?
दरअसल किसी भी चुनाव में हार-जीत का कोई एक कारण नहीं होता, राजनीतिक विश्लेषक भाजपा की अप्रत्याशित जीत का कारण ढूंढने में लगे हैं लेकिन फौरी तौर पर जो बात समझ में आ रही है वो ये कि भाजपा ने जाट Vs गैर जाट की जो राजनीति 2014 में शुरू की थी वो इस चुनाव में परवान चढ़ गई. बहुत सोची समझी रणनीति के तहत पार्टी गैर जाट पंजाबी यानी मनोहर लाल खट्टर को सीएम बनाया. वह साढ़े नौ साल तक सीएम रहे लेकिन जब उनको लेकर लोगों में नाराजगी बढ़ने लगी तो पार्टी ने उन्हें हटाने में देर नहीं लगाई.
उनकी जगह पिछड़े वर्ग के नायब सिंह सैनी को सीएम बना दिया. यही नहीं मनोहर लाल खट्टर को पीएम की सभाओं से दूर रखा गया. चुनावी सभाओं में भी उनकी कम उपस्थिति रही. भगवा पार्टी के इस कदम से जाट और गैर जाट में लामबंदी बढ़ी और गैर जाटों ने एक होकर भाजपा के लिए वोट किया. जवान-किसान और पहलवानों के आंदोलन का जो प्रभाव था वह इस गोलबंदी में असरहीन हो गया. सूबे में जमींदार और नॉन जमींदार की जो खाई है, कहीं न कहीं उसका भी असर था. जमींदारों में भी एक तबका ऐसा था जो मान रहा था कि ये कुछ लोगों का आंदोलन था.
किसानों और पहलवानों ने जिस तरीके से अपने आंदोलन में उधम मचाया उससे गैर जाट में साफ संदेश गया कि यदि ये सत्ता में आये तो इनका उत्पात और बढ़ेगा. पूरे चुनाव के दौरान जाट बिरादरी के लोग आक्रामक रहे जबकि गैर जाट मौन लेकिन उन्होंने मन बना लिया कि वोट की चोट से उत्पात को रोकना है. भाजपा के बड़े नेताओं ने मिर्चपुर और गोहाना की घटनाओं को बार-बार याद दिलाया और दलितों को संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा राज में ही वे सुरक्षित रहेंगे.
ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस इस बात को नहीं समझ रही थी, वो बहुत अच्छी तरह समझ रही थी कि संदेश गलत जा रहा है लिहाजा उसने अपने घोषणा पत्र में संतुलन बनाने की कोशिश की. बुजुर्ग, विधवा, विकलांग पेंशन 6000, गरीबों को प्लॉट, 300 यूनिट बिजली फ्री, 500 में एलपीजी सिलेंडर देने व नौजवानों को रोजगार देने का वायदा किया.
खास बात यह रही कि जो लोग बदलाव चाहते थे उन्होंने भी इन वायदों पर भरोसा नहीं किया. सैलजा की नाराजगी भी कांग्रेस पर भारी पड़ी, हालांकि डैमेज कंट्रोल के लिए कांग्रेस ने तत्काल अशोक तंवर को पार्टी में शामिल कराया. चुनाव से पहले विनेश फोगाट सनसनी बनकर उभरीं थी, बेशक वह अपना चुनाव जीत गई हैं लेकिन वह चुनाव पर कोई खास असर नहीं छोड़ पाईं. वह पीएम मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को घेरती रहीं और भाजपा चुप्पी साधे रहीं. पार्टी नेताओं को ताकीद की गई थी कि वह कोई जवाब न दें.
लोकसभा चुनाव में कमजोर होने के बाद हरियाणा और जम्मू कश्मीर का चुनाव भाजपा के लिए लिटमस टेस्ट की तरह था. हरियाणा में उसने अप्रत्याशित जीत हासिल की है जबकि जम्मू-कश्मीर में भी अच्छा परफार्म किया है. महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव होने है लिहाजा अब वह बढ़े मनोबल के साथ दोनों राज्यों में चुनाव मैदान में उतरेगी.
जहां तक राष्ट्रीय फलक पर प्रभाव और विपक्ष खासतौर से कांग्रेस व राहुल गांधी की राजनीति का सवाल है तो विपक्ष अब यह नहीं कह पाएगा कि जनता में मोदी मैजिक काम नहीं कर रहा है. राहुल गांधी जिस तरीके से आक्रामक हो रहे थे और उनका आभामंडल बढ़ रहा था उस पर भी फर्क पड़ेगा. लोकतांत्रिक व्यवस्था में बेशक राज्यों के चुनाव परिणाम का दिल्ली की सत्ता से सीधा कनेक्शन नहीं होता है लेकिन उसका असर गहरा होता है. सत्तासीन पार्टी के हारने पर विपक्ष का वार बढ़ जाता है. यदि मतदाताओं का समर्थन भाजपा नहीं पाती तो निश्चित रूप से मोदी सरकार पर विपक्ष का वार बढ़ता लेकिन अब विपक्ष को वार के लिए मुद्दे तलाशने होंगे.
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