नई दिल्ली, द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासियों ने एक अलग धर्म कोड की मांग तेज कर दी है. सालों से आदिवासी ‘सरना धर्म कोड’ लागू करने की मांग करते आए हैं, झारखंड की सोरेन सरकार ने तो ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ बिल को पास भी कर दिया था, लेकिन मंजूरी के लिए ये बिल कब से सरकार के पास अटका है. ऐसे में, लोगों को द्रौपदी मुर्मू से उम्मीदें हैं. दरअसल, आदिवासियों का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है, जो खुद को हिंदू मानता ही नहीं है. और इनमें झारखंड के आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा है, ये लोग खुद को सरना धर्म का बताते हैं.
संविधान में अनुसूचित जनजातियों यानी आदिवासियों को ‘हिंदू’ माना जाता है लेकिन बहुत से कानून ऐसे हैं, जो आदिवासियों पर लागू नहीं होते हैं. हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, और हिंदू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 2(2) और हिंदू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम 1956 की धारा 3(2) अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होती है, इसका मतलब ये है कि विवाह, तलाक, बाल-विवाह, उत्तराधिकार जैसे तमाम प्रावधान अनुसूचित जनजाति के लोगों पर लागू नहीं हैं. इसके पीछे की एक वजह ये भी है कि सैकड़ों जनजातियों और उप-जनजातियों के शादी, तलाक और उत्तराधिकार को लेकर अपने अलग रीति-रिवाज और परंपराएं हैं.
आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि सारे आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते दरअसल एक बड़ा तबका ऐसा है जो खुद को हिंदू नहीं बल्कि ‘सरना’ मानता है. सरना यानी वो लोग जो प्रकृति की पूजा करते हैं और झारखंड में सरना धर्म मानने वालों की संख्या बहुत बड़ी है. ये लोग खुद को प्रकृति का पुजारी बताते हैं और ये ईश्वर या मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते हैं. खुद को सरना धर्म का मानने वाले तीन तरह की पूजा करते हैं, ये सबसे पहले धर्मेश यानी पिता, दूसरा सरना यानी मां और तीसरा प्रकृति यानी जंगल की पूजा करते हैं. सरना धर्म मानने वाले ‘सरहुल’ त्योहार मनाते हैं और इसी दिन से इनके नए साल की शुरुआत होती है.
सरना धर्म मानने वाले खुद को हिंदुओं से अलग बताते हैं, इसी कड़ी में पिछले साल फरवरी में एक कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था, ‘आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे, और ना ही ये हिंदू हैं. इसमें कोई कन्फ्यूजन नहीं है, हमारा सब कुछ अलग है और हम प्रकृति की पूजा करते हैं.’
ये सरना धर्म कोड क्या है? इसे इस तरह समझिए कि जनगणना रजिस्टर में धर्म का एक कॉलम होता है और इस कॉलम में अलग-अलग धर्मों का अलग-अलग कोड होता है. जैसे हिंदू धर्म का 1, मुस्लिम का 2, क्रिश्चियन धर्म का 3, इसी तरह सरना धर्म के लिए अलग कोड की मांग हो रही है. अगर केंद्र सरकार सरना धर्म के लिए अलग से कोड की मांग को मान लेती है तो फिर हिंदू, मुस्लिम की तरह ‘सरना’ भी एक अलग ही धर्म बन जाएगा.
झारखंड के आदिवासी वर्षों से अपने लिए अलग से ‘सरना धर्म कोड’ लागू करने की मांग कर रहे हैं, बता दें इन आदिवासियों की ये मांग 80 के दशक से चली आ रही है. 2019 में झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार आने के बाद ये मांग और तेज हो गई थी, यहाँ तक की सोरेन सरकार ने ‘सरना धर्म कोड बिल’ पास किया था लेकिन ये बिल अब तक मंजूरी के लिए केंद्र सरकार के पास अटका पड़ा है.
ब्रिटिश इंडिया में 1871 में पहली बार जनगणना हुई थी, उस समय आदिवासियों के लिए अलग से धर्म कोड की व्यवस्था थी और 1941 तक ये व्यवस्था लागू रही. लेकिन आजादी के बाद 1951 में जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को शेड्यूल ट्राइब्स यानी ST मतलब अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा. और जनगणना में ‘अन्य’ नाम से धर्म की कैटेगरी बना दी गई, वहीं 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अनुसूचित जनजातियों की आबादी 10.45 करोड़ से ज्यादा है. जिसमें से 86.45 लाख आबादी झारखंड में है. झारखंड की 26 फीसदी से ज्यादा आबादी आदिवासी है.
2011 की जनगणना में 79 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे, जिन्होंने धर्म के कॉलम में ‘अन्य’ भरा था, लेकिन साढ़े 49 लाख से ज्यादा लोग ऐसे थे जिन्होंने अन्य की बजाय ‘सरना’ लिखा था और इन 49 लाख में से 42 लाख झारखंड के ही थे. ऐसे में, सरना धर्म के लिए अलग से कोड की मांग करने वालों का तर्क है कि जब 45 लाख की आबादी वाले जैन धर्म के लिए अलग से कोड होता है, तो फिर 49 लाख लोगों ने सरना को अलग धर्म मानने में क्या दिक्कत है?
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