कर्नाटक चुनाव: क्या CM सिद्धारमैया ने फेंका अपना तुरुप का इक्का?

लिंगायत धर्म की स्थापना 12 शताब्दी में बसावा नाम के दार्शनिक और कवि ने की थी. बसावा का जन्म के ब्राह्मण परिवार में हुआ था लेकिन वो जाति व्यवस्था और पितृ सत्ता के खिलाफ थे. वो हिंदू धर्म में प्रचलित मूर्ति पुजन को भी नहीं मानते थे

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कर्नाटक चुनाव: क्या CM सिद्धारमैया ने फेंका अपना तुरुप का इक्का?

Aanchal Pandey

  • March 21, 2018 3:28 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

कर्नाटक में दो महीने बाद चुनाव होने वाले हैं और मंगलवार को कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत को हिन्दू धर्म से अलग करके उसे एक अलग धर्म होने की  सिफारिश केन्द्र सरकार के पास भेज दी है. अगर केन्द्र सरकार मान जाए तो लिंगायत राज्य में एक नई अल्पसंख्यक धर्म बन जाएगी. यह मामला अब गृह मंत्रालय के पास चला गया है और अब केन्द्र की मोदी सरकार को
इस पर निर्णय लेना है.

मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का फैसला और उसका वक्त इसे पूर्ण रुप से राजनीतिक बनाता है. हालांकि लिंगायतों की मांग पुरानी है पर आपको ये बता दें 2013 में कांग्रेस जब केन्द्र में थी तब मनमोहन सिंह ने इस मांग को ठुकरा दिया था. उस वक्त इसके दो प्रमुख कारण बताए थे. पहला बताया कि अगर अलग धर्म इसे बना दिया जाए तो उन्हें SC/ST वाला आरक्षण खत्म हो जाएगा और दूसरा कारण ये बताया कि इससे समाज और बंट जाएगा.

कर्नाटक की राजनीति पर इसका असर

बताते चलें कि पिछले 22 में से 8 कर्नाटक के मुख्यमंत्री इसी समुदाय के बने हैं. बीजेपी के राज्य के सबसे बड़े नेता और आने वाले विधानसभा चुनाव के मुख्यमंत्री उम्मीदवार बी. एस येदुरप्पा भी इसी समुदाय से आते है. कर्नाटक की 224 में से 90 लोकसभा सीट पर यह समुदाय सीधा असर डालती है. लिंगायत समुदाय शुरु से बीजेपी का वोटबैंक रहा है और यह फैसला सीधे तौर पर लिगांयत समुदाय के वोटों पर असर डालेगी. इस फैसले के आने के बाद इसके खिलाफ कोई भी बयान अभी तक येदुरप्पा ने नहीं दिया है. हालांकि बेंगलुरु से लोकसभा सदस्य और केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार ने इस निर्णय को पूरी तरह से कांग्रेस की वोट बैंक पॉलिटिक्स कहा है और ये आरोप भी लगाया कि वो अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की राजनीति को अपना रही है.

कुछ दिन पहले तक सिद्धारमैया सरकार आने वाले चुनाव में बेहद कमजोर नज़र आ रही थी. जहां बीजेपी हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है, जिसमें टीपू सुल्तान जयंती बनाने का पुरजोर विरोध और हाल में इस्लामिक मीडिया हाउसेज को फुल पेज
इश्तेहार देने की बात हो या फिर अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले पत्रकारों को गैजेट देने की बात हो इसको भी भाजपा ने मुस्लिम अपीजमेंट कहकर मुद्दे को उठा रही है. वहीं सिद्धारमैया सरकार कर्नाटक प्राइड की राजनीति कर रही है.

पहले राज्य के लिए अलग झण्डे का मांग, जिसकी अर्जी राज्य सरकार भेज चुकी है. राज्य सरकार को केन्द्र की तरफ से हरी झंडी मिलने का इंतजार है और अगर ऐसा होता है तो कश्मीर के बाद कर्नाटक दूसरा ऐसा राज्य बन जाएगा जिसका अपना अलग झंडा
होगा.

खास बात यह है कि प्रपोज झण्डे का डिजाइन टीपू सुल्तान के राज्य के झण्डे से प्रभावित है. दूसरा, राज्य में पिछले साल हुआ एंटी हिन्दी कैपेंन
जिसका समर्थन सिद्धारमैया सरकार ने भी खुल कर किया और बेंगलुरु के नए नवेले मेट्रो ट्रेन और स्टेशन से सारे हिन्दी के साइन बोर्ड हटा लिए गए. ये बात अब साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव राज्यप्रेम और हिंदुत्व के
बीच होगी.

बीजेपी की असमंजस
भारतीय जनता पार्टी के लिए यह स्थिति बेहद ही असमंजस वाली है. अगर वो इस प्रपोजल को मान लेती है तो भी इसका क्रेडिट राज्य सरकार ले लेगी और अगर ठुकरा देती है जिसकी ज्यादा संभावना है इस परिस्थिति में कांग्रेस चुनाव में बीजेपी को एंटी लिंगायत होने का इल्जाम लगा एक बड़ा वोट बैंक बीजेपी से झटक लेगी. सीधे तौर पर वोट बैंक पॉलीटिक्स कर रहे हैं. राज्य में 20% के लगभग ओबीसी कम्युनिटी के लोग है दलितों की जनसंख्या 19.5% , मुस्लमानों की जनसंख्या 16%, लिंगायतों की 14% और वक्कीलागास का 11% प्रतिशत है. आपको बता दें
कर्नाटक में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो 50% से ज्यादा सांसद और विधायक और वक्कीलागास लिंगायत समुदाय से ही आते हैं.

वहीं 2013 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 122 सीट मिली थीं. 36.6 कांग्रेस का वोट प्रतिशत था. जनता दल को 20.2% वोट 40 सीट, भाजपा को 19.9% वोट 40 सीट और येदियुरप्पा ने बीजेपी तोड़ जो कर्नाटक जनता पक्शा नाम से पार्टी बनाई थी. उसे 9.8% और 40 सीट मिली थी. परिस्थितियां बदल चुकी हैं. येदियुरप्पा वापस पार्टी में आ चुके हैं और भाजपा हिंदुत्व, विकास और स्थानीय मुद्दों को उठा कर विभिन्न राज्यों में सत्ता हासिल लगातार करते आ रही है.

आइए जानते हैं लिंगायत धर्म के बारे में
लिंगायत धर्म की स्थापना 12 शताब्दी में बसावा नाम के दार्शनिक और कवि ने की थी. बसावा का जन्म के ब्राह्मण परिवार में हुआ था लेकिन वो जाति व्यवस्था और पितृ सत्ता के खिलाफ थे. वो हिंदू धर्म में प्रचलित मूर्ति पुजन को भी नहीं मानते थे और
इनके बाद भी इस धर्म के कई गुरु हुए और इनको मानने वाले लिंगायत धर्म के अनुयायी. कुछ लोग इस धर्म को विरशैवा भी कहते हैं, जिसका जुड़ाव शिव से है और इस वजह से इस धर्म को हिंदू धर्म का ही उपभाग मानते है. परंतु बहुत सारे लिंगायत खुद को विरशैवा और हिंदुत्व से खुद को अलग मानते है.

पत्रकार गौरी लंकेश जिनकी हत्या पिछले साल हुई था वो भी लिंगायत धर्म की ही थी. गौरी लंकेश का यह कहना था लिंगायत बसावा के अनुयायी है और विरशिवा वैदिक शिवा के मानने वाले, जो वेद को मानते हैं और जाति-लिंग के अनुसार भेदभाव करते
हैं. उनका यह कहना था बसावा मूवमेंट से वैदिक शिवा वाली जाति के लोग आकर्षित हुए और वेद के साथ साथ लिंगायत को भी फॅालो करने लगे. हालांकि विरशैवा लोग दोनों को एक मानते हैं और रुड़ीवादी लिंगायत अलग. अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि सिद्धारमैया का यह फैसला कांग्रेस को कर्नाटक में कितना फायदा पहुँचाएगी और बीजेपी इस पर क्या निर्णय लेगी और राज्य चुनाव के लिए आगे की क्या रणनीति बनाती है.

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