September 29, 2024
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100 साल पहले था पूरा गाँव, आज बना कनॉट प्लेस, जानें कैसे बसा शहर?

100 साल पहले था पूरा गाँव, आज बना कनॉट प्लेस, जानें कैसे बसा शहर?

  • WRITTEN BY: Amisha Singh
  • LAST UPDATED : February 25, 2023, 8:33 pm IST

नई दिल्ली: देश की राजधानी दिल्ली की गिनती अब दुनिया केटॉप मेट्रो सिटीज में होने लगी है। आज इस शहर में अत्याधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। दिल्ली हर समय बदल रही है और कुछ वर्षों या दशकों में बहुत कुछ बदल गई है। अब बहुत कम ऐसे लोग बचे होंगे, जिन्होंने 7-8 या उससे भी ज्यादा दशकों तक दिल्ली को देखा होगा! लेकिन हाँ, हमने अपने घर के बड़े-बुजुर्गों से कहानियाँ जरूर सुनी होंगी कि दिल्ली पहले कैसी नज़र आती थी।

बहरहाल, आज हम दिल्ली के कनॉट प्लेस के बारे में बात करेंगे। हाल ही में लेखक विवेक शुक्ला की एक किताब कनॉट प्लेस – दिल्ली का पहला प्यार – कनॉट प्लेस में छपी। इसमें उन्होंने कनॉट प्लेस, दिल्ली के दिल और इसके वातावरण के बारे में विस्तार से लिखा है। आइए आपको इस बारे में बताते हैं :

 

कनॉट प्लेस कभी हुआ करता था गाँव

आज जहाँ कनॉट प्लेस और पार्लियामेंट स्ट्रीट आज मिलते हैं, वहाँ एक सदी पहले कुछ गांव थे। माधोगंज, जयसिंहपुरा और राजा मार्केट। पूरा इलाका गाँव जैसा था। न पक्के मकान थे, न दुकानें थी। इसलिए तब लोग मोटरसाइकिल नहीं बल्कि तांगा और बैलगाड़ी चलाते थे। कनॉट प्लेस बनने से पहले इन गाँवों के निवासी करोल बाग के पास बस गए थे। तब कनॉट प्लेस और आस-पास के इलाकों में घने पेड़-पौधे थे और हिरण, जंगली सूअर आदि यहाँ घूमते रहते थे।

कहानी कनॉट प्लेस की….

कनॉट प्लेस को 1920 के दशक में ब्रिटिश वास्तुकार रॉबर्ट टोर रसेल द्वारा डिजाइन किया गया था। यही वजह है कि इन्हें कनॉट प्लेस का वास्तुकार कहा जाता है। उन्हें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन बनाने का प्रस्ताव दिया गया था जहाँ आज सेंट्रल पार्क है। खैर, वह नहीं माना। उनकी सिफारिश पर प्रस्तावित रेलवे स्टेशन को पहाड़गंज ले जाया गया। रॉबर्ट का मानना ​​था कि किसी भी बाजार के बीच में एक पार्क की जरूरत होती है, ताकि खरीदारी के बाद लोग आराम कर सकें, थोड़ा आराम महसूस कर सकें। इसलिए इसे भी सेंट्रल पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। इनर सर्कल, मिडिल सर्कल और आउटर सर्कल… उन्होंने कनॉट प्लेस को इस तरह बाँटकर डिजाइन किया।

 

खुशवंत सिंह के पिता की थी जिम्मेदारी

एक बार डिजाइन तैयार हो जाने के बाद, कनॉट प्लेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के पिता सरदार सोबा सिंह पर आ गई। उन्होंने ही राष्ट्रपति भवन, सिंधिया हाउस, रीगल बिल्डिंग, युद्ध स्मारक आदि के कुछ हिस्सों का निर्माण कराया था। मजदूरों को राजस्थान से बुलाया गया था, उन्हें बागड़ी कहा जाता है। जयपुर, जोधपुर, भीलवाड़ा आदि जगहों से सभी मजदूर अपने कपड़े लेकर आए थे। पुरुष श्रमिकों को एक दिन में एक रुपया और महिला श्रमिकों को अठन्नी, यानी 50 पैसे मिलते थे। दिन रात कड़ी मेहनत के बाद खड़ा हुआ – कनॉट प्लेस। जी हाँ, वही जगह जिसे दिल्ली का दिल भी कहा जाता है।

 

 

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