नई दिल्ली: केरल में एक महिला ने अपने पति के शारीरिक संबंध न बनाने और विवाहिक जीवन में रुचि न दिखाने के चलते तलाक का मामला दर्ज किया था। महिला का आरोप था कि उसका पति दिनभर पूजा-पाठ और मंदिर-आश्रम में व्यस्त रहता था, यहां तक कि उसने पत्नी को भी अपनी तरह आध्यात्मिक जीवन अपनाने के लिए मजबूर किया। इस मामले में हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के तलाक के फैसले को सही ठहराया।
‘बार एंड बेंच’ की रिपोर्ट के मुताबिक, न्यायमूर्ति देवन रामचंद्रन और एम.बी. स्नेहलता की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा, “शादी में किसी भी साथी को यह अधिकार नहीं होता कि वह अपने व्यक्तिगत विश्वास दूसरे पर थोपे, चाहे वे आध्यात्मिक हों या कुछ और। पत्नी को जबरन आध्यात्मिक जीवन अपनाने के लिए मजबूर करना और उसे भावनात्मक रूप से परेशान करना मानसिक क्रूरता के बराबर है।” कोर्ट ने आगे कहा कि पति का पारिवारिक जीवन में रुचि न लेना और वैवाहिक कर्तव्यों से बचना तलाक का आधार हो सकता है।
पत्नी ने बताया कि उसका पति ऑफिस से लौटते ही सीधा मंदिर और आश्रम चला जाता था। उसने शारीरिक संबंध बनाने और संतान पैदा करने में भी कोई रुचि नहीं दिखाई। इतना ही नहीं, पति ने पत्नी की आगे की पढ़ाई भी रुकवा दी।
महिला ने 2019 में तलाक की अर्जी दी थी, लेकिन पति ने व्यवहार में बदलाव लाने का वादा किया, जिससे वह पीछे हट गई। जब 2022 में भी कोई बदलाव नहीं आया, तो महिला ने दोबारा तलाक की मांग की, जिसके बाद फैमिली कोर्ट ने महिला के पक्ष में फैसला सुनाया। पति ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की और दावा किया कि उसकी आध्यात्मिकता को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है। हालांकि, हाई कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद तलाक के फैसले को बरकरार रखा। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि किसी भी व्यक्ति की आध्यात्मिक आस्था उसके निजी विश्वास का हिस्सा हो सकती है, लेकिन उसे जीवनसाथी पर थोपना वैवाहिक कर्तव्यों की अनदेखी के रूप में देखा जा सकता है।
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