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रामपुर और आजमगढ़ की हार से बढ़ीं सपा की मुश्किलें, 2024 बिगड़ न जाएं समीकरण

लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुए रामपुर और आजमगढ़ उपचुनाव में हार के बाद सपा की मुश्किलें बढ़तीं नज़र आ रहीं हैं. यादव बेल्ट में खिसकता जनाधार और मुस्लिम मतों का विभाजन सपा के लिए वर्ष 2024 के सियासी समर में बड़ी मुसीबत बन सकता है. आजमगढ़ और रामपुर में मिली हार ने समाजवादी पार्टी के […]

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  • June 28, 2022 11:19 am Asia/KolkataIST, Updated 2 years ago

लखनऊ, उत्तर प्रदेश में हुए रामपुर और आजमगढ़ उपचुनाव में हार के बाद सपा की मुश्किलें बढ़तीं नज़र आ रहीं हैं. यादव बेल्ट में खिसकता जनाधार और मुस्लिम मतों का विभाजन सपा के लिए वर्ष 2024 के सियासी समर में बड़ी मुसीबत बन सकता है.

आजमगढ़ और रामपुर में मिली हार ने समाजवादी पार्टी के भविष्य को लेकर चिंताएं गहरी कर दी हैं. कमोबेश उपचुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि मौजूदा हालात के मद्देनज़र सपा मुखिया अखिलेश यादव को पार्टी में टिकट के लिए कद्दावर नेताओं के दबाव से निपटने के साथ ही स्थानीय संगठन को तरजीह देने की जुगत बिठाना अहम होगा, वहीं अपने गढ़ में अखिलेश को मुस्लिम-यादव वोट छिटकने से भी रोकना होगा.

धर्मेंद्र प्रधान नहीं लड़ना चाहते थे चुनाव

सपा में अंदरखाने चर्चा है कि धर्मेंद्र यादव आजमगढ़ से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, आजमगढ़ की बजाय वे अपनी बदायूं सीट पर ही काम करने के लिए अड़े थे लेकिन हाल ही में सपा में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य के दबाव में धर्मेंद्र यादव को बदायूं से चुनाव लड़ाया गया. दरअसल, यह मिशन-2024 के मद्देनजर किया गया था. स्वामी प्रसाद चाहते हैं कि उनकी बेटी संघमित्रा मौर्य को 2024 में बदायूं से ही लड़ाया जाए और आजमगढ़ में परिवार के सदस्य धर्मेंद्र यादव के लिए सियासी स्कोप बना रहे, नतीजतन, धर्मेंद्र को आजमगढ़ से उतारा गया, लेकिन यहां सपा का गणित गलत हो गया.

अखिलेश को रामपुर में भी कुछ ऐसी ही स्थिति से जूझना पड़ा. लोकसभा चुनाव से पहले आजम खां की नाराज़गी का सबब भी समझने में समाजवादी पार्टी नाकाम रही थी, ऐसा भी नहीं कह सकते हैं. दरअसल, आजम अपने और अपने चहेतों के लिए ही उपचुनाव में टिकट चाहते थे लिहाजा नाराज़गी को हथियार बनाया गया और कहना गलत न होगा कि सपा मुखिया इस दांव को भी संभाल न सके. इस तथ्य को भी नकार दिया गया कि वर्ष 2019 में सपा-बसपा साथ में थे और आजम खां की जीत हुई थी, अब बसपा की नामौजूदगी में सियासी समीकरण क्या होंगे इसे भी समझने में सपा मुखिया ने चूक की.

यादव बेल्ट में छिटकते वोट बैंक

सियासी जानकार कहते हैं कि समाजवादी पार्टी अपने गढ़ में ही अपने वोट बैंक को सहेज नहीं पा रही है, हालांकि निरहुआ के पक्ष में बहुत ज्यादा यादव वोट शिफ्ट हुआ यह दावा नहीं किया जा सकता लेकिन यादव समाज के युवा वर्ग को हिंदुत्व व कानून-व्यवस्था के सहारे भाजपा ने अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश की है. भाजपा इसमें कितनी सफल हुई यह तो स्पष्ट नहीं है लेकिन 1-2 फीसदी वोटों में हुए बदलाव को नकारा भी नहीं जा सकता. कुछ ऐसी ही रणनीति के तहत जौनपुर से भाजपा सरकार के मंत्री गिरीश यादव को लड़ाकर भाजपा ने वहां न केवल यादव समाज को विकल्प दिया है बल्कि दो बार से पार्टी वहां अपनी जीत सुनिश्चित कर रही है.

मुस्लिम वोटों का क्या?

बसपा प्रमुख मायावती विधानसभा चुनाव हारने के बाद से लगातार मुस्लिम मतों को रिझाने की कोशिश में लगीं हैं, वह लगातार कह रही हैं कि मुस्लिम समाज को भ्रमित किया गया और भाजपा से टक्कर लेने में अब केवल बसपा ही सक्षम है. वहीं सपा बसपा को उसके मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए घेरती भी रही है, बसपा ने इससे पहले भी सपा के वोटबैंक में सेंधमारी की है.

वर्ष 2019 के चुनाव सपा-बसपा ने मिलकर लड़े थे तब अखिलेश यादव को छह लाख से अधिक वोट मिले थे, ऐसे हालातों में जब बसपा मुस्लिम मतों की पुरजोर चाहत रख रही है, समाजवादी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है कि कैसे वह बसपा के मुस्लिम वोट बैंक के विभाजन को रोक सके, ऐसे में ये कहना गलत न होगा कि अगर यह विभाजन नहीं रुका तो सपा को ठीक उसी तरह नुकसान होगा जैसा विधानसभा चुनावों में बसपा द्वारा सपा के मुस्लिम प्रत्याशियों के सामने मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा करने पर हुआ था और अब आजमगढ़ में भी सपा को कुछ वैसा ही नुकसान झेलना पड़ा है.

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