अल्पसंख्यक धर्म दर्जा: कौन हैं लिंगायत और कर्नाटक की राजनीति में क्या है उनकी हैसियत

लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश करके कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव से पहले मास्टर स्ट्रॉक खेल दिया है. ऐसे में लिंगायत समुदाय खड़ा करने वाले संत बासवन्ना ने आज बीजेपी और संघ के लिए भारी परेशानी खड़ी कर दी है.

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अल्पसंख्यक धर्म दर्जा: कौन हैं लिंगायत और कर्नाटक की राजनीति में क्या है उनकी हैसियत

Aanchal Pandey

  • March 22, 2018 6:52 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

नई दिल्ली. जब पीएम मोदी अपनी यात्रा पर 2015 में लंदन गए थे तो टेम्स नदी के किनारे एक संत की मूर्ति का अनावरण किया था, नाम था संत बासवन्ना, जिन्हें बासव के नाम से भी जाना जाता है. उस वक्त लोग चौंके थे, क्योंकि उत्तर भारत में उनका नाम पहले कभी नहीं सुना गया था, लगा था मोदी के कोई अपने पसंदीदा संत रहे होंगे. आज फिर वही संत चर्चा में हैं और मोदी मुश्किल में. जिस तरह गुजरात चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकुर जैसे तीन चेहरों को बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस से जोड़ा, उसी तरह का मास्टर स्ट्रॉक कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव से पहले खेल दिया है, लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश करके. दिलचस्प बात ये है कि इन्हीं संत बासवन्ना ने कभी ये लिंगायत समुदाय खड़ा किया था, जिसने आज बीजेपी और संघ के लिए भारी परेशानी खड़ी कर दी है.

सबसे पहले समझना होगा कि हिंदू धर्म से अलग होने का मतलब क्या है? भारत के इतिहास के लिए ये कोई नई बात नहीं है. भारत की जातिवादी व्यवस्था और कर्मकांडों के विरोध के चलते अलग अलग आंदोलन अलग अलग महापुरुषों ने शुरु किए और जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, आर्य समाज जैसे कई आंदोलन खड़े हुए और उनमें से आज कई धर्म अलग हैं. हालांकि वो हिंदुओं से ही अलग हुए हैं, सो कई बातें उनमें समान पाई जाती हैं. कई त्यौहार वो हिंदुओं के भी मनाते हैं. 1105 में पैदा हुए बासवन्ना ने अपनी जिंदगी के 12 साल मंदिर में रहते हुए ही गुजारे, वहीं रहकर पढ़ाई की. शायद पुजारियों, पंडितों की कई हरकतों को उन्होंने करीब से देखा, जिसके चलते महर्षि दयानंद सरस्वती की तरह ही उनको भी कर्मकांड से चिढ़ हो गई. हालांकि खुद उनका नाम शिव के बैल नंदी से प्रेरित होकर ही रखा गया था.

बाद में उनको मौका मिला कलचुरी राजा बिज्जल के प्रधानमंत्री के रूप में काम करने का, जितना ज्ञानी थे, उतने ही संघटक भी. सो उन्होंने धीरे धीरे ऐसे लोगों का समुदया खड़ा करना शुरू किया, जो कर्मकांडों और जाति व्यवस्था को नहीं मानता था, स्त्री पुरुष का भेद नहीं मानता था. आर्य समाजियों ने कर्मकांडों और मूर्ति व्यवस्था का विरोध किया लेकिन वेदों को माना, लेकिन लिंगायतों ने कर्मकाडों, मूर्ति व्यवस्था के साथ साथ वेदों को भी नहीं माना. ये अलग बात है कि वो वेदांत को मानते हैं, औपचारिक तौर पर उनके नेता या धर्म प्रमुख वेदांत की बात पर भी सहमति नहीं होते. लेकिन लिंगायतों के वचन और उनके जो ग्रंथ हैं, कई विद्वानों ने उन्हें वेदांत यानि उपनिषदों पर ही आधारित पाया है. उपनिषद हिंदू धर्म का सबसे परिष्कृत रुप हैं, जो आध्यात्म का रास्ता दिखाता है, गीता उपनिषदों का ही निचोड़ है.

तो लिंगायत फिर किसकी पूजा करते हैं? दरअसल नाम से ही पता चलता है कि वो लिंग को मानते हैं, वो अपने शरीर पर एक ‘इष्टलिंग’ धारण करते हैं. इष्टलिंग अंडे के आकार की गेंद जैसी एक आकृति होती है, जिसे वो धागे से बांधकर पहनते हैं. हालांकि वो लोग शिव की पूजा नहीं करते हैं. पहले उन्हें वीर शैव समुदाय का ही अंग समझा जाता था, वीर शैव तो आज भी मानते हैं. लेकिन पिछले कुछ दशकों से लिंगायतों के नेता लगातार खुद को हिंदुओं और वीरशैवों से अलग पहचान बनाने की मांग करने लगे हैं, लोगों का कहना है वो राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यकों का आरक्षण पाना चाहते हैं, इसलिए ऐसा किया जा रहा है. भले ही लिंगायतों को अगड़ी जाति का माना जाता है, लेकिन बड़ा तादाद में लिंगायतों से पिछड़ी और दलित जातियों के लोग भी जुड़े हैं, सो उनको मिलने वाला दलित वाला आरक्षण का नुकसान उन्हें हो सकता है.

लिंगायतों और हिंदू धर्म में अलग अलग क्या क्या है? लिंगायत शवों को दफनाते हैं, दाह संस्कार नहीं करते. यूं नाथ, बैरागी और गोसाईं समाज के लोग भी शवों को दफनाते हैं, बच्चों को तो हिंदुओं में दफनाने की परम्परा थी ही. हड़प्पा तक में दफनाएं हुए शवों के कंकाल मिले हैं. लिंगायत पुर्नजन्म में भी विश्वास नहीं करते, इस जन्म में ही मेहनत करके वो इसी जीवन को स्वर्ग बनाने की बात करते हैं. तो भगवान बुद्ध ने भी पुर्नजन्म जैसे सवाल पर मौन रखा था, आम हिंदू प्रेक्टिस में उसे बस अच्छे कार्यों को करने का खौफ भर माना जाता है. पितरों को श्राद्ध देने के अलावा कोई कर्मकांड भी नहीं किया जाता. लिंगायतों में जब किसी की मौत हो जाती है, तो शव को नहला धुला कर सजी सजाई कुर्सी पर बैठाया जाता है और कंधे पर बिठाया जाता है, इसे विमान बांधना कहा जाता है. हालांकि भारत में लोकमान्य तिलक को खुद योग मुद्रा में बैठी हुई अवस्था में समाधिस्थ किया गया था, उदयपुर के पास एक योग मुद्रा में कंकाल भी बैठे हुए मिला है, जो करीब 2700 साल पुराना है. रही बात विमान की, तो हिंदुओं में जितने भी उम्रदराज लोग मरते हैं, उनके मरने के बाद बड़ी धूमधाम से गाजे बाजे के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है, उसको विमान बांधना ही कहा जाता है. मूर्ति पूजा का विरोध पहले भी कई समुदायों में हुआ है, वैदिक काल में मूर्ति पूजा का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है, आर्य समाज भी नहीं मानता है.

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