नई दिल्ली: चिकित्सकों के एक संगठन ने देश में ट्रक चालकों की नींद से जुड़ी समस्याओं के कारण सड़क हादसों की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताते हुए एक समाधान अपनाने को कहा है. बता दें चिकित्सकों हर दो साल में नियमित ‘स्लीप स्क्रीनिंग’ की व्यवस्था शुरू करने का सुझाव दिया है। स्लीप स्क्रीनिंग एक ऐसा […]
नई दिल्ली: चिकित्सकों के एक संगठन ने देश में ट्रक चालकों की नींद से जुड़ी समस्याओं के कारण सड़क हादसों की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताते हुए एक समाधान अपनाने को कहा है. बता दें चिकित्सकों हर दो साल में नियमित ‘स्लीप स्क्रीनिंग’ की व्यवस्था शुरू करने का सुझाव दिया है। स्लीप स्क्रीनिंग एक ऐसा टेस्ट है, जिससे नींद से जुड़ी बीमारियों का पता लगाने में मदद मिलती है.
साउथ ईस्ट एशियन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन के अध्यक्ष डॉ. राजेश स्वर्णकार ने बताया कि ट्रक चालकों में नींद की कमी से सड़क हादसों का खतरा बढ़ रहा है। उन्होंने क्षेत्रीय परिवहन कार्यालयों (RTO) से आग्रह किया कि ट्रक चालकों से हर दो साल में उनके शरीर द्रव्यमान सूचकांक (BMI), दिन में नींद आने, और रात में खर्राटे भरने से संबंधित सवाल पूछे जाएं। इन सवालों के विश्लेषण और चिकित्सकीय जांच से यह पता लगाया जा सकता है कि चालकों को ‘स्लीप एपनिया’ जैसी बीमारियां तो नहीं हैं।
जानकारी के अनुसार, ने कहा कि अगर ट्रक चालक रोजाना सात से आठ घंटे की नींद लेते हैं, तो सड़क हादसों का खतरा 43 प्रतिशत तक कम हो सकता है। इंदौर के ट्रांसपोर्ट नगर में ट्रक चालक धर्मेंद्र शर्मा का कहना है कि उन्हें काम के दौरान केवल दो से चार घंटे की नींद मिलती है, जिससे उनकी एकाग्रता पर असर पड़ता है। वहीं बाकी चालकों ने भी इसी समस्या की शिकायत की है, जिसमें यातायात जाम और टोल नाकों की कतारों के कारण उन्हें तेजी से माल पहुंचाने का दबाव होता है।
इस बीच, ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के अध्यक्ष सीएल मुकाती ने ट्रक चालकों की ‘स्लीप स्क्रीनिंग’ के विचार का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि अगर किसी चालक में नींद से जुड़ी कोई बीमारी पाई जाती है, तो उसका मुफ्त इलाज कराया जाना चाहिए। इसके साथ ही सरकार को ट्रक चालकों के लिए हर 200 किलोमीटर पर विश्राम गृह बनाने चाहिए ताकि वे अपनी नींद पूरी कर सकें।
स्लीप एपनिया एक गंभीर नींद से जुड़ी बीमारी है, जिसमें पीड़ित की नींद कई बार टूटती है और सांस रुक सकती है। एक अध्ययन के अनुसार, देश की 13 फीसदी आबादी इस बीमारी से पीड़ित है, जिसमें पुरुषों में यह आंकड़ा 19.7% और महिलाओं में 7.4% है।
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