बिहार में बहार है, नीतीश कुमार है' के बाद जेडीयू ने नारा दिया है, 'जब बात बिहार की हो तो नाम हो सिर्फ नीतीश कुमार'. इस नारे के बाद कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने इस पोस्टर के जरिए बीजेपी आलाकमान को अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं. नीतीश कुमार प्रगति यात्रा पर हैं और उन्होंने यह यात्रा उसी चंपारण से शुरू की है, जहां से महात्मा गांधी ने अपना पहला सत्याग्रह किया था.
पटना: बिहार में चुनाव होने में भले ही अभी करीब 10 महीने का समय बाकी हो, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक पोस्टर ने बिहार का सियासी पारा बढ़ा दिया है. इसकी आंच बीजेपी आलाकमान तक पहुंचती दिख रही है. वहीं बिहार में बहार है, नीतीश कुमार है’ के बाद जेडीयू ने नारा दिया है, ‘जब बात बिहार की हो तो नाम हो सिर्फ नीतीश कुमार’. इस नारे के बाद कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने इस पोस्टर के जरिए बीजेपी आलाकमान को अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं.
नीतीश कुमार प्रगति यात्रा पर हैं और उन्होंने यह यात्रा उसी चंपारण से शुरू की है, जहां से महात्मा गांधी ने अपना पहला सत्याग्रह किया था. यहीं से प्रशांत किशोर ने जनसुराज का सफर भी शुरू किया था. अब चूंकि मुख्यमंत्री जेडीयू से हैं तो यह नारा जेडीयू के लिए उपयुक्त है, लेकिन क्या जेडीयू की सहयोगी बीजेपी भी इस नारे से सहमत होगी? क्योंकि अब चुनाव का समय है. इस चुनाव में जेडीयू और बीजेपी न सिर्फ एक दूसरे के सहयोगी हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक भी हैं.
एक दूसरे के बिना कोई भी समृद्ध नहीं हो सकता. ऐसे में प्रगति यात्रा पर निकले नीतीश कुमार के लिए जारी किया गया पोस्टर, क्या इसे नीतीश कुमार का बीजेपी को दिया गया संकेत माना जाये कि नीतीश कुमार महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे नहीं हैं कि चुनाव से पहले जरूरत पड़ी तो विधायक लाकर मुख्यमंत्री बन गये और चुनाव के बाद कम सीटें आयीं तो उपमुख्यमंत्री बन गये. मुख्यमंत्री से मुख्यमंत्री. क्योंकि ये बात बिहार में भी होना तय है.
वहीं इससे पहले भी जब 2020 के चुनाव में बीजेपी को जेडीयू से ज्यादा सीटें मिली थीं तो यही मुद्दा उठा था कि बीजेपी के पास संख्या बल ज्यादा है तो मुख्यमंत्री बीजेपी का ही होना चाहिए. हालांकि यह मुद्दा उस वक्त बिहार बीजेपी के नेताओं ने उठाया था, लेकिन बाद में आलाकमान के हस्तक्षेप के बाद इस पर रोक लगा दी गई थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे. लेकिन वह कभी भी कुर्सी पर उतनी सहजता से नहीं बैठे रहे, जितनी पहले हुआ करते थे. वह कभी भी उतनी घमंडी नहीं रहीं जितनी पहले हुआ करती थीं, क्योंकि बीजेपी ने उनके दाएं और बाएं एक-एक उपमुख्यमंत्री बनाया था, जिनके साथ नीतीश कुमार को तालमेल बिठाना पड़ा.
अब जब एक बार फिर चुनाव हैं तो नीतीश कुमार के सामने महाराष्ट्र का मॉडल है, वहीं बीजेपी ने कम सीटें मिलने के बाद एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री से उपमुख्यमंत्री बनाने में देर नहीं लगाई और वो भी तब जब महाराष्ट्र में नेतृत्व पर सवाल उठे तो अमित शाह ने कहा था कि अभी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे हैं. लेकिन चुनाव के बाद सब कुछ बदल गया.
मुख्यमंत्री उपमुख्यमंत्री बन गये. उपमुख्यमंत्री मुख्यमंत्री बन गये. तो डर स्वाभाविक है. बची हुई कमी गृह मंत्री अमित शाह के बयान ने पूरी कर दी है, जिसमें जब उनसे बिहार में एनडीए के नेतृत्व के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि यह फैसला बीजेपी का संसदीय बोर्ड लेगा. जबकि इससे पहले खुद अमित शाह ने कहा था कि बिहार का अगला चुनाव भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा.
तो अब वक्त की नजाकत को भांपते हुए नीतीश कुमार ने भी एक चाल चली है. कहा गया है कि जब बात बिहार की हो तो नाम सिर्फ नीतीश कुमार का होना चाहिए. अन्यथा, अगर नीतीश कुमार इस नारे के साथ आगे बढ़ते हैं, तो यह नारा बीजेपी के लिए गले की हड्डी भी बन सकता है, क्योंकि इस नारे का मतलब यह होगा कि बीजेपी और जेडीयू कम से कम बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. जबकि बिहार में नीतीश कुमार के पास बीजेपी के आधे विधायक ही हैं.
बीजेपी जब सीटों का बंटवारा करती है तो विधायकों के संख्या बल के हिसाब से ही करती है. ऐसे में 243 सीटों के बंटवारे के दौरान नीतीश कुमार को जिस राजनीतिक कमजोरी का सामना करना पड़ रहा है, उसे वह अपने नए नारे ‘जब बात बिहार की हो तो नाम सिर्फ नीतीश कुमार’ के जरिए दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. देखते हैं ये नारा बुलंद होता है और कहां तक पहुंचता है.