पटना: बिहार की राजनीति में हमेशा बहुत कुछ ऐसा चलता रहता है, जो अनुमान से परे चला जाता है। राजनीति अपने तरीके से एक अजीबोगरीब मोड़ लेती है, खासकर जब चुनाव नजदीक हो। महज 11 दिन पहले जब CM नीतीश कुमार ने स्टेट जेल मैन्युअल में बदलाव किया तो उन्हें अंदाजा हो गया कि वे क्या करने जा रहे हैं। इसके साथ ही इस राज्य की राजनीति ने करवट लेनी शुरू कर दी है। 30 साल पहले जिलाधीश की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे आनंद मोहन सिंह तोमर की रिहाई के बाद प्रदेश की राजनीति में नया बवाल मच गया है।
➨ राजनीति हलकों में सुगबुगाहट शुरू
कहा जाता है कि राजनीति अच्छे-बुरे, गलत-सही से आगे बढ़कर फायदे की राह और वोट बैंक को हाईवे में बदलने लगी है। आनंद मोहन सिंह अब बिहार में उसी राजनीतिक राह का हिस्सा होंगे। राजनीतिक विश्लेषक कयास लगा रहे हैं कि इस रिहाई में कौन-सा तीर छूटेगा..? किसे फायदा होगा और किसे नुकसान…?
➨ नीतीश कुमार ने पहले ही किया था इशारा
वैसे तो CM नीतीश कुमार ने इस साल जनवरी में ही इसके संकेत दे दिए थे। CM ने उस प्रावधान को बदल दिया जिसमें सरकारी कर्मचारी की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान था। अब इस नियमावली से सरकारी कर्मचारी शब्द को हटा दिया गया है। नतीजतन, आनंद मोहन को 14 साल की सजा काटने के बाद रिहा कर दिया गया। वैसे एक समय पर आनंद मोहन ने लालू यादव के साथ राजनीतिक अदावत भी लिया और नीतीश से भी भिड़ गए लेकिन लालू अब उनके पारिवारिक मित्र हैं और नीतीश भी खास मित्र हैं।
➨ क्या आनंद साबित होंगे फायदे का सौदा
कयास लगाए जा रहे हैं कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति में यह नीतीश और लालू दोनों के लिए फायदे का सौदा साबित होगा। चूंकि वह खुद एक राजपूत हैं। साथ ही अगर भूमिहार और राजपूत समुदाय में प्रभाव छोड़ते हैं तो विधानसभा चुनाव में जदयू और राजद की सियासी नाव को सहारा दे सकते हैं। सीमांचल और कोसी की 28 विधानसभा सीटों पर उनके प्रभाव का दावा किया जाता है। इस मामले में अब जब आनंद मोहन रिहा हो गए हैं तो भी उनका राजनीतिक प्रभाव वैसा ही नजर आ रहा है जैसा जेल जाने के समय था।
➨ कितना फायदा, कितना नुकसान
हालांकि बिहार के एक नेता का कहना है कि अगर आनंद मोहन इन दोनों दलों के साथ राजनीति में उतरते हैं तो उनसे दलित और पिछड़ा वोट छीने जा सकते हैं, फायदे का गणित नुकसान का बन सकता है। वैसे नीतीश कुमार और लालू को भरोसा है कि आनंद मोहन के जरिए राजपूत और भूमिहार के वोटों को अगर उनकी पार्टियों के वोट बैंक में मिला दिया जाए तो जीत का समीकरण बन जाएगा। यह माना जाता है कि 69 साल वाले आनंद मोहन आरजेडी के साथ जाएंगे।
➨ कैसे आए सियासत में?
आनंद मोहन बाहुबली को एक नेता माना जाता है। हालांकि , उन्होंने जेल में कविताएं और किताबें लिखीं। राजनीति में प्रवेश करने का उनका रास्ता जयप्रकाश नारायण की पूरी क्रांति थी। यह 1974 का दौर था…. वो विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। उस ज़माने में उनकी स्कूल के प्रमुख छात्र नेता की छवि बनी।
➨ बाहुबली कैसे बनें आनंद मोहन
सहरसा में उनके परिवार का काफी सम्मान था क्योंकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे। पिता सामान्य तौर पर किसानी किया करते थे। इधर आनंद मोहन की छवि बाहुबली की बनती चली गई। उनकी कुछ कहानियां आज भी इलाके के लोग सुनाते हैं। दरअसल, एक समय था जब उनके इलाके में आनंद का खौफ व्याप्त था। उनके खिलाफ कई मामले हो चुके हैं। कई मामले बंद कर दिए गए हैं। कुछ गंभीर मामले अदालतों में भी पहुंचे, लेकिन वहां उन्हें बरी कर दिया गया। क्रांति पूर्ण होने के बाद सक्रिय राजनीति में आने में उन्हें लगभग डेढ़ दशक का समय लगा। आपातकाल के दौरान उन्हें दो साल की जेल भी हुई थी।
➨ बाहुबली ने बनाई अपनी पार्टी
बाहुबली ने खुद की राजनीतिक ताकत को आजमाने के लिए अपनी पार्टी बनाई लेकिन कुछ वर्षों के बाद उनका यह शौक खुद-ब-खुद कम हो गया। इसके बाद बाहुबली में अन्य दलों में शामिल हो गए और उनकी राजनीति का प्रचार करने लगे। आनंद मोहन बिहार में सभी पार्टियों के साथ रहे हैं। जनता दल से लेकर समता पार्टी, राजद, भाजपा, कांग्रेस और सपा तक उनके साथ उनके ताल्लुक थे। इसलिए आज कोई भी दल इसका खुलकर विरोध करता नहीं दिख रहा है।
➨ ससुराल से संसद तक
साल 1991 में लवली आनंद से शादी करने के दो साल बाद, आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी नामक एक नई पार्टी बनाई। इस पार्टी ने रिजर्वेशन पर आपत्ति जताई। यहां आनंद मोहन ने राजपूत अरु भुमहर की जातियों को एक मंच पर लाने के लिए काम किया। इसके बाद, 1994 में लोकसभा चुनावों में, आनंद मोहन ने अपनी पत्नी को वैशाल सीट के लिए एक उम्मीदवार बनाया। उनके जीवन में सबसे बड़ा पड़ाव तब आया जब उनकी पत्नी लवली आनंद ने वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उम्मीदवार आरजेडी को हराकर संसद में कदम रखा।
➨ तीन जगह से मिली हार
साल 1995 में जब हर जगह आनंद मोहन की चारों तरफ चर्चा हो रही थी और उनका नाम और खासियत चरम पर थी, तब उन्होंने तीन सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ा और सभी सीटों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। बाद में आनंद मोहन 1996 में समता पार्टी में शामिल हुए और चुनाव भी लड़ा लेकिन फिर भी हार गए। इसके बाद वह चुनावी मैदान से निराश थे। दो साल बाद यानी 1998 में आनंद मोहन, लालू प्रसाद यादव की राजद में शामिल हो गए और उन्हें शिवहर सीट से लोकसभा का टिकट मिला और फिर वह जीतकर संसद पहुंचे।
➨ हर दल से रहा है नाता
बिहार में शायद ही कोई इतनी बड़ी पार्टी हुई हो, जिसमें आनंद मोहन शामिल न हुए हों। बाद में जनता दल ने अपनी पार्टी बनाई और फिर समता पार्टी में शामिल हो गए। बाद में वह फिर से राजद में शामिल हो गए। वह साल 1999 में बीजेपी में शामिल हुए और शिवहर का लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। उन्होंने 2000 में कांग्रेस का दामन थाम लिया। इसके बाद उन्होंने साल 2004 का लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन एक बार फिर उन्हें शिकस्त मिली।
➨ बीवी ने संभाली राजनीतिक विरासत
बताया जाता है कि आनंद मोहन के जेल जाने के बाद, उनकी पत्नी लवली ने उनकी राजनीतिक विरासत संभाली और अपने पति की तरह दल बदलना जारी रखा। लेकिन हर बार उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। जेल में रहते हुए, साल 2010 में, उनकी पत्नी लवली आनंद ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं। बाद में, लवली आनंद ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और वहां भी जीतने में असफल ही रहीं।
➨ जिस मामले में उम्रकैद हुई
दरअसल, 4 दिसंबर 1994 को उत्तर बिहार का चर्चित गैंगस्टर छोटन शुक्ला मारा गया था। आनंद मोहन ने केसरिया विधानसभा सीट से शुक्ला को अपना उम्मीदवार बनाया हुआ था। इस हत्याकांड के बाद मुजफ्फरपुर में तनाव फैल गया और लोगों में जमकर गुस्सा फूट पड़ा। 5 दिसंबर को हजारों लोगों ने छुट्टन शुक्ला के शव को लेकर सड़क किनारे प्रदर्शन किया। इस बीच गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया बैठक में शामिल होकर लौट रहे थे। जैसे ही उनकी कार प्रदर्शनकारियों के पास पहुंची, लोग भड़क गए और कार पर पथरबाज़ी शुरू कर दी थी। भीड़ ने उसे कार से खींचकर पीटा और फिर गोली मार दी। तब यह आरोप लगाया गया था कि आनंद मोहन ने भीड़ को उकसाया था और यह आरोप अदालत में भी साबित हुआ था। जिसके बाद साल 2007 में आनंद मोहन को मौत की सजा (फांसी) सुनाई गई थी। हालांकि, साल 2008 में कोर्ट ने इस सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया।
➨ उन्होंने जेल में कविताएं और किताबें भी लिखीं
आनंद मोहन ने जेल जाने से पहले एक पुस्तक ‘पर्वत पुरुष दशरथ’ लिखी थी जिसे भाजपा नेता जसवंत सिंह ने दिल्ली में प्रकाशित किया था। बाद में जेल में रहते हुए उन्होंने दो कविताएं ‘कैद में आज़ाद कलाम’ और ‘स्वाधीन अभिव्यक्ति’ लिखीं। आनंद मोहन ने पत्रकारिता भी की है। वैसे उसके खिलाफ तीन अन्य मामले भी हैं जिनमें वह जमानत पर बाहर है।
➨ जेल में भी कायम रहा जलवा
IPS एजेंट अमिताभ दास ने खुद कहा कि सजा के बाद भी जेल में आनंद मोहन के लिए कुछ भी कमी नहीं थी। पूर्व IPS अमिताभ दास का कहना है कि अक्टूबर 2021 में जब DM और SP सहरसा ने सहरसा जेल में छापा मारा तो आनंद मोहन के पास से कई आपत्तिजनक चीजें बरामद हुई थीं और उनके पास से एक मोबाइल फोन भी मिला। उन्होंने बड़ा आरोप लगाते हुए कहा कि “नीतीश सरकार ने मामले को दबा दिया।”
➨ रसूख आज भी बरक़रार
इस मामले में अब जब आनंद मोहन रिहा हो गए हैं तो उनका राजनीतिक प्रभाव वैसा ही नजर आ रहा है जैसा जेल जाने के समय था। सभी पक्ष उनकी रिहाई का समर्थन करते हैं। आनंद मोहन और उनकी पत्नी लवली आनंद सांसद रह चुके हैं जबकि उनके पुत्र चेतन आनंद वर्तमान में लालू प्रसाद यादव की राजद के शिवहर से विधायक हैं। चेतन खुद को राजद नेता और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव का करीबी मानते हैं। आज जब आनंद मोहन रिहा हुए तो उनके स्वागत में बिहार की सड़कों पर ‘सुस्वगतम शेर-ए-बिहार’ नाम से उनकी तस्वीर वाले बैनर लगे दिखे। इन होर्डिंग्स पर लिखा था: ‘सच्चाई को परेशान किया जा सकता है, पराजित नहीं किया जा सकता।’
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