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नेताजी के मौत की अस्पष्ट अवधारणाएं

आज भी इस प्रश्न का कोई ठोस उत्तर नहीं मिला है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हुआ क्या था? इस को लेकर तीन स्पष्ट अवधारणाएं रही हैं. पहली विमान दुर्घटना परिकल्पना. बहुत पहले की बात नहीं है जब नेहरूवादी व्यवस्था द्वारा नेताजी के विमान दुर्घटना में मारे जाने की खबरों को प्रमुखता से प्रचारित किया जाता था. यह कहा गया था कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताइहोकू में जापानी मित्सुबिशी बांबर की हवाई दुर्घटना में नेताजी की मौत हो गई.
दूसरी परिकल्पना यह थी कि नेताजी भागकर मानचुरिया चले गए थे जहां वह आगे बढ़ रहे सोवियत बलों के साथ जुड़ना चाहते थे, ताकि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के लिए उनका समर्थन प्राप्त किया जा सके, लेकिन उनकी तमाम उम्मीदों पर उस समय पानी फिर गया जब उनके साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया गया और उन्हें साइबेरिया के याकुत्सक जेल शिविर में बंदी बनाकर रखा गया.
ऐसा सुनने में आया था कि उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें यातनाएं दी गर्इं और अंतत: ब्रिटिश सरकार के आदेशों पर उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया. यह एक गंभीर और चौंकाने वाली परिकल्पना है जो कुछ बेहद व्याकुल करने वाले सवाल खड़े करती है. क्या भारत सरकार को इसके बारे में पता था, और अगर पता था तो उसने नेताजी की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए क्या किया?
तीसरी परिकल्पना यह है कि नेताजी सोवियत संघ में थे लेकिन वह रहस्यमयी तरीके से वहां से भाग निकले और उत्तरप्रदेश के फैजाबाद में भेष बदल कर एक तपस्वी के रूप में रहे जिसे ‘गुमनामी बाबा’ का नाम दिया गया था. कहा जाता है कि नेताजी अपनी मृत्यु तक फैजाबाद में ही तपस्वी बन कर रहे.
सितंबर 1985 में उनकी प्राकृतिक कारणों से मृत्यु हो गई. हालांकि यह परिकल्पना कुछ ‘सबूतों’ द्वारा समर्थित है, लेकिन यह कुछ सवाल भी खड़े करती है. किसी न किसी कारण से इस परिकल्पना को बीते कुछ सप्ताहों में मीडिया द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है, लेकिन हमारी खोज के क्षेत्र को संकीर्ण करने के लिए उपरोक्त तीनों परिकल्पनाओं की विस्तारपूर्वक जांच करना आवश्यक है.
चलिए सबसे पहले विमान दुर्घटना परिकल्पना की जांच करते हैं. न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग द्वारा निश्चयात्मक रूप से इस परिकल्पना का पर्दाफाश कर दिया गया है. ताइवान में जांच-पड़ताल ने दिखाया था कि उस दिन कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी. बोस के दाह-संस्कार का कोई रिकॉर्ड नहीं है और रैंकोजी मंदिर में रखी गई राख एक जापानी सैनिक इचिरो ओकूरा की है जिसकी उसी दिन मृत्यु हुई थी. हालांकि नेहरूवादी व्यवस्था ने सुनिश्चित किया कि नेताजी की मौत की अफवाह को भारत में परम सत्य के रूप में स्वीकार किया जाए. बोस की मौत ने एक राजनीतिक प्रतिद्वंदी और भारत के प्रधानमंत्री पद के ठोस दावेदार का सफाया कर दिया. इसलिए जिस उत्साह के साथ इस अनुमान को प्रसारित किया जा रहा था, वो काफी हद तक संदिग्ध था.
जहां तक फैजाबाद के तपस्वी की परिकल्पना का संबंध है, सबसे प्रतिबद्ध शोधकर्ता भी आश्वस्त दिखाई पड़ते हैं कि वास्तव में ऐसा ही हुआ था. इस परिकल्पना के समर्थन में पर्याप्त प्रभावी सबूत और बोस के जानकार प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा बयान भी दिए गए हैं. हालांकि कुछ सुस्पष्ट विसंगतियां भी हैं जिन्हें अभी तक सुलझाया नहीं जा सका है.
न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग ने राम भवन में पाए गए गुमनामी बाबा के नौ दांतों, और बोस के पिता पक्ष के दो वंशजों और माता पक्ष के तीन वंशजों के रक्त नमूनों के डीएनए परीक्षण का आदेश दिया था. डीएनए विशेषज्ञ और प्रयोगशाला के निदेशक ने यह निष्कर्ष निकाला कि गुमनामी बाबा के दांतों का डीएनए बोस के माता व पिता पक्षों के डीएनए से मेल नहीं खाता.
इसलिए, अनुभवजन्य साक्ष्य इस परिकल्पना को खारिज करते प्रतीत होते हैं कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने बाहरी एजेंसियों पर डीएनएन परीक्षणों को प्रभावित करने अथवा पक्षपात करने का आरोप लगाया है. जब गुमनामी बाबा और नेताजी की लिखावट को मिलाया गया तब तीन विशेषज्ञों में से एक ने अनुकूल व शेष दो विशेषज्ञों ने प्रतिकूल रिपोर्ट दी. मीडिया रिपोर्टों में प्रकाशित गुमनामी बाबा का कथित रेखा-चित्र एक कलाकार की बाबा की धारणा है. इसलिए समानता वस्तुगत तथ्य न होकर महज प्रकल्पित है. भारत लौटकर तीन दशकों तक गुमनाम जीवन जीना बोस जैसी सुप्रसिद्ध शख्सियत के चरित्र के अनुकूल आचरण होता.
अंतिम परिकल्पना नेताजी को सोवियत संघ में बंधक बनाए जाने और वहां उनकी संभव मृत्यु की है. अभी तक इसका अभिलेखों में कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है. नेताजी द्वारा मानचुरिया जाने और सोवियत बलों के साथ संपर्क स्थापित करने के पर्याप्त सबूत हैं. सोवियत संघ 1945 में अंग्रेजी-अमेरिकी बलों के साथ सहयोगियों जैसा व्यवहार करता था और उनसे बोस की शरण के प्रस्ताव के प्रति अधिक प्रतिक्रियाशील होने की उम्मीद नहीं थी. उनकी नजरों में बोस ने नाजी जर्मनी के साथ मिलकर कार्य किया था और युद्ध के अंत में उनके साथ शत्रुओं की तरह व्यवहार किए जाने की प्रबल संभावना थी.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ की खुफिया पुलिस एजेंसी एनकेवीडी और ब्रिटिश सरकारी एजेंसी एमआई-6 के बीच करीबी सहयोग का इतिहास   था. 20 दिसंबर 1941 को सोवियत संघ की एनकेवीडी और ब्रिटिश सरकारी एजेंसी एमआई-6 ने मॉस्को में खुफिया सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे. इस संधि के बारे में केवल दोनों पक्षों के शीर्षस्थ अधिकारियों व नेताओं को पता था. सोवियत संघ व सहयोगी राष्ट्रों के बीच वैश्विक गुप्त अभियानों में समन्वय स्थापित करने के लिए दूसरे प्रोटोकॉल पर 3 मार्च 1944 को हस्ताक्षर किए गए थे. ब्रिटिश व अमेरिकियों ने सोवियत संघ से हवाई और थल मार्ग के माध्यम से बोस की जर्मनी से पूर्व तक की वापसी को रोकने का आग्रह किया था.
बोस के जापान स्थानांतरण में अत्यधिक विलंब में यह भी एक कारण था. अंतत: बोस को पनडुब्बियों की मदद से जापान पहुंचाया गया. 1945 में सोवियत संघ और ब्रिटेन के बीच खुफिया सहयोग के इस स्तर को देखते हुए इस परिकल्पना के सही होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं. अगर बोस पर सोवियत संघ ने कोई कार्रवाई की थी तो उसे बेहद गोपनीय ढंग से अंजाम दिया गया होगा ताकि कोई भी सबूत उपलब्ध होने की संभावना न के बराबर हो.
एक साधारण तथ्य यह है कि अगर भारत सरकार खुद नेताजी से संबंधित फाइलों को गुप्त सूची से नहीं हटा रही है तो यह अमेरिका, इंग्लैंड व पूर्व सोवियत संघ (रूस) से उनकी संवेदनशील खुफिया कार्रवाइयों के गोपनीय रिकॉर्ड सौंपने की उम्मीद कैसे कर सकती है? बोस के लापता होने संबंधी दो परिकल्पनाएं पूर्व सोवियत संघ की ओर इशारा करती हैं. सोवियत संघ अब इतिहास है. रूस एक गैर-कम्युनिस्ट अस्तित्व है. हमें इस दिशा में अपने खोज प्रयासों को और तेज करना चाहिए.
भारत सरकार रूस के साथ अपने संबंधों को भारत में प्रतिकूल लोकमत विवादों से बचाना चाहती है और उसकी इस चिंता को समझा जा सकता है. लेकिन पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को बचाने और उसके बोस से संबंधित कुकर्मों और कदाचारों को छुपाने की मौजूदा सरकार की नई इच्छा न ही तार्किक और न ही समझ में आने योग्य है.
– जी. डी बख्शी
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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