दिल्ली. भले ही दिल्ली कितनी ही विकसित और आधुनिक क्यों न हो गई हो लेकिन यहां बुनियादी ढांचे की कमी के कारण बच्चों को न्याय नहीं मिल पा रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत मामलों के निपटारे में बहुत कमी आई है. इसकी वजह बुनियादी ढांचे जैसे फॉरेंसिक जांच में देरी या कोर्टरूम की कमी होने को बताया गया है.
दिल्ली के 11 जिलों में पोक्सो के तहत मामले देख रहे न्यायाधीशों और दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा दी गई एक रिपोर्ट में ये बात सामने आई है. दिल्ली उच्च न्यायालय प्रशासन को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में न्यायाधीशों ने कहा कि पोक्सो अधिनियम का पूरी तरह पालन करना संभव नहीं है. इसमें कहा गया है कि आरोप तय होने के 30 दिनों के अंदर पीड़ित का बयान दर्ज होना और ट्रायल एक साल में पूरा होना जरूरी है.
सिर्फ 18.19 मामलों में पाए गए दोषी
हाई कोर्ट में दिल्ली में बाल यौन उत्पीड़न के मामले बड़ी संख्या में लंबित होने के मसले पर दो याचिकाओं पर सुनवाई की जा रही थी. रिपोर्ट के अनुसार 11 अदालतों के समक्ष 4009 पोक्सो मामले लंबित हैं. इनमें से 2784 मामलों में फिलहाल सबूतों की जांच की जा रही है. वहीं, अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में पोक्सो अधिनियम के तहत केवल 18.19 मामलों में ही बाल यौन उत्पीड़न के आरोपियों को दोषी पाया गया है.
रिपोर्ट के अनुसार सजा मिलने की दर साल 2014 महज 16.33 प्रतिशत थी, साल 2015 में यह 19.65 फीसदी हुई. साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस तरह के निराशाजनक आंकड़े दिल्ली में आपराधिक न्यायिक प्रणाली की छवि खराब करते हैं और लोगों में संदेश जाता है कि यौन उत्पीड़ित बच्चों को न्याय नहीं मिल रहा है.
फॉरेंसिक रिपोर्ट में होती है देरी
न्यायाधीशों के अनुसार ट्रायल में सबसे ज्यादा देरी का कारण फॉरेंसिक रिपोर्ट आने में देरी होना है. उदाहरण देते हुए बताया गया है कि एक न्यायाधीश के पास सात मामले तीन साल से लंबित हैं क्योंकि डीएनए रिपोर्ट अभी तक नहीं आ सकी है.
इसके अलावा असुरक्षित गवाहों से पूछताछ के लिए विशेष कोर्टरूम की कमी है. तीन हजारी, कड़कड़डूमा, रोहिणी और साकेत कोर्ट में ऐसा केवल एक कोर्टरूम है. पूछताछ में लगने वाले समय को देखते हुए एक दिन में केवल दो पीड़ितों से ही पूछताछ की जा सकती है.