नई दिल्ली : एशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप में पदकों के हिसाब से हम फ्रीस्टाइल शैली की कुश्ती में पिछले वर्ष जहां थे, वहीं खड़े हैं. ग्रीकोरोमन शैली की कुश्ती में पदकों की संख्या पिछली बार से आधी हो गई है जबकि महिला पदक विजेताओं की संख्या दुगुनी. सच तो यह है कि यह चैम्पियनशिप भारत के लिए एक सबक साबित हुई है. जहां हम खासकर अपनी पिछली मेजबानी में फ्रीस्टाइल शैली के प्रदर्शन से काफी पीछे रहे.
यहां हम दस बातें आपके सामने रख रहे हैं जिन पर अमल करना भारतीय कुश्ती के लिए सबसे अहम होगा.
1. टीम में कई पहलवान ऐसे हैं, जो ब्रॉन्ज़ या सिल्वर मेडल जीतकर ही संतुष्ट हो गए हैं. कोई इस बात से संतुष्ट है कि उसने अपने पिछले ब्रॉन्ज़ को सिल्वर में तब्दील कर दिया तो कोई इस बात से कि उसने फाइनल में पहुंचकर वह कर दिखाया, जो उससे पहले वह नहीं कर पाए थे.
2. फाइनल में पहुंचने के बाद पांचों भारतीय पहलवान वैसी संघर्ष क्षमता नहीं दिखा पाए, जैसी कि उनसे उम्मीद थी. यह स्थिति तब है जबकि इन पांचों दिग्गजों में एक रियो ओलिम्पिक की ब्रॉन्ज़ मेडलिस्ट हैं. और एक ओलिम्पियन होने के अलावा पिछली प्रतियोगिताओं में एक सिल्वर और एक ब्रॉन्ज़ मेडल जीत चुकी थीं.
3. साक्षी मलिक ने कहा है कि जापान की पहलवानों को हराने के लिए उन्हें दूसरा जन्म लेना होगा. ऐसी बात अगर भारत की ओलिम्पिक मेडलिस्ट कह रही हैं तो इसका भारत के अन्य पहलवानों पर काफी बुरा असर पड़ेगा. उन्हें बबीता और रितु फोगट का उदाहरण सामने रखना होगा क्योंकि साक्षी जिस जापानी पहलवान से हारी हैं, उसे बबीता पांच साल पहले कनाडा में वर्ल्ड चैम्पियनशिप में हरा चुकी हैं और वह भी चारों खाने चित करके. वहीं रितु जापान की अन्य पहलवान एरी तोसाका से 2-2 के कड़े संघर्ष में हारी थीं. तोसाका इस समय ओलिम्पिक और वर्ल्ड चैम्पियन हैं.
4. एशियन चैम्पियनशिप के ट्रायल में साक्षी मलिक 58 किलो में लड़ी थीं और सरिता 60 किलो में. लेकिन इस चैम्पियनशिप में इसके ठीक उलट हो गया. हालांकि इससे भारत के दो सिल्वर मेडल ज़रूर पक्के हो गए लेकिन एक सच यह भी है कि अगर साक्षी 58 किलो में लड़तीं तो भारत के गोल्ड जीतने के आसार बेहतर होते क्योंकि इस वजन में साक्षी के अलावा कोई भी ओलिम्पक मेडलिस्ट नहीं था, जबकि 60 किलो में उनका पाला फाइनल में रियो ओलिम्पक की गोल्ड मेडलिस्ट से पड़ा.
5. 58 किलो में साक्षी का पाला किर्गिस्तान की उस खिलाड़ी से पड़ता, जिन्हें वह रियो में ब्रॉन्ज़ मेडल के मुक़ाबले में हरा चुकी हैं. यह ठीक है कि यह प्रतिद्वंद्वी इतना आसान नहीं है लेकिन यह भी सच है कि अपने घरेलू परिवेश और पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए साक्षी ही फेवरेट थीं. या यह कहिए कि उनके जीतने के कम से कम 60 फीसदी अवसर बेहतर थे.
6. भारतीय पहलवानों को कुश्ती के सख्त होते नियमों से अवगत कराना इस प्रतियोगिता का एक अन्य बड़ा सबक साबित हुआ. 61 किलो में हरफूल को अपने दूसरे मुक़ाबले में जापान के पहलवान के खिलाफ उंगलिया फंसाने के कारण कॉशन दिया गया. ऐसा कॉमनवेल्थ गेम्स में सत्यव्रत के साथ हुआ था.
7. ग्रीकोरोमन शैली की कुश्ती में भारत के पदकों की संख्या पिछली बार से आधी हो गई. हालांकि ड्रॉ और दूसरे कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार थे लेकिन इस दिशा में टीम प्रबंधन को ध्यान देना होगा कि कम से कम हम जहां हैं, उससे नीचे न जाएं और वह भी तब जबकि घरेलू परिस्थितियां हमारे अनुकूल हैं.
8. काफी कुछ पॉज़ीटिव भी रहा. बजरंग ने आरम्भिक चक्र के मुक़ाबलों में ईरान के उस पहलवान को शिकस्त दी, जिनसे वह दो महीने पहले ईरान में 2-9 से हारे थे. दिव्या काकरान जूनियर की पहलवान होने के बावजूद सीनियर में शानदार प्रदर्शन करने में क़ामयाब रहीं. हरफूल ने जापान के ओलिम्पिक मेडलिस्ट के खिलाफ दिलेरी से मुक़ाबला किया.
विनेश ने फाइनल में पहुंचकर साबित कर दिया कि वह अब पूरी तरह फिट हैं और आगे भी वह कड़े मुक़ाबले के लिए तैयार हैं. रितु फोगट ने पहले बुल्गारिया और अब यहां पदक जीतकर लगातार अच्छे प्रदर्शन का परिचय दिया. सरिता को अपने वजन को कम करके एक श्रेणी कम में उतरना पड़ा और उसमें वह सिल्वर मेडल जीतकर उम्मीदों पर खरी उतरीं. ज्योति ने अपना तीसरा पदक जीता लेकिन वह अपने पदक का रंग नहीं बदल पाईं। टीम के बाकी पहलवानों को इनसे सबक सीखने की ज़रूरत है.
9. अब भारत को हर वजन में एक सेकंड लाइन तैयार करनी होगी. हालांकि भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह जूनियर पहलवानों पर ज़ोर देने में जुटे हुए हैं लेकिन फिर भी यह स्थिति खराब है कि 70 किलो में विनोद और अमित धनकड़, 74 किलो में जितेंद्र और प्रवीण राणा, 86 किलो में दीपक या सोमवीर और 97 किलो में सत्यव्रत या मौसम खत्री के रूप में ही टीम प्रबंधन के पास विकल्प हैं. जूनियर में युद्ध स्तर पर पहलवानों को तैयार करने की ज़रूरत है.
10. पहले दो दिन केडी जाधव हॉल में सौ से भी कम दर्शक थे. कई अहम मुक़ाबलों में तो यह संख्या 50 से भी कम थी. ऐसे में इस प्रतिष्ठित चैम्पियनशिप का पर्याप्त प्रचार किए जाने की ज़रूरत है. ठीक उसी तरह जैसे पीडब्ल्यूएल में किया जाता है, जहां दर्शकों की भारी संख्या मौजूद रहती है.