नई दिल्ली: कुदरत के कहर की तस्वीरें बार-बार सामने आ रही हैं. कहीं पहाड़ दरक रहे हैं तो कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं और इन सबका खामियाजा इंसान को भुगतना पड़ रहा है. लेकिन सवाल सिर्फ आज का नहीं है बल्कि आने वाले कल का है.
आखिर कुदरत को बार बार गुस्सा क्यों आ रहा है. क्यों बार-बार पहाड़ दरक रहे हैं और ग्लेशियर पिघल रहे हैं. जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच शुक्रवार को पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा टूट कर नीचे आ गिरा. इस लैंडस्लाइड के बाद 15 से 20 हजार यात्री फंस गए.
पहाड़ टूट रहे हैं और ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो इसकी वजह इंसान है. जिसने लगातार कुदरत के कहर को एक नहीं कई बार झेला है. लेकिन सबक आजतक नहीं लिया. साल 2013 की केदारनाथ में आई भयानक तबाही को भला कौन भूल सकता है. जब हजारों लोगों की मौत हुई और इतने ही लापता हो गये थे. अब भी इस पहाड़ी इलाके में पहाड़ दरकने का सिलसिला थमा नहीं है.
केदारनाथ में कितने लोगों की मौत हुई और कितने लापता हो गये. आजतक पुख्ता तौर पर तस्वीर साफ नहीं हो सकती है क्योंकि जबतक बचाव कार्य शुरू हुआ. काफी वक्त गुजर चुका था. सैलाब अपने साथ ना जाने कितने ही लोगों को बहा ले गया. जलवायु परिवर्तन का असर हिमालय में ही देखने को नहीं मिल रहा. बल्कि बर्फ की मोटी चादर से ढंके रहने वाले अंटार्कटिका का नक्शा बहुत तेजी से बदल रहा है. जहां हर तरफ सफेद बर्फ दिखाई देती थी. वहां अब घास उगने लगी है. इसका एक मतलब ये हुआ कि ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बहुत तेजी से बढ रहा है.
1950 के दशक से ही अंटार्कटिक का तापमान लगातार बढ़ रहा है. तब से लेकर अब तक हर दशक में यहां का तापमान करीब आधे डिग्री सेल्सियस की रफ्तार से बढ़ रहा है. बाकी दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण बढ़ रहे औसत तापमान के मुकाबले यह बहुत ज्यादा है.
ऐसा नहीं है कि अंटार्कटिका ग्लेशियर में हालात एकाएक बदले हैं. क्योंकि ऐसा लंबे वक्त से हो रहा है लेकिन बढते तापमान की वजह से पिघलते ग्लेशियर की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया और आज हालात ऐसे हैं कि यहां घास उगने लगी. 1950 के बाद से यहां काई और शैवाल उगने की रफ्तार में भी बहुत तेजी आई है. हर साल पिछले साल के मुकाबले 4 से 5 गुना तक ज्यादा शैवाल यहां उग रहा है. ब्रिटेन के शोधकर्ता अंटार्कटिक में करीब 1,000 किलोमीटर के इलाके में स्थित 3 जगहों का अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं. वैज्ञानिक अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या 1950 को धरती पर नए भूवैज्ञानिक युग की शुरुआत का साल माना जाए.
अगर ऐसा होता है, तो यह माना जाएगा कि 1950 के दशक से दुनिया में क्लाइमेट चेंज का दुष्प्रभाव साफ तौर पर दिखना शुरू हुआ और साल दर साल ये खतरा बढता चला गया. इस शोध में हिस्सा लेने वाले डॉक्टर मैट ऐम्सब्रे के मुताबिक ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण अंटार्कटिक में बहुत ज्यादा बड़े स्तर पर नाटकीय बदलाव आ रहे हैं. औसतन देखें, तो 1950 के पहले और बाद में काई और शैवाल के उगने की रफ्तार में 4 से 5 गुना वृद्धि हुई है.
हालांकि वैज्ञानिकों मानना है कि आने वाले लंबे समय तक अंटार्कटिक का ज्यादातर हिस्सा बर्फ से ही ढका रहेगा, लेकिन यह भी सच है कि बर्फ पिघलने के बाद पैदा हो रहे शैवाल दुनिया की बदलती तस्वीर के प्रति बहुत बड़ी चेतावनी हैं. जिससे निपटना बेहद जरूरी है.
हिमालय के हिंदूकुश इलाके में दुनिया के तीस फीसदी ग्लेशियर यहीं हैं और भारत चीन औऱ नेपाल की बड़ी आबादी इन्हीं ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों पर निरभर है. गंगा,यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियां यहीं से निकलती हैं.
सेंटर ऑफ इंटिगरेटेड माउंटन डेवलपमेंट की रिसर्च कहती है कि पिछले तीस साल में भूटान से ग्लेशियर में 22 फीसदी पिघल चुके हैं जबकि नेपाल के हिस्से में जो ग्लेशियर आते हैं उनका 21 फीसदी हिस्सा पिघल चुका है. भारत में मौजूद हिमालयन रेंज के 15 फीसदी ग्लेशियर पिघल चुके हैं. हालत ये है कि गंगा में जिस गंगोत्री ग्लेशियर से पानी आता है वो पिछले तीस साल में डेढ किलोमीटर पिघल चुका है.
जिस रफ्तार से पहाड़ों में जंगल खत्म हो रहे हैं, तापमान बढ रहा है, गर्मी का मौसम लंबा हो रहा है. उसके चलते अगले आनेवाले समय में गंगोत्री ग्लेशियर के खत्म हो जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. यानी गंगा सूख जाएगी. आईआईटी कानपुर की हालिया रिसर्च इस बात को साफ साफ कह रही है. लाहौल स्फीति की हालत भी बेहद खराब है पिछले तीन दशकों में हालात ऐसे हो गए हैं कि यहां पहले 20-25 फीट जो बर्फ गिरती थी वो अब 7-8 फीट रह गई है.
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