नई दिल्ली: हिंदू धर्म में कालभैरव को भगवान शिव का उग्र और न्यायप्रिय रूप माना जाता है। उनके जन्म की कथा बहुत ही रोचक और रहस्यमयी है। यह कहानी सृष्टि के निर्माण और ब्रह्मा जी की अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति से जुड़ी है। आइए जानते हैं इस पौराणिक कथा के पीछे की सच्चाई। ब्रह्मा का अभिमान पौराणिक […]
नई दिल्ली: हिंदू धर्म में कालभैरव को भगवान शिव का उग्र और न्यायप्रिय रूप माना जाता है। उनके जन्म की कथा बहुत ही रोचक और रहस्यमयी है। यह कहानी सृष्टि के निर्माण और ब्रह्मा जी की अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति से जुड़ी है। आइए जानते हैं इस पौराणिक कथा के पीछे की सच्चाई।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी के बीच यह विवाद हुआ कि सृष्टि का सर्वोच्च देवता कौन है। इस प्रश्न का हल निकालने के लिए दोनों भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने यह तय किया कि जो भी उनके अनंत ज्योतिर्लिंग के अंत या शुरुआत को खोज लेगा, वही सर्वोच्च होगा। ब्रह्मा जी ने स्वर्ग से उतरती हुई केतकी के फूल को यह कहकर झूठी गवाही देने के लिए कहा कि उन्होंने ज्योतिर्लिंग के अंत को देख लिया है। यह बात सुनकर भगवान शिव बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने ब्रह्मा जी के झूठे अहंकार को समाप्त करने के लिए अपने तीसरे नेत्र से कालभैरव का प्राकट्य किया।
कालभैरव, जो भगवान शिव का उग्र रूप थे, उन्होंने ब्रह्मा जी के झूठ और अहंकार को समाप्त करने के लिए उनका एक सिर काट दिया। यह सिर ब्रह्मा जी के पांचवें सिर का प्रतीक था। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपनी गलती मान ली और भगवान शिव से क्षमा मांगी।
हालांकि, ब्रह्मा का सिर काटने के कारण कालभैरव पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया, जिसके कारण ब्रह्मा का मस्तक उनके हाथ से चिपक गया। इस दोष से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने काशी में प्रवास किया और वहां भगवान विष्णु और अन्य देवताओं की पूजा की। काशी पहुंचते ही ब्रह्मा का वह मस्तक अपने आप ही उनके हाथ से अलग हो गया। शिवजी ने कालभैरव को काशी का कोतवाल नियुक्त कर दिया।काशी में उन्हें इस दोष से मुक्ति मिली, और वे “काशी के कोतवाल” के रूप में पूजित होने लगे।
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