नई दिल्लीः शास्त्रों में शनिवार के दिन को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। इस दिन मां काली की पूजा करने की परंपरा है। ऐसा माना जाता है कि जो भक्त सच्ची श्रद्धा से मां काली की पूजा करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह आपको गुप्त शत्रुओं से भी मुक्ति दिलाता है। इसलिए, सभी साधकों को देवी मां की पूजा करनी चाहिए और “काली कवच” का पाठ इस प्रकार करना चाहिए।
।।विनियोग।।
ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः,
अनुष्टुप छंदः, श्री कालिका देवता,
शत्रुसंहारार्थ जपे विनियोगः”।
।।ध्यानम्।।
”ध्यायेत् कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीं।
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननां।।
नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीं।
नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा।।
निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्रालीघोररूपिणीं।
साट्टहासाननां देवी सर्वदा च दिगम्बरीम्।।
शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषिताम्।
इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत्”।।
।।कवच पाठ प्रारम्भ।।
”ऊँ कालिका घोररूपा सर्वकामप्रदा शुभा ।
सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ।।
ॐ ह्रीं ह्रीं रूपिणीं चैव ह्रां ह्रीं ह्रां रूपिणीं तथा ।
ह्रां ह्रीं क्षों क्षौं स्वरूपा सा सदा शत्रून विदारयेत् ।।
श्रीं ह्रीं ऐंरूपिणी देवी भवबन्धविमोचिनी।
हुँरूपिणी महाकाली रक्षास्मान् देवि सर्वदा ।।
यया शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः।
वैरिनाशाय वंदे तां कालिकां शंकरप्रियाम ।।
ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका।
कौमार्यैर्न्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विदिवषः।।
सुरेश्वरी घोर रूपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी।
मुण्डमालावृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे दंष्ट्र व रुधिरप्रिये ।
रुधिरापूर्णवक्त्रे च रुधिरेणावृतस्तनी ।।
मम शत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय
भिन्धि भिन्धि छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय
द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा ।
ह्रां ह्रीं कालीकायै मदीय शत्रून् समर्पयामि स्वाहा ।
ऊँ जय जय किरि किरि किटी किटी कट कट मदं
मदं मोहयय मोहय हर हर मम रिपून् ध्वंस ध्वंस भक्षय
भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान् चामुण्डे सर्वजनान् राज्ञो
राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्यान् कुरु कुरु तनु तनु धान्यं
धनं मेsश्वान गजान् रत्नानि दिव्यकामिनी: पुत्रान्
राजश्रियं देहि यच्छ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा ।
इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा ।
ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रव: ।।
वैरणि: प्रलयं यान्ति व्याधिता वा भवन्ति हि ।
बलहीना: पुत्रहीना: शत्रवस्तस्य सर्वदा ।।
सह्रस्त्रपठनात् सिद्धि: कवचस्य भवेत्तदा ।
तत् कार्याणि च सिद्धयन्ति यथा शंकरभाषितम् ।।
श्मशानांग-र्-मादाय चूर्ण कृत्वा प्रयत्नत: ।
पादोदकेन पिष्ट्वा तल्लिखेल्लोहशलाकया ।।
भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा ।
हस्तं दत्तवा तु हृदये कवचं तुं स्वयं पठेत् ।।
शत्रो: प्राणप्रतिष्ठां तु कुर्यान् मन्त्रेण मन्त्रवित् ।
हन्यादस्त्रं प्रहारेण शत्रो ! गच्छ यमक्षयम् ।।
ज्वलदंग-र्-तापेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् ।
प्रोञ्छनैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ।।
वैरिनाश करं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।
परमैश्वर्यदं चैव पुत्र-पुत्रादिवृद्धिदम् ।।
प्रभातसमये चैव पूजाकाले च यत्नत: ।
सायंकाले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।।
शत्रूरूच्चाटनं याति देशाद वा विच्यतो भवेत् ।
प्रश्चात् किं-ग्-करतामेति सत्यं-सत्यं न संशय: ।।
शत्रुनाशकरे देवि सर्वसम्पत्करे शुभे ।
सर्वदेवस्तुते देवि कालिके त्वां नमाम्यहम्” ।।
।। रूद्रयामल तन्त्रोक्तं कालिका कवचं समाप्त:।।
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