नई दिल्ली: इन दिनों पूरे देश में नवरात्र की धूम है. हर तरफ मां दुर्गा की पूजा-अर्चना की जा रही है. कहा जाता है कि माता के 108 शक्तिपीठ हैं और हर शक्तिपीठ की अपनी अलग महिमा है. इन्ही शक्तिपीठों में से एक है मां कामाख्या देवी. असम के सबसे बड़े शहर गुवाहाटी से करीब आठ किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत के बीचो बीच मां कामाख्या का भव्य मंदिर है. कहा जाता है कि काला जादू और तंत्र-मंत्र की शुरूआत भी यहीं से होती है और अंत भी यहीं से होता है.
कैसे अस्तित्व में आईं मा कामाख्या
पौराणिक कथाओं के अनुसार माता सती के पिता राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव का अपमान करने से माता इतनी क्रोधित हुईं कि यज्ञ कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी. इसके बाद भगवान शिव ने राजा दक्ष का वध कर दिया और माता सती की जलती हुई देह को लेकर पूरे जगत में तांडव करने लगे. भगवान शिव के तांडव से पूरे संसार का विनाश होने लगा. किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि भगवान शिव को शांत करने के लिए उनके सामने आ सके.
सबसे पुराना शक्ति पीठ है कामाख्या मंदिर
चिंतित देवता इस समस्या के समाधान के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे कोई समाधान निकालने की प्रार्थना की. भगवान विष्णु ने कहा कि जबतक माता सती का पार्थिव शरीर भगवान शिव के हाथों में है, तबतक उन्हें शांत नहीं किया जा सकता. बहुत विचार करने के बाद सभी देवताओं ने ये तय किया कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से माता पार्वती के शरीर को काटकर जमीन पर गिराएंगे और इस तरह माता सती के शरीर के 108 टुकड़े जहां-जहां गिरे वो शक्ति पीठ बन गया.
हर साल जून में मां कामाख्या रजस्वला होती हैं
कहा जाता है कि माता सती की कमर से नीचे का हिस्सा कामाख्या में गिरा जहां कामाख्या मंदिर बना है. यहां माता का योनि और गर्भ आकार गिरा था. हर महीने जिस तरह महिलाएं मासिक धर्म में पड़ती हैं उसी तरह मां कामाख्या भी मासिक धर्म में पड़ती हैं. मान्यता के अनुसार हर साल जून के महीने में मां कामाख्या रजस्वला होती हैं और उनके बहते खून से पूरी ब्रह्मपुत्र नदी का रंग लाल हो जाता है.
इस दौरान तीन दिनों तक मंदिर पूरी तरह बंद हो जात है और देश विदेश से आए सैलानी इन तीन दिनों तक अम्बूवाची पर्व मनाते हैं. इस दौरान कामाख्या मंदिर के आसपास एक से बढ़कर एक तांत्रिकों, अघोरियों और पुजारियों का मेला लगता है. नीलांचल पर्वत पर कई जगहों पर और गुफाओं में तंत्र साधना कर सिद्धियां हासिल करने की कोशिस की जाती है.
यहां लगता है तांत्रिकों और अघोरियों का मेला
माना जाता है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान कामाख्या देवी के गर्भग्रह के दरवाजे अपने आप ही बंद हो जाते हैं और इस दौरान किसी का भी मंदिर में प्रवेश निषेद होता है. इस पर्व की शुरूआत से पहले गर्भग्रह स्थित योनी के आकार में स्थित शिलाखंड को सफेद वस्त्र पहनाया जाता है. इसे महामुद्रा कहा जाता है. तीन दिन बाद जब मंदिर के कपाट खुलते हैं तो वो सफेद वस्त्र रक्त से पूरी तरह भीगा हुआ होता है.
ये पर्व खत्म होने के बाद पुजारी भक्तों में उस कपड़े का छोटा-छोटा टुकड़ा प्रसाद के तौर पर बांट देते हैं. इसे कामिया वस्त्र कहा जाता है. लोग इस कपड़े को ताबीज में डालकर गले में या हाथ में पहनते हैं.