नई दिल्ली. पीएम मोदी ने कल एक कार्यक्रम में बयान दिया कि कोई अनुशासन लाने की बात करता है, तो लोग उसे तानाशाही करार देते हैं. इस बयान को अगर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आप मोदी को सीधे इंदिरा गांधी से जुड़ता पाएंगे. जब कांग्रेस ने दावा कर दिया था कि संत विनोवा भावे ने इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ कहा है. ये काफी दिलचस्प मामला है.
इंदिरा नेहरू परिवार से विनोबा भावे की नजदीकियां पुरानी थीं ये अलग बात है कि विनोबा खुद को राजनीति से काफी दूर रखते थे और विवादों से बचते थे. जब नेहरू को 1964 में कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में पैरालिसिस अटैक पड़ा तो उन्हें कई दिनों का बैड रेस्ट लेना पड़ा था. तब विनोबा ने उनके लिए एक बांसुरी भिजवाई कि इसे बजाएं. ना नेहरू कुछ समझ पाए और ना इंदिरा नेहरु ने तब इंदिरा को कहा aristotle had also suggested that gentleman learn to play the flute but not too well पीएम बनने के बाद भी सितम्बर 1966 में इंदिरा विनोबा से बिहार के पूसा आश्रम में मिलने पहुंची थीं. सो विनोबा इंदिरा को बेटी की तरह ही मानते थे.
तारीख थी 24 दिसम्बर 1974 विनोबा भावे हमेशा की तरह मौन व्रत पर चले गए, लेकिन इस बार ये कुछ ज्यादा लम्बा था. उन्होंने एक साल के लिए ये मौन व्रत रखा था सभी से सवालों के जवाब वो लिख कर दिया करते थे इन दिनों वो महाराष्ट्र के पवनार आश्रम में रहा करते थे. इधर 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी का ऐलान कर दिया। तमाम विपक्षी नेता रातों रात जेल में ठूंस दिए गए.
ऐसे में जबकि संसद,कोर्ट्स सब ठप्प हो गईं पूरा देश केवल इंदिरा के भरोसे था. सर्वोदय नेता वसंत नार्गोलकर ने ऐलान कर दिया कि 14 नवम्बर से वो तब तक भूख हड़ताल पर चले जाएंगे जब तक कि इमरजेंसी खत्म नहीं हो जाती नहीं तो ऐसे ही मर जाएंगे. विनोबा भावे ने उन्हें बुलाया और एक कागज पर लिख कर दिया कि 25 दिसम्बर को मैं अपना मौन व्रत तोडूंगा तब तक धैर्य रखो. भरोसे पर वसंत ने इरादा स्थगित कर दिया ऐसे में सबको ये खबर हो गई कि विनोबा भावे का मौन व्रत 25 दिसम्बर को टूटेगा और तब वो इमरजेंसी के खिलाफ कुछ बोल सकते हैं। जेल में बंद सभी विपक्षी नेताओं में ये आस बंध गई कि विनोबा कुछ ना कुछ इमरजेंसी के खिलाफ जरूर बोलेंगे
इसी दौरान इंदिरा गांधी के करीब कांग्रेसी नेता बसंत साठे भी पवनार आश्रम में विनोबा से मिलने पहुंचे तो उन्होंने साठे को पास में रखे महाभारत के अनुशासन पर्व की तरफ इशारा किया और फिर अपने काम में तल्लीन हो गए, लेकिन लिखा कुछ नहीं। ऐसे में बसंत साठे को ये मौका अच्छा लगा तमाम कहानियां कांग्रेस नेताओं ने बाहर बना दीं कि विनोबा भावे ने इमरजेंसी को अनुशासन पर्व बता दिया है उन्होंने स्लेट पर इसे लिखकर बताया है. आलम ये हो गया कि यूथ कांग्रेस के नेताओं ने देश की दीवारें इस बात से रंग दीं कि विनोबा भावे ने इमरजेंसी को अनुशासन पर्व बताया है, विनोबा भावे की बहुत अच्छी छवि थी लोगों के बीच, सो काफी लोग भरोसा भी करने लगे। इधर सर्वोदयी नेताओं और स्वंयसेवकों ने भी मान लिया कि विनोबा भावे ने इमरजेंसी का समर्थन कर दिया है, सो वो भी आम जनता को वही बताने लगे
लेकिन जेल में बंद विपक्ष के नेताओं को कांग्रेस की ये चाल समझ आ गई थी. उनको 25 दिसम्बर का बेताबी से इंतजार था। एल के आडवाणी अपनी किताब‘ए प्रिज्नर्स स्क्रेप बुक’ में दिसम्बर को लिखते हैं जेल में बस एक ही चर्चा हो रही है कि कल विनोबा भावे क्या बोलेंगे. ऑल इंडिया रेडियो भी इसे प्रसारित करने वाला है, ब्लिट्ज और करंट जैसे जनरल्स भी पवनार कॉन्फ्रेंस के बारे में कुछ ज्यादा ही लिख रहे हैं 25 दिसम्बर को उन्होंने लिखा आज क्रिसमस है. अटलजी का जन्मदिन है अटल को जन्मदिन का टेलीग्राम भेजा. विनोबा भावे 11 बजे अपना मौन व्रत तोड़ने वाले हैं। सबको उम्मीद थी कि वो इमरजेंसी और इंदिरा के खिलाफ कुछ बोलेंगे। 2 बजे ऑल इंडिया रेडियो से पहली बार उनकी स्पीच का प्रसारण हुआ, जिसमें उन्होंने अनुशासन के बारे में बात की. जेपी का एक बार भी नाम नहीं लिया, ना इमरजेंसी को लेकर कुछ कहा. ऐसा लगा पीएम की तरफ उनका झुकाव है. रात में उस स्पीच का एडीटेड वर्जन आया. हालांकि आडवाणी ने इसे दुखद बताया कि विनोबा भावे ने एक बार भी जेपी का नाम नहीं लिया.
फिर दिसम्बर को अपना मौन व्रत टूटने पर ऐसा क्या कहा पढ़िए उनका पूरा भाषण,अनुशासन-पर्व शब्द महाभारत का है, परंतु उसके पहले वह उपनिषद् में आया है. प्राचीन काल का रिवाज था. विद्यार्थी आचार्य के पास रह कर बारह साल विद्याभ्यास करता था. विद्याभ्यास पूरा कर जब वह घर जाने निकलता था तब आचार्य अंतिम उपदेश देते थे। उसका जिक्र उपनिषद् में आया है- एतत् अनुशासनम्,एवं उपासित्व्यम्या नि इस अनुशासन पर आपको जिंदगीभर चलना है. आचार्यों का होता है अनुशासन, और सत्तावालों का होता है शासन, अगर शासन के मार्गदर्शन में दुनिया रहेगी तो दुनिया में कभी भी समाधान रहने वाला नहीं है। शासन के मार्गदर्शन में क्या होगा?समस्या सुलझेगी, लेकिन सुलझी हुई फिर से उलझेगी। यह तमाशा आज दुनियाभर में चल रहा है। ‘ए’ से ‘जेड’ तक,अफगानिस्तान से ज़ांबिया तक 300-350 शासन दुनिया में होंगे, फिर उनकी गुटबंदी चलती है। सब जगह असंतोष, मारकाट! शासन के आदेश के अनुसार चलनेवालों की यह स्थिति है, उसके बदले अगर आचार्यों के अनुशासन में दुनिया चलेगी तो दुनिया में शांति रहेगी.
संत विनोबा ने आगे कहा आचार्य होते हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है गुरु नानक की भाषा में – निर्भय, निर्वैर, और उसमें मैंने जोड़ दिया है निष्पक्ष! और जो कभी अशांत होते नहीं, जिनके मन में क्षोभ कभी नहीं होता। हर बात में शांति से सोचते हैं और जितना सर्वसम्मत होता है विचार, उतना लोगों के सामने रखते हैं। उस मार्गदर्शन में लोग अगर चलेंगे, तो लोगों का भला होगा और दुनिया में शांति रहेगी। यह अनुशासन का अर्थ है – आचार्यों का अनुशासन! ऐसे निर्भय, निर्वैर, निष्पक्ष आचार्य जो मार्गदर्शन देंगे उसका, उनके अनुशासन का विरोध अगर शासन करेगा तो उसके सामने सत्याग्रह करने का प्रसंग आयेगा। लेकिन मेरा पूरा विश्वास है भारत का शासन ऐसा कोई काम नहीं करेगा, जो आचार्यों के अनुशासन के खिलाफ होगा.
यानी एक तरफ वो सत्याग्रह की भी बात कर रहे थे, दूसरी तरफ शासन के न्याय में विश्वास भी जता रहे थे। इसी के चलते आज तक विनोबा भावे पर इमरजेंसी के समर्थन के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे समय में जब हर कोई इंदिरा के खिलाफ था, उनकी पार्टी के नेताओं के अलावा कोई निष्पक्ष, लोकप्रिय या सर्वमान्य नेता अगर खुलकर ना सही इशारों में ही उनके समर्थन में आया था, तो वो थे संत विनोबा भावे। हालांकि उनके समर्थक हमेशा से ही ये कहकर उनका बचाव करते आए हैं कि एक तो विनोवा इमरजेंसी के 6-7 महीने पहले से निर्धारित मौन व्रत पर थे, दूसरे वो संत थे, गरीबों के लिए भूदान आदि आंदोलन चला रहे थे, आध्यात्म की शरण में थे, देश की आजादी के बाद वो राजनीति से दूर ही रहते थे. ये अलग बात है कि कांग्रेस ने उनके इशारों का अपने हक में अपने खिलाफ गुस्सा कम करने के लिए इस्तेमाल कर लिया था.
इंदिरा भी इमरजेंसी के बाद मिली करारी हार के बाद फिर से विनोबा से मिलने पवनार आश्रम गई थीं. नागपुर में जब एयरपोर्ट पर वो उतरीं तो उनके साथ फिर वही बसंत साठे थे, जिन्होंने अनुशासन पर्व वाली कहानी सबको सुनाई थी और निर्मला देशपांडे थीं। वहां सैकड़ों की भीड़ उनका इंतजार कर रही थी, भीड़ को देखकर एक बारगी तो इंदिरा डर गई थीं, कि भीड़ इमरजेंसी का विरोध करने आई है या स्वागत करने. लेकिन भीड़ ने जब इंदिरा के लिए नारे लगाए कि ‘इंदिरा तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’, तब इंदिरा की जान में जान आई. इंदिरा तब दो दिन तक पवनार आश्रम में रहीं, इंदिरा के इस दौरे ने फिर उन अफवाहों को मजबूत किया कि विनोबा भावे ने इमरजेंसी का समर्थन किया था. तब भी विनोवा मौन व्रत पर थे हालांकि इंदिरा के लिए उन्होंने मौन व्रत तोड़ा और उन्होंने बस इतना कहा कि आगे बढ़ो, आगे बढ़ो
इन दो दिनों में इंदिरा से विनोबा भावे की बस इतनी सी बात हुई. फिर भी इंदिरा क्यों रुकी? ये समझ से बाहर है, इतना ही नहीं वहां बैलगाड़ियों में भरकर लोग उनसे मिलने आते थे, वो उन सबसे मिलती रहीं. वहीं उन्होंने मीडिया के लोगों को भी बुला लिया. बीबीसी के डेविड फ्रॉस्ट को उन्होंने उसी पवनार आश्रम में इंटरव्यू दिया. ऐसा लगता था कि इंदिरा सारी दुनियां को बता देना चाहती थीं कि संत विनोबा भावे का आर्शीवाद उनके साथ है. हालांकि विनोबा ने फिर उनसे बात नहीं की, इससे ये लगता है कि इंदिरा भले ही उनकी कितनी करीबी हों, लेकिन विनोबा राजनीति के पचड़े में पड़ने से बचते थे, आज तक किसी को ये नहीं पता कि विनोबा ने साठे को अनुशासन पर्व क्यों दिखाया था?अपने भाषण की आखिरी लाइन में उन्होंने सरकार का समर्थन क्यों किया? इंदिरा और उनकी पार्टी के लोग विनोबा भावे को इशारों, भाषणों और आश्रम का इस्तेमाल कर रहे थे क्या? लगता वैसे यही है.
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