मुजफ्फरनगर. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में साल 2014 लोकसभा चुनाव में परचम लहराने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए महागठबंधन के प्रत्याशी और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) प्रमुख चौधरी अजीत सिंह परेशानी बनते जा रहे हैं. जिस जाट समुदाय के लोगों ने वोट देकर बीजेपी के जाट नेता संजीव बालियान को संसद पहुंचाया, अब वही जाट वोटर अपना पाला बदलता हुआ नजर आने लगा है. खास बात है कि इस लोकसभा सीट पर पहले चरण यानी 11 अप्रैल को चुनाव होना है. ऐसे में सवाल है कि क्या अखिलेश यादव की सपा, मायावती की बसपा और रालोद का गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ सकता है. जानिए क्या कहता है समीकरण?
जाट + मुस्लिम + यादव और दलित वोटर बिगाड़ न दें भाजपा का खेल
मुजफ्फरनगर से महागठबंधन के प्रत्याशी अजीत सिंह किसानों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह के बेटे हैं. जाट समेत सभी दूसरी जातियों के किसानों पर भी उनका काफी अच्छा प्रभाव है. हालांकि साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों से उनकी छवि को जरूर नुकसान हुआ लेकिन समय के साथ यह बात पुरानी हो गई.
रालोद के युवा नेता विशाल सिंह बताते हैं कि साल 2014 के चुनाव में कमल पर बटन दबाने वाले काफी संख्या के किसानों का इरादा साल 2019 चुनावों तक बदल गया है. इसके साथ ही समाजवादी पार्टी का यादव-मुस्लिम और बहुजन समाज पार्टी का दलित वोटर अजीत सिंह की गाड़ी में टॉप गियर का काम किया है.
बेशक मुजफ्फरनगर से प्रत्याशी रालोद के मुखिया हो लेकिन उन्हें महागठबंधन के वोट बैंक का बड़ा फायदा मिल सकता है. सीधा-सीधा समझें तो अगर मुस्लिम-जाट-यादव और दलित वर्ग एक साथ होकर महागठबंधन के लिए वोट करता है तो बीजेपी के संजीव बालियान के लिए मुसिबत खड़ी हो सकती हैं.
कांग्रेस का प्रत्याशी न उतारना महागठबंधन के लिए संजीवनी
राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी ने मुजफ्फरनगर सीट पर अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा है और यही महागठबंधन के लिए संजीवनी बूटी का काम भी कर सकता है. दरअसल, यूपी में प्रियंका गांधी के आने से कांग्रेस के वोट बैंक में काफी इजाफा हुआ है. काफी संख्या में मुस्लिम वोटर भी कांग्रेस की ओर प्रभावित हो रहा है.
जाहिर सी बात है कि अगर मुस्लिम वोटर कांग्रेस पार्टी को समर्थन करता है तो महागठबंधन को नुकसान होने का खतरा है. लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार न उतारने के बाद मुजफ्फरनगर सीट पर अब मुकाबला सिर्फ महागठबंधन बनाम भाजपा रह गया है.
2013 के दंगे को भूल गए लोग, मुश्किल है वोटों का ध्रुवीकरण
साल 2013 में दंगे के दौरान मुजफ्फरनगर देशभर में चर्चा का विषय बन गया था. उस समय सूबे में समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव सरकार थी. दंगे का प्रभाव काफी संख्या में लोगों पर पड़ा. कई मुस्लिम लोगों ने इस दौरान पलायन भी किया जिससे मामला और पेचिदा हो गया.
दंगे के दौरान हालातों को देख राजनीतिक पार्टियों ने भी अपनी चुनावी रोटी सेंक ली, लेकिन फायदा सिर्फ भाजपा को मिला. 2014 में बीजेपी उम्मीदवार संजीव बालियान को बड़ी जीत मिली. हालांकि, साल 2019 तक सब कुछ बदल गया, अब लोग दंगे को भूलने लगे हैं.
वर्तमान में स्थानीय लोगों का कहना है कि अब वे धीरे-धीरे दंगे को भूलते जा रहे हैं. दंगा प्रभावित लोगों के जीवन पहले की तरह सामान्य हो गया है. कहीं न कहीं लोगों की समझ में आया कि वे दंगे का शिकार राजनीति के चलते हुए थे, इसलिए वे अब फिर किसी भी तरह की गलती को नहीं दौहराना चाहते हैं.
मुजफ्फरनगर के वर्तमान हालात को देखते हुए यह साफ हो गया है कि इस लोकसभा सीट पर किसी भी राजनीतिक दल के लिए धर्म के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण अब काफी मुश्किल है. जिसका थोड़ा फायदा महागठबंधन के अजीत सिंह को जरूर मिल सकता है. खैर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, 23 मई को नतीजों के बाद ही स्थिति पूरी तरह साफ होगी.
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