नई दिल्ली: कुल 17 उम्मीदवार ऐसे हैं गुजरात के विधानसभा चुनाव 2017 में जो 2000 से भी कम वोटों से जीते हैं। जिनमें से बीजेपी के 8 हैं और कांग्रेस के 9। सोचिए जरा सा भी उलटफेर हुआ होता तो बीजेपी ये आठों सीट गंवा देती और फिर राज्य में कांग्रेस की सरकार बनना करीब करीब तय था। अभी तो अंदर की ऐसी कम ही बातें सामने आई हैं, थोड़े और आंकड़े सामने आएंगे तो पता चलेगा कि बस किसी तरह मोदीजी की इज्जत बच ही गई है, वरना उनके गृहराज्य ने डुबोने में कोई कसर छोड़ी नहीं थी। 2019 के आम चुनाव सर पर हैं और ऐसे में क्या इतने कम मामूली अंतर से चुनाव जीतकर फिर से देश फतह का सपना पाले हुए हैं पीएम मोदी? ये जीत नहीं खतरे की घंटी है मोदी और अमित शाह के अरमानों के लिए।
सोचिए अगर इन सीटों पर जो नोटा वोट पड़े हैं, अगर वो ही वोट कांग्रेस को चले गए होते तो? पूरे गुजरात में 5 लाख 11 हजार नोटा वोट पड़े हैं। औसत निकालें तो हर सीट पर 2807 वोटों का आता है। ऐसे में सोचिए जिन सीटों पर कांग्रेस मामूली से वोटों से हारी है, अगर वो नोटा वोट उसकी झोली में होते तो, विकास तो नहीं विकास के पापा-चाचा जरूर पागल हो गए होते। 100 का एक साइकोलॉजिकल आंकड़ा था, उसी तक पहुंचना मुश्किल हो गया है बीजेपी के लिए, वो भी तब जब अमित शाह ऐलान कर रहे थे कि 150 सीटों से कम नहीं आएंगी।
साफ जाहिर बीजेपी के इन दोनों दिग्गजों के हाथ से गुजरात फिसल रहा है। अभी तक मोदी अपनी जगह बीजेपी का सर्वमान्य नेता गुजरात में नहीं ढूंढ पाए हैं। आनंदी बेन पटेल को हटाकर बिना जनाधार या जातिगत गणित के विजय रूपाणी को सीएम तो बना दिया, लेकिन जिस तरह राजकोट पश्चिम से उनकी सीट सुबह से ही फंस फंस के निकली है और उनके डिप्टी नितिन पटेल की मेहसाणा से, वो वाकई हैरतअंगेज है। जिन नेताओं की अपनी सीट के लाले पड़े हैं, वो मोदी की नैया 2019 में कैसे पार लगाएंगे।
पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस धीरे धीरे ही सही आगे बढ़ रही थी, लेकिन इस बार तो उसने कमाल ही कर दिया है। 2002 में जहां 51 सीटें और 39.3 फीसदी वोट कांग्रेस के हिस्से में था तो 2007 में वोट शेयर भले ही 38 पबर आया, लेकिन सीटें 8 ज्यादा यानी 59 जीत लीं। 2012 में कांग्रेस ने 2 सीटें और बढ़ा लीं, 61 हुईं और वोट शेयर बढ़ाकर 38.93 कर लिया। इस बार वोट शेयर भी कांग्रेस ने बढ़ाकर अच्छा खासा यानी 2.27 फीसदी बढ़ाकर 41.40 फीसदी कर लिया और सीटों में फायदा मिला करीब 19 सीटों की बढ़त का, जो लगभग 80 होने जा रही हैं।
दिलचस्प बात है कि वोट शेयर तो इस बार बीजेपी ने भी बढ़ाया है। इस बार वोटों का शेयर तो बीजेपी ने 2012 से ज्यादा और 2007 के बराबर, लेकिन वो सीटों में इसे कनवर्ट नहीं कर पाई। जाहिर है इसके लिए कांग्रेस की उचित रणनीति ही जिम्मेदार है। जरुर उसने बीजेपी की जीती जिताई सीटों पर ज्यादा मेहनत जाया नहीं की होगी। 2002 में बीजेपी का 49.8 फीसदी शेयर वोट था, लेकिन सीटें 127 थीं, 2007 में वोट शेयर 49.1 फीसदी था लेकिन सीटें 117 थी, जबकि इस बार भी वही वोट शेयर होने के वाबजूद सीटें 99 हैं। 2012 में वोट शेयर बीजेपी के पास 47.85 फीसदी था, लेकिन फिर भी वो सीटें 115 तक लेने में कामयाब रही। वोट शेयर और सीटों के बीच का इस बात का अंतर साफ दिखाता है कि राहुल की अगुवाई में कांग्रेस ने पहले से ज्यादा सशक्त रणनीति बनाई, वरना उसी वोट शेयर पर 18 सीटें कम कर देना आसान काम तो नहीं था। अगर थोड़ी किस्मत भी साथ दे जाती तो कांग्रेस की सरकार गुजरात में रोकने वाला आखिर कौन था।
एक बात और इस चुनाव से तय हुई है और वो ये कि अब नए वोटर्स पर बीजेपी की पकड़ उतनी मजबूत नहीं, वजह कुछ भी हो सकती है। 22 साल से बीजेपी की सत्ता है, और जो उन शुरूआती तीन चार सालों में पैदा हुई होगी पीढी, वो आज वोट कर रही होगी और उसने बीजेपी के अलावा और कोई राज देखा नहीं है, वो राज भी नहीं देखा जिसकी बीजेपी आलोचना करती है। ऐसे में उसकी महत्वाकांक्षाएं और बेहतर की होंगी। इस चुनाव में जो वोट पड़ें हैं उनकी संख्या में अलग अलग पार्टी को बढ़ोत्तरी भी ये दिखाती है कि बीजेपी की तुलना में नए वोटर कांग्रेस को ज्यादा मिले हैं। 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 13119597 वोट्स मिले थे, तो इस साल बीजेपी को पूरे गुजरात में जो कुल वोट मिले हैं, वो हैं 14666142 यानी करीब 15 लाख वोट बीजेपी को ज्यादा मिला है। जबकि यहां कांग्रेस बाजी मार ले गई है, उसने इस साल 17 लाख से भी ज्यादा वोट्स में बढ़ोत्तरी की है। 2012 में कांग्रेस को कुल 10674767 वोटर्स ने वोट किया था, जो इस साल बढ़कर 12377542 वोटर्स हो गए।
कांग्रेस की ये बढ़ोत्तरी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि महज तीन साल पहले लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस का बिस्तरा गोल हो गया था, गुजरात की कुल 182 सीटों में से महज 17 विधानसभा सीटों पर ही कांग्रेस अपनी बढ़त बरकरार रख पाई थी, जबकि एमपी की तो एक भी सीट नहीं निकल पाई थी। इस बार मोदी के गुजरात में राहुल ने मोदी को इस कदर घर में कड़ी टक्कर दी है कि मोदी का स्ट्राइक रेट जहां गुजरात में 55 रहा है, तो राहुल का भी 46 स्ट्राइक रेट उतना बुरा नहीं है। नरेंद्र मोदी ने 182 सीटों में से 163 सीटों को कवर करते हुए दोनों चरणों में 34 रैलियां की थीं, जिसमें बीजेपी के प्रत्याशी करीब 90 सीटों पर जीते हैं तो दूसरी तरफ, कांग्रेस पार्टी के निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी ने चुनाव का प्रचार करते हुए 69 सीटों को कवर करते हुए कई रैलियां की थी, जिसमें करीब 37 सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस 32 सीटों जीती है।
150 सीटों के ऐलान के बाद 100 पर भी ना पहुंचने वाले अमित शाह इस बात से खुद को तसल्ली दे सकते हैं कि वोट शेयर बढ़ा है, मोदी खुद को इस बात से तसल्ली दे सकते हैं कि चलो जीत तो गए, विजय रूपाणी और नितिन पटेल जैसे तैसे जीत पर खुश हो सकते हैं और देश भर में मौजूद भाजपा के कार्यकर्ता भी। लेकिन क्या ये वाकई खुश होने की वजह है। ये तो साफ साफ खतरे की घंटी है कि आप हारते हारते बचे हैं, सोचिए अगर हार गए होते तो? कर्नाटक, एमपी, छत्तीसगढ़ और झारखंड में क्या मुंह लेकर जाते? आप वहां भी हारते क्योंकि लोग कहते मोदी का मैजिक फेल हो गया है, अपना गढ़ ही हार गए हैं। और इन राज्यों में हारते तो 2019 भी हारना पहले से तय था। बीजेपी 2014 में गुजरात में केवल 17 विधानसभा सीटों पर पिछड़ी थी, ये तय था कि वो इस हार के बाद 2019 में 117 पर पिछड़ती। उसकी वजह भी थी, गुजरात केवल एक राज्य नहीं है, वो एक सपना है जो अन्य राज्य के लोगों को मोदी और अमित शाह की जोड़ी दिखाती है। वो एक रोल मॉडल है बीजेपी के राम राज्य का ऐसी सड़कें, बिजली और कानून व्यवस्था बीजेपी आपको भी दे सकती है।
और ऐसे में गुजरात में ही हार जाते तो मैसेज जाता कि जब वहां के लोग ही नाखुश हैं, तो बाकी राज्यों के लोग आपकी बातों में क्यों कर आएं? सोचिए अगर मणिशंकर अय्यर ने गलती ना की होती, या सोमनाथ मंदिर या क्षा के बाद जनेऊ डिबेट ना होती या मणिशंकर अय्यर अपने घर ठीक 6 दिसम्बर के दिन और पहले चरण के चुनाव से ठीक पहले पाकिस्तानियों को मीटिंग पर ना बुलाते, हार्दिक पटेल की सीडी ना जारीं होतीं और जिन 8 सीटों को कांग्रेस 2000 से भी कम वोट के अंतर से हारी है, वहां थोड़ा भी उलटफेर हुआ होता तो खेल हो जाता और नतीजे ही कुछ और होते। वैसे भी कांग्रेस ने ये तो साबित कर दिया है कि बीजेपी को 2007 जैसा वोट शेयर मिलने के बावजूद उसे 2007 के मुकाबले 18 सीटें कम लेने दीं, तो उसका चुनाव प्रबंधन बीजेपी से इस बार बेहतर था।
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