नई दिल्ली. बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय ने जब से इंदौर नगर निगम के अधिकारियों पर बैट चलाया है और उनके पापा ने पत्रकारों से उनकी औकात पूछी है तब से ये चर्चा फिर शुरू हुई है कि नेताओं के बेटे और बेटियों को ही पार्टी के कार्यकर्ता और मतदाता नेता कैसे बनाते हैं. कोई सांसद हो या विधायक, उसकी सीट से उसका बेटा या बेटी लड़े, पॉलिटिकल वर्कर इसे मंजूर कैसे करते हैं. आम तौर पर क्यों कोई दूसरा कार्यकर्ता जीते हुए या जीत रहे विधायक या सांसद की सीट से टिकट नहीं हासिल कर पाता है. इस मनोदशा को समझने के लिए आपको समझना होगा कि भारतीय राजनीति में सांसद और विधायक होने का मतलब क्या है. सबसे पहले ये समझिए कि नेताओं के बच्चों को ये फैसिलिटी कैसे मिलती है कि वो तुरंत नेता बन जाते हैं.
अब मान लीजिए कि कोई नेता जी किसी सीट से विधायक या सांसद हैं तो जाहिर तौर पर वो राज्य की राजधानी या देश की राजधानी में ठीक-ठाक समय बिताते होंगे. कभी सदन का सत्र, कभी मीटिंग, कभी दौरा. लोकसभा के कई सांसद शनिवार और रविवार को अपने क्षेत्र में जाते हैं लेकिन सारे नहीं. ऐसा ही रूटीन राज्यों के विधायकों का भी रहता होगा. कायदे से तो सांसद और विधायकों से जो काम हो, जनता को सांसद प्रतिनिधि या विधायक प्रतिनिधि के पास जाकर करवाना चाहिए या फिर पार्टी के दफ्तर में जाकर पार्टी संगठन के पदाधिकारियों के जरिए अपनी बात ऊपर पहुंचानी चाहिए. लेकिन व्यवहार में ये सब होता नहीं है. सांसद और विधायक का परिवार ज्यादातर जगहों पर पैरेलल पार्टी संगठन की तरह काम करता है. ये सब इसलिए भी होता है कि जनता को लगता है कि सांसद प्रतिनिधि या पार्टी के नेता को कहने पर वो सांसद या विधायक को कहेगा जिसमें समय लगेगा जबकि परिवार का सदस्य तुरंत फोन लगाएगा और काम हो जाएगा.
तो मान लीजिए कि आपको सांसद या विधायक से काम है तो आप जाएंगे क्षेत्र में उनके घर या दफ्तर या फिर राजधानी में उनके आवास पर. वहां ज्यादातर समय नेताजी मिलेंगे नहीं, लेकिन उनके बच्चे जरूर मिलेंगे. जो नेताजी अपने बच्चों को आगे राजनीति में अपनी विरासत देना चाहते हैं वो गारंटी करते हैं कि जब वो ना मिलें तो उनके बच्चे जरूर मिलें. फिर आप सांसद या विधायक के बच्चे से कहेंगे कि आपको बच्चे का एडमिशन कराना है या फलां अस्पताल में इलाज करवाना है या फलां फंड से आर्थिक मदद चाहिए या फिर ये कि सरकार की इस योजना का लाभ लेना है और सरकारी अधिकारी पैसे मांग रहा है या फाइल लटका रहा है. आप पुलिस थाने की शिकायत लेकर भी जा सकते हैं कि आपकी शिकायत नहीं सुन रहा या आपके परिवार के लोगों को झूठे केस में उठा लिया है.
आम लोग इसी तरह की चीजें लेकर नेताओं के पास जाते हैं. जो काम चिट्ठी लिखने से हो सकता है उसमें नेताजी के बेटे नेताजी के पीए को लेटर हैड पर लेटर लिखकर तैयार करने कहेंगे जो बाद में नेताजी साइन कर देंगे और उसके बाद जनता को मिल जाएगा. जो काम फोन पर हो सकता है वो नेताजी के बच्चे फोन लगाकर नेताजी के प्रतिनिधि के तौर पर कर देंगे. अब सोचिए, एक सांसद या विधायक पांच साल रहता है. हर दिन इस तरह की छोटी-मोटी समस्याओं के साथ उनके दरबार में हाजिरी देने आम लोग पहुंचते हैं. नेताजी के बेटाजी या बेटीजी ऐसे काम कराते-कराते खुद ही नेताजी बन जाते हैं. फिर उस इलाके में उनके युवा हृदय सम्राट और हरदील अजीज नेता जैसे बैनर, पोस्टर लगने लगते हैं जिससे उनके पिताजी को कोई दिक्कत नहीं होती है क्योंकि वो यही चाहते हैं कि उनके बेटे को उनकी तरह संघर्ष और गुटबाजी करके टिकट और जीत का स्वाद चखने के बजाय उनके प्रोमोशन की हालत में डायरेक्ट एंट्री मिल जाए. ये तो हुई जनता की बात. आप बात करते हैं कार्यकर्ताओं की.
सांसद हो या विधायक, निर्दलीय हो या दलीय, सबके कार्यकर्ता होते हैं. संसदीय क्षेत्र बड़ा होता है तो सक्रिय कार्यकर्ता भी हजारों होते हैं. विधायक का क्षेत्र थोड़ा छोटा होता है तो सक्रिय कार्यकर्ता सैकड़ों होते हैं. कार्यकर्ता को कायदे से पार्टी के दफ्तर में सांसद और विधायक के दर्शन होने चाहिए जो आम तौर पर हो नहीं पाता. तो कार्यकर्ता को भी सांसद या विधायक के घर ही जाना पड़ता है. कार्यकर्ता को क्या चाहिए. सबसे पहले सम्मान. तो नेताजी होंगे तो खुद देंगे नहीं होंगे तो उनके बच्चे चाचा, बुआ, मौसी, फूफा, अंकल कहकर सम्मान देंगे, चाय पूछेंगे. फिर काम पूछेंगे. तो कार्यकर्ता जी बताएंगे कि उनके इलाके में नाला बनना है, सड़क बनना है, जला हुआ ट्रांसफॉर्मर बदलना है, बिजली का पोल लगना है, स्कूल में कमरा बनना है, पंचायत में मुखिया गड़बड़ी कर रहा है, प्रखंड में प्रमुख भ्रष्टाचार कर रहा है या बीडीओ या अधिकारी घूस मांग रहे हैं. कार्यकर्ता आम तौर पर अपने इलाके की ऐसी ही समस्या लेकर जाता है. नेताजी होंगे तो जरूरत के हिसाब से चिट्ठी लिखेंगे या फोन करेंगे और फॉलो अप का काम बच्चे को पकड़ाकर कह देंगे कि काम ना हो तो बच्चे से बात कर लीजिएगा. कार्यकर्ता जी अब नेताजी के साथ-साथ नेताजी के बच्चे जी को भी फोन करेंगे क्योंकि नेताजी हर बार फोन उठा लें, जरूरी नहीं. उठाने को तो बच्चे जी भी ना उठाएं, पर कार्यकर्ता और आम लोग ये खुद मान लेते हैं कि बिजी होंगे.
कार्यकर्ताओं में एक और कैटेगरी होती है जो आम कार्यकर्ता नहीं होते, खास कार्यकर्ता होते हैं. चुनाव के समय चंदा देते हैं, चंदा लाते हैं, लाठी-डंडा जुटाते हैं. इनकी नजर ना सांसद बनने पर होती है और ना विधायक, इनकी नजर होती है उनके सांसद कोष और विधायक कोष पर. सांसद कोष और विधायक कोष से जो काम होते हैं, वो डीआरडीए करवाता है. डीआरडीए सांसद और विधायकों की सिफारिश पर उनके कोटे के फंड से कई बार बिना कहे इशारे में समझकर और कई बार कहने पर किसी खास सरकारी एजेंसी को काम देता है जो एजेंसी उसी तर्ज पर नेताजी के पसंदीदा खास कार्यकर्ता जी को काम देती है. सरकारी अधिकारी नेताजी की ज्यादातर बात सुन लेते हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि अगर उनके पसंद का ठेकेदार नहीं हुआ तो काम में क्वालिटी को लेकर नेताजी बवाल कर देंगे, फिर जांच होगी, फिर कोई सस्पेंड हो सकता है, कोई जेल भी जा सकता है. और जिला में डीएम से लेकर बिल क्लर्क तक, सबका कट फिक्स होता है जिसे आम लोग ईमानदारी कहते हैं. इसमें कोई मांगता नहीं है, सबको पता होता है कि 1 परसेंट सबसे बड़े साहब को जाएगा, 1 परसेंट दूसरे नंबर के साहब को जाएगा, 1 परसेंट एसई को जाएगा, 2 परसेंट एग्जीक्युटिव इंजीनियर को जाएगा, 2 परसेंट जूनियर इंजीनियर को जाएगा. विधायक या सांसद का कट होता है या नहीं होता है, ये कार्यकर्ताओं को पता होता है लेकिन नेताजी का मतलब इस बात से है कि काम उनके पसंद के आदमी को मिल जाए जो चुनाव में फिर काम आए.
नेताजी बड़े प्यार से सदन और मीटिंग वगैरह की व्यस्तता की वजह से घर पर गैरहाजिरी को अपने बच्चे को पॉलिटिक्स में घुसाने का प्लेटफॉर्म बनाते हैं. आम जनता के काम नेताजी और उनके बच्चे कराते हैं. कार्यकर्ताओं के काम नेताजी और बच्चे कराते हैं. नेताजी के बच्चे की राजनीति में एंट्री में सिर्फ एक बाधा होती है, पार्टी का संगठन और पार्टी के जिलाध्यक्ष और उनके सरीखे दूसरे पदाधिकारी जो गुटबाजी की वजह से या नेताजी की सीट से ही अपना राजनीतिक भविष्य देखने के कारण, बच्चा जी को टिकट मिलने का विरोध करते हैं या कर सकते हैं. ऐसी स्थिति में नेताजी का जनता और कार्यकर्ता से संवाद और काम कराने का काम बच्चा जी को सौंपने का रिजल्ट दिखता है. प्रदेश के नेता और टिकट बांटने वाले नेताओं के पास इलाके के आम कार्यकर्ता भेजे जाते हैं कि जाकर बताओ कि हमारे बच्चा जी ने बहुत मेहनत किया है, आपका काम किया है, आपका काम करवाया है, उनको टिकट दिलवाओ. कई बार ये दांव काम कर जाता है और कई बार नहीं कर पाता है. जब कर जाता है तो नेताजी के बेटे भी सांसद या विधायक बन जाते हैं. आम तौर पर विधायक का बेटा विधायक तब बन पाता है जब बाप या मां सांसद हो जाएं तो उनकी सीट खाली हो और उप-चुनाव में पार्टी नेताजी को नाराज ना करने का रिस्क लेकर बच्चे को टिकट दे दे. हार से सबको डर लगता है. नेताजी से ज्यादा उनकी पार्टी को. मुख्यमंत्री स्तर का नेता तो अपने बच्चों को सीधे सांसद का टिकट दिलाता है और लोकसभा में पहुंचाता है. इसलिए किस नेता का बेटा या बेटी कितने बड़े नेता बनेंगे, ये इस बात पर निर्भर होता है कि नेताजी खुद कितने बड़े हैं.
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार में सबसे पावरफुल मंत्री रहे बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के पहली बार विधायक बने बेटे आकाश विजयवर्गीय को जब नगर निगम अधिकारियों को पीटने के केस में जेल भेज दिया गया तो शहर में पोस्टर लग गए- सैल्यूट आकाश जी. ये पोस्टर लगाने वाले लोग वो ही हैं जिन्हें आपने ऊपर आम जनता, आम कार्यकर्ता और खास कार्यकर्ता के तौर पर जाना. इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आकाश ने जो किया है वो एक विधायक को करना चाहिए या नहीं, वो काम गैर-कानूनी है या सही. उन्हें बस इतना पता है कि कैलाश विजयवर्गीय बड़े नेता हैं और बड़े नेता के गुड बुक में रहने के लिए जूनियर नेता के पीछे खड़ा होना है और ये बताना है कि हम आकाश के पीछे खड़े हैं. सांसद और विधायक और मंत्री बनकर नेता ऐसे ही अपने बच्चों को नेता बनाते हैं. खुद को डेली के कामकाज से बाहर कर लो और बच्चों के जरिए जनता और कार्यकर्ता के दुख-दर्द दूर करो. जनता और कार्यकर्ता दोनों खुद ही बच्चों को नेता बना देंगे.
अब इतनी लंबी बात पढ़ ली तो ये भी पढ़ लीजिए कि हमारे भारत देश में कितने राजनीतिक परिवार हैं जहां पैदा होने वाले बच्चे वंशवाद के दम पर सांसद, विधायक और मंत्री बनते रहे हैं. सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त और पीएम सईद के बेटे हमदुल्ला सईद जैसे बहुत नाम हैं लेकिन हम अपने पिता या माता की वजह से राजनीति में आए, चमके और छाए कुछ चुनिंदा राजनीतिक परिवारों की चर्चा कर रहे हैं जिनके अलग-अलग लोग आज अलग-अलग पार्टी में हो सकते हैं लेकिन हम सबका नाम एक जगह रख रहे हैं क्योंकि वो चाहे जिस पार्टी में हों, वो वहां इसलिए हैं क्योंकि वो उस परिवार से हैं.
कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद
भारतीय जनता पार्टी बीजेपी में परिवारवाद
अन्य राष्ट्रीय दलों में परिवारवाद
उत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों में फैमिली पॉलिटिक्स
पश्चिम भारत के क्षेत्रीय दलों में फैमिली पॉलिटिक्स
पूर्वी भारत के क्षेत्रीय दलों में फैमिली पॉलिटिक्स
दक्षिण भारत के क्षेत्रीय दलों में फैमिली पॉलिटिक्स
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