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पूरे पांच बार चुनाव हारे थे अटल बिहारी वाजपेयी, जानिए हर हार की पूरी कहानी

नई दिल्ली. अटल बिहारी वाजपेयी अपनी भाषण कला और राष्ट्रवादी उदारमना व्यक्तित्व के चलते आज इतनी बड़ी शख्सियत बन गए कि लोगों से जब ये कहा जाए कि वो चुनाव हार भी चुके हैं तो कम से कम नई पीढ़ीं तो यकीन ही नहीं करेगी। खबरों और राजनीति के प्रति जागरूक लोग भी ज्यादा से ज्यादा लोकसभा चुनावों में उनकी दो हारों के बारे में ही बता सकते हैं। एक हार उन्हें माधव राव सिंधिया के हाथों ग्वालियर में मिली थी और दूसरी शिकस्त उन्हें मधुरा में हाथरस के राजा और स्वतंत्रता सेनानी राजा महेन्द्र प्रताप के हाथों मिली थी। लेकिन अगर आपको कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में अटल बिहारी बाजपेयी को एक या दो बार नहीं बल्कि पांच पांच हराया जा चुका है तो आपको शायद ही यकीन हो। लेकिन ये सौ फीसदी सच है, आज आप जानेंगे लोकसभा चुनावों में अटल बिहारी बाजपेयी की इन पांच शिकस्तों की पूरी कहानी।

शुरूआत 1952 से जब अटल बिहारी बाजपेयी को पहला चुनाव लड़ना पड़ा था, दरअसल हिंदू महासभा से नाता तोड़कर जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ पार्टी की स्थापना की तो राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ ने उन्हें दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी बाजपेयी, ये दो प्रचारक सौंप दिए। 1951 के आम चुनावों तक अटल बिहारी बाजपेयी का चुनाव लड़ने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय उनकी भाषण कला से काफी प्रभावित थे और राष्ट्रीय पटल पर देखना चाहते थे। ऐसे में जब 69 फीसदी से भी अधिक वोट लेकर जीतने के बावजूद लखनऊ सेंट्रल की सांसद विजय लक्ष्मी पंडित ने इस्तीफा दे दिया तो वहां उपचुनाव हुआ। दरअसल नेहरूजी ने अपनी बहन विजय लक्ष्मी पंडित को अमेरिका का राजदूतस बनाकर भेजने का फैसला किया था, सो उन्होंने लखनऊ की सीट से इस्तीफा दे दिया।

1952 में इस सीट पर उपचुनाव होना था, कांग्रेस ने इस सीट पर एक और नेहरू को मौका दिया। ये थीं श्यौराज वती नेहरू, नेहरूजी की कोई रिश्तेदार थीं, कांग्रेस और उसके कई फ्रंटल संगठनों में सक्रिय थीं। दीनदयाल उपाध्याय ने मौका देखकर अटलजी को कहा कि आप यहां से चुनाव लड़ लो, कुल 28 साल के तो थे अटल बिहारी बाजपेयी। वो मान गए, अटलजी ने काफी मेहनत की, कुल 150 जनसभाओं को सम्बोधित किया। तभी तो नई पार्टी का नया चेहरा होने के बावजूद अटल बिहारी ने कुल 28 फीसदी और करीब 34 हजार वोट पाए, ये अलग बात है कि तीसरे स्थान पर रहे। वहां से सांसद चुनी गईं 49, 324 वोट पाकर श्योराज वती नेहरू। दूसरे नंबर पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के त्रिलोक सिंह रहे। लेकिन तब से अटलजी की पसंदीदा सीटों में लखनऊ की वो सीट जरुर शामिल हो गई।

अगले आम चुनाव 1957 में हुए, अब तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी नहीं थे, और दीनदयाल उपाध्याय हर हाल में प्रखर वक्ता अटल बिहारी को संसद में भेजना चाहते थे। सो तय किया गया कि उन्हें तीन सीटों पर चुनाव लड़ाया जाएगा। ये तीन सीटें चुनी गईं मथुरा, लखनऊ और बलरामपुर। आलम ये था कि उन दिनों कोई भी जनसंघ का टिकट नहीं लेना चाहता था, नई पार्टी थी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसा बड़ा चेहरा भी नहीं रहा था। दीनदयालजी परदे के पीछे रहकर काम करना पसंद करते थे। तो अटलजी ने तीन जगहों पर मोर्चा जमाया।

मथुरा में उनके खिलाफ राजा महेन्द्र प्रताप काफी नामचीन व्यक्ति थे, उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, जाट बाहुल्य सीट पर इस जाट राजा का काफी सम्मान था। अफगानिस्तान में 1915 में देश की पहली अनिर्वासित सरकार राजा महेन्द्र प्रताप ने बनाई थी, और अपना सब कुछ देश के नाम कर दिया था। तो यहां लड़ाई मुश्किल थी। इसी तरह लखनऊ में कांग्रेस की पकड़ मजबूत थी, उसको हराना मुश्किल था, उम्मीदवार थे पुलिन बिहारी बनर्जी। ऐसे में बलरामपुर ही अटलजी के लिए सेफ सीट लग रही थी। उसकी वजह भी थी, वहां के हिंदू शासक ने कभी करपात्री महाराज की राम राज्य परिषद की स्थापना बलरामपुर में करवाने मे मदद की थी, वहां के लोगों पर उनका काफी प्रभाव था। राम राज्य परिषद वैसे भी जनसंघ में शामिल हो गई थी।

मथुरा में जितनी बड़ी हार सोची थी, उससे बड़ी हुई, अटलजी चौथे नंबर पर रहे और राजा महेन्द्र प्रताप के सामने उनकी जमानत जब्त हो गई। राजा को 95,000 और अटलजी को केवल 24,000 वोट मिले थे। लखनऊ में जरुर उन्हें सम्मानजनक हार नसीब हुई जहां कांग्रेस के पुलिन बिहारी को चालीस फीसदी तो अटलजी को तेतीस फीसदी वोट मिले। तो इस तरह बलरामपुर ने ही उनकी लाज बचाई, अटल बिहारी बाजपेयी बलरामपुर से पहली बार सांसद बनने में कामयाब रहे। लेकिन अब तक अटल जी के हिस्से में तीन हार तो दर्ज हो ही चुकी थीं। यही बलरामपुर आजकल यूपी की श्रावस्ती सीट के तौर पर जाना जाता है। बलरामपुर में अटलजी को 1,20,000 वोट मिले और उन्होंने अपने करीबी प्रतिद्वंदी हैदर हुसैन को 10,000 वोट से हराया था।

अटलजी चौथा जो चुनाव हारे, वो अगले आम चुनावों में यानी 1962 में इसी सीट पर हारे। दरअसल अब संसद में उनका साबका नेहरूजी से पड़ने लगा था और नेहरू जी जनसंघ के संसदीय दल के नेता होने के नाते और अच्छे वक्ता होने के नाते उनको नोटिस में ले लिया था। लेकिन नेहरूजी जितना अटलजी को पसंद करते थे, उतना वो एक खांटी राजनीतिज्ञ की तरह अटलजी जैसे विपक्षी वक्ता को सदन से बाहर भी करना चाहते थे। तो पहला कार्यकाल तो अटल जी का कट गया लेकिन दूसरे कार्यकाल में पंडित नेहरू ने चतुर रणनीति से लोकसभा से बाहर करवा दिया। नेहरूजी की हथियार बनीं सुभद्रा जोशी, नेहरूजी की समझ आ गया था कि अटलजी को फिलहाल किसी मर्द द्वारा पछाड़ना मुमकिन नहीं तो उन्होंने दिल्ली से ऊर्जावान और खूबसूरत सुभद्रा जोशी को उनके खिलाफ बलराम पुर से चुनाव लड़ने के लिए भेजा। सुभद्रा पंजाब से आईं शरणार्थी थीं, एमपी के 1961 के दंगों में उन्होंने काफी काम किया था। नेहरूजी ने खाली सुभद्रा जोशी पर ही भरोसा नहीं किया, उन्होंने बलराज साहनी जैसे बड़े फिल्मी अभिनेता से भी सम्पर्क किया और अटलजी के खिलाफ सुभद्रा के हक में चुनाव प्रचार को अनुरोध किया।

उस वक्त बलराज साहनी की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ सुपरहिट हुई थी, उनका सितारा बुलंदियों पर था और बलराज साहनी लैफ्ट झुकाव वाले संगठन इप्टा से जुड़े हुए थे, वो जनसंघ के इस जननेता को हराने में मदद के लिए फौरन तैयार हो गए और कई दिन के लिए बलराम पुर में डेरा डाल दिया। तब तक के चुनावी इतिहास में ये पहला मौका था जब उत्तर भारत के किसी चुनाव में कोई फिल्म अभिनेता चुनाव प्रचार करने पहुंचा था। सुभद्रा जोशी ने नेहरूजी से भी गुजारिश की कि आप भी प्रचार करिए लेकिन नेहरूजी जानबूझकर उस सीट पर प्रचार के लिए नहीं आए, एक तरफ दोनों की विदेश नीति में दिलचस्पी होने की वजह से लगाव भी था, दूसरी तरफ वो अटल के खिलाफ प्रचार करके उनका कद ऊंचा नहीं करना चाहते थे।

लेकिन नेहरूजी का महिला और फिल्मी अभिनेता कार्ड कामयाब रहा, बहुत मामूली अंतर से अटल चुनाव हार गए, सुभद्रा जोशी को कुल 2000 वोट से जीत मिली। लेकिन दीनदयाल उपाध्याय अटलजी को हर हाल में संसद भेजना चाहते थे, तो उसी साल उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाकर भेज दिया और उनका कद बरकरार रखने के लिए फिर से जनसंघ संसदीय दल का नेता बना दिया।

अटलजी फिर चौथी लोकसभा में बलरामपुर से ही जीत कर आए, लेकिन अगली बार वो अपने ग्रहनगर ग्वालियर चुनाव लड़ने चले गए और वहां से जीतकर सांसद बने। उसके अगले दो बार वो नई दिल्ली की सीट से यानी 1977-80 और 1980-84 वो नई दिल्ली लोकसभा सीट से सांसद चुने जाते रहे। 1977 में वो विदेश मंत्री भी बने, सरकार गिरने के बाद 1980 में बीजेपी का भी गठन हो गया था। लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश मे इतना जबरदस्त माहौल कांग्रेस के पक्ष में बना तो अटलजी को लगा कि वो नई दिल्ली से नहीं जीत पाएंगे और वो फिर अपने गृहनगर ग्वालियर कूच कर गए। लेकिन इंदिरा की मौत के बाद की सुहानुभूति की ऐसी लहर उठी कि अटल बिहारी बाजपेयी ग्वालियर से माधव राव सिंधिया के खिलाफ चुनाव हार गए। इस तरह ये उनकी पांचवीं और आखिरी हार थी।

इस बार उन्हें फिर से राज्य सभा के रास्ते संसद आना पड़ा। उसके बाद 1991 में पहली बार वो लखनऊ से सांसद बने। जो लखनऊ सीट उन्हें दो बार हार का स्वाद चखा चुकी थी, उसने उन्हें हमेशा के लिए अपना लिया और लगातार पांच बार अटलजी वहां से सांसद रहे। 2009 तक वो लखनऊ के सांसद रहे और 2009 में उनका पत्र लेकर आने वाले लालजी टंडन को भी लखनऊ की जनता ने अपना सांसद चुन लिया।

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Aanchal Pandey

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