इलाहाबाद. मैं नेहरू के सपनों के भारत का अग्रदूत हूं. मैं नेशनल हेराल्ड हूं. मेरा जन्म उस समय हुआ था जब गुलाम भारत अपनी आजादी के लिए सबसे निर्णायक लड़ाई की तैयारी कर रहा था. इतिहास में मेरा जन्म 8 सितंबर 1938 दर्ज है.
जिस आंगन में मेरा जन्म हुआ वह देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखता है. मुझे आज समझ में नहीं आ रहा है कि यह मेरे लिए गर्व की बात है या फिर यही मेरी बदनसीबी की वजह.
क्योंकि इसी आंगन में मुझे खरीदा और बेचा रहा है जबकि अब मेरा कहीं भी अस्तित्व नहीं है. मैं आज के अखबारों से बिलकुल था. इतिहास के कुछ सुनहरे पल मैंने देखे हैं लेकिन वक्त ने मुझे सिर्फ कागज में तब्दील कर दिया है. अब मेरी जुबान पर ताला लटका है.
आज जब लोग प्रेस की आजादी की बात करते हैं तो मेरे सामने नेहरू जी का चेहरा याद आ जाता है. वह मेरे पिता थे. उन्होंने गुलाम देश में होते हुए भी प्रेस की आजादी का सपना मेरे दम पर देखा था.
एक दिन उन्होंने कहा था ‘हमें बनियागिरी नहीं आई.’ वह कहते थे ‘मेरा नेशनल हेराल्ड कभी बंद नहीं होगा भले ही मुझे इसके लिए आनंद भवन बेचना पड़ जाए’. मेरा नाम हेराल्ड इसीलिए रखा था कि आने वाली पीढ़ी को मैं आजादी के मायने सिखा सकूं.
पंडित जी जो सोचते वही मैं मेरे शब्द थे. उन्होंने सोचा ‘Freedom is in Peril, Defend it with All Your Might’. (आजादी खतरे में है. हमें मिलकर इसकी रक्षा करनी है.) पंडित जी ने इसे मेरे माथे पर लिखा था. अखबार में इसे मास्ट हेड कहा जाता है.
अब मैं धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था. मुझे औऱ मजबूत करने के लिए नेहरू जी ने एसोसिएटे़ड जर्नल्स नाम की कंपनी बनाई. युवा नेशनल हेराल्ड से अंग्रेज सरकार भी घबरा रही थी. 1942 में मुझे अंग्रेजों ने बंद कर दिया. लेकिन गुलामी मुझे बर्दाश्त न थी और शायद नीयत को भी यही मंजूर था.
1945 में फिरोज गांधी ने कमान संभाली और फिर मैं आजादी की लड़ाई में शामिल हो गया. देश को आजादी मिलने के बाद मुझे कांग्रेस का मुखपत्र बना दिया गया. यह मेरी शोहबत बिगाड़ने जैसी बात थी. लोग भी अब मुझे कम ही पसंद कर रहे थे.
लेकिन नेहरू जी की छवि के बदौलत में मैदान में डटा रहा और अब तक मेरे नाम हजारो करोड़ संपत्ति हो चुकी थी. यह मेरे लिए किसी अभिशाप से कम न था. कहां आजादी का एक फक्कड़ दिवाना तो कहां अब मायाजाल के दलदल में धंसता जा रहा है कागज का पुलिंदा.
फिर जिसका मुझे डर था वही हुआ. 1977 त कांग्रेस पर का आरोप लग गया. पंडित जी की बेटी इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं. इस सदमे को मैं भी बर्दाश्त नहीं कर पाया.
एक बार फिर से मुझे बंद कर दिया गया. दो सालों के बाद मेरी याद इंदिरा के बेटे राजीव गांधी को आई. लेकिन अब मुझमें वह ताकत न थी. सबसे बड़ी बात मैं किससे और किसके लिए लड़ता.
मेरी बूढ़ी कानों में पंडित जी की वह बात हमेशा गूंजती रहती थी…भले ही मुझे आनंद भवन बेचना पड़े…. तभी 1998 में मेरा लखनऊ संस्करण बंद करने का फैसला कर दिया. वही शहर मेरा जन्म हुआ था.
शायद मेरी जरूरत नहीं थी या ऐसा कह लो कि नेहरू जी ने जो सपना मुझे लेकर देखा था वह पूरा हो चुका था…मैं इन बातों को खुद का दिल बहला तो सकता था लेकिन सच्चाई यह नहीं थी..मुझे पता था..
मैं खुद खत्म होता देख रहा था. 2008 में जब भारत में कांग्रेस की सरकार थी तभी मेरे न रहने का ऐलान कर दिया गया. बताया गया कि कुछ दिक्कतों के चलते नेशनल हेराल्ड को बंद कर दिया गया है..
एक वह दौर था जब नेहरू जी आनंद भवन बेचने को तैयार थे लेकिन जमाना बदल गया है..अब शायद बनियागिरी का दौर है…हमें इसलिए मार दिया गया क्योंकि बनियागिरी नहीं आती थी. पंडित जी होते तो इस बनियागिरी को अपनी मार भगाते…लेकिन अब तक आनंद भवन सूना हो चुका था.
कहते हैं कि जिस कांग्रेस के पैसे दम पर नेहरू जी ने मुझे खड़ा किया था उसी ने मुझे खरीद लिया है…90 करोड़ में खरीदा है..जब मैं सुना कि खरीददार पंडित जी की बेटी इंदिरा गांधी की बहु सोनिया और उनके बेटे राहुल हैं.
मैं समझ नहीं पा रहा हूं. क्या मुझे बेचे और खरीदे जाने की वजह हजारों करोड़ की संपत्ति है. मेरा दुर्भाग्य है कि मेरी हैसियत रुपय़ों में आंकी जा रही है. मैं हेराल्ड हूं. हिंदी में मुझे अग्रदूत कहा जाता हूं…मेरे आगे तो आनंद भवन भी कुछ नहीं था….पंडित जी आपका अखबार खतरे में है..प्रेस खतरे में है…इसकी रक्षा कौन करेगा….मुझे बनियागिरी से मुक्ति दिला दो..मुझे आनंद भवन में दफ्न कर दो.
( ये लेखक के निजी विचार हैं)