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पीएम मोदी नहीं, RSS के 58 सालों का संघर्ष काम आया है मणिपुर में

इंफाल. मणिपुर में जिस मकसद के लिए आरएसएस और बीजेपी के कार्यकर्ता पिछले 58 साल से लगे हुए थे, वो कम सीटों के चलते हाथ से फिसल सकता था.
गोवा की तरह ही तेजी से एक्शन लिया गया और समर्थन जुटाकर बीजेपी ने मणिपुर में सरकार बना ही डाली. ये कोई आसान काम नहीं था और ना ही ये मौका कोई छोड़ने के लिए तैयार था.
आरएसएस के हजारों कार्यकर्ताओं, जिन्होंने सालों से इस दिन के लिए सालों के बिना थके, बिना रुके जो सपना देखा था, वो पूरा हो गया.
उत्तर-पूर्व में आरएसएस के लिए नहीं थी राह आसान
उत्तर-पूर्व कभी भी आरएसएस के लिए और ना जनसंघ या भाजपा के लिए रास्ता आसान नहीं था. पहले तो वहां ईसाई या मुस्लिम जनसंख्या काफी थी. दूसरा ऐसी ऐसी जनजातियां थीं जो गाय का मांस यानी बीफ तक खाती थीं.
तीसरा छोटी स्थानीय पार्टियों का वहां इतना जोर था कि ताकतवर कांग्रेस और लैफ्ट जैसी पार्टियां भी बमुश्किल कदम जमा पाई थीं.
चौथा आरएसएस-बीजेपी के भारतमाता की जय जैसे नारे, शिवाजी-सावरकर जैसे हिंदुत्व के नायक वहां के लोगों पर असर नहीं छोड़ते थे.
लेकिन सामरिक दृष्टि से उत्तर पूर्व के ये राज्य बांग्लादेश, चीन और बर्मा से जुड़े हुए थे. ऐसे में उनको छोटा समझकर उनको छोड़ा भी नहीं जा सकता था. कई मोर्चों पर रणनीति बनाई गई.
आरएसएस के प्रचारकों ने दिन-रात की है मेहनत
जाहिर है संघ के कई संगठनों और घर-गांव छोड़कर आए पूर्णकालिक प्रचारकों की इसमें अहम भूमिका थी.
शुरुआती दिक्कत ये थी कि जब आपके पास शाखा तक के लिए स्वंयसेवक ना हों, ऐसे में स्थानीय प्रचारक, वो भी पूर्णकालिक कहां से आएंगे.
1946 में भेजा गया था प्रचारक
ऐसे ही नागपुर से जब 1946 में शुरुआती प्रचारक दादाराव परमार्थ असम में आए तो उन्होंने पाया कि छत्रपति शिवाजी को लेकर वहां के लोगों में कोई जोश नहीं है.
तो उन्होंने वहां के एक स्थानीय संत शंकरदेव को ढूंढ निकाला जो 16वीं सदी में धार्मिक राष्ट्रवाद की अलख जगा चुके थे.
कृष्ण की रासलीलाएं मणिपुर के स्थानीय नृत्यों में खास अहमियत रखती थीं.  वैसे भी श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मणी को इसी इलाके का माना जाता है.
उत्तर-पूर्व को बांटा गया 4 भागों में
शुरुआत में पूरे नॉर्थ ईस्ट को केवल एक प्रांत के तहत देखा जाता था, असम क्षेत्र. बाद में सभी राज्यों को दो प्रांतों में बांट दिया गया, उत्तरी असम और दक्षिणी असम.
काम लगातार बढ़ रहा है. अब इसे चार प्रांतों में बांटा जा चुका है. उत्तर असम में मेघालय और नागालैंड हैं.
दक्षिण असम में त्रिपुरा और मिजोरम हैं, तीसरा प्रांत अरुणाचल है और चौथा मणिपुर. इससे आप समझ सकते हैं कि जितना महत्वपूर्ण पहले असम था, बाद में उतना ही अरुणाचल और मणिपुर भी हो गया.
गुवाहाटी के शुक्रेश्वर मंदिर से शुरू हुआ आरएसएस का सफर
1946 में आरएसएस की शाखाओं का सफर गुवाहाटी के शुक्रेश्वर मंदिर से हुआ. दादाराव परमार्थ ने दो प्रचारकों बसंत राव ओक और श्रीकृष्ण परांजपे को शिलांग और डिब्रूगढ़ में काम संभालने भेज दिया.
लेकिन 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लग जाने से उन सबको काफी मुश्किल हुई.फिर उस प्रतिबंध के खिलाफ जब आंदोलन चला तो स्वंयसेवकों ने भी गिरफ्तारियां दी थीं.
बाद में आए कई नामी-गिरामी प्रचारक
परमार्थ के बाद आरएसएस के बड़े नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भी उनकी जगह प्रांत प्रचारक का काम संभाला.सुकांता जोशी ने भी यहां काम किया.
उन्होंने आरएसएस का काम असम से निकालकर मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में पहुंचाया. 1977 में इमरजेंसी के बाद आरएसएस ने असम आंदोलन में एक बड़ी भूमिका निभाई थी.
केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार से भी कार्यकर्ताओं के हौसले चौगुने हो गए थे. आरएसएस ने साफ कर दिया कि बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता मिलेगी और मुस्लिम शरणार्थियों को विदेशी माना जाएगा.
आरएसएस से जुड़े संगठनों ने भी झोंकी ताकत
अब आरएसएस से जुड़े के कई ने भी इन उत्तर-पूर्व के राज्यों में काम करना शुरू कर दिया. एकल विद्यालय और वनवासी कल्याण आश्रमों के साथ साथ सेवा भारती ने भी आम जनता के बीच गहरी पैठ बनानी शुरू कर दी.कई स्थानीय पर्व-त्यौहार और यात्राएं सामूहिक रूप से मनाना शुरू कर दिया गया.
एबीवीपी ने भी किया विस्तार
विद्यार्थी परिषद ने सील नाम के कार्यक्रम के तहत पूर्वोत्तर के छात्रों को देश के अलग-अलग राज्यों के विद्यार्थियों के घर छुट्टियों में भेजना शुरू कर दिया, उनको राष्ट्रीय रंग में रंगने के ऐसे तरीके लोगों को जमीन से जोड़ रहे थे.
शुरू किए गए कई कार्यक्रम
कई राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए गए. 2013 में इंडो-चाइना युद्ध के पचास साल पूरा होने पर सरहद पर श्रद्धांजलि नाम से एक बड़ा कार्य़क्रम किया गया.
शाखाओं के अलावा मिलन और मंडोली जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए. बड़ी संख्या में शाखाएं शुरू की गई. आरएसएस लोगों के बीच पैठ बनाता चला गया.
स्थानीय महापुरुषों को दी गई प्रमुखता
कई स्थानीय नेताओं और महापुरुषों पर भी ध्यान देना शुरू किया गया. जिनमें रानी गैडिनल्यू प्रमुख थीं जो नागाओं की रानी थीं.
असम में आरएसएस ने अपना पहला स्कूल संत शंकर देव के नाम पर शंकरदेव शिशु कुंज खोला तो स्वतंत्रता सेनानी गोपीनाथ बारदोलोई को भी याद किया गया.
क्योंकि उन्होंने असम को ईस्ट पाकिस्तान में मिलाने की जिन्ना की साजिशों का जमकर विरोध किया था.
मणिपुर में रानी गैडिनल्यू के अलावा 1889 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले मणिपुर के राजकुमार टिकेन्द्रजीत सिंह और अंडमान जेल में दिन गुजारने वाले बाकी राजकुमारों की भी वीरगाथाएं आरएसएस के कार्यक्रमों में शामिल हुईं.
आरएसएस के सामने फिर भी थी बड़ी चुनौती
आरएसएस को दोनों फ्रंट पर लड़ना था, जहां असम जैसे इलाकों में मुस्लिम बाहुल्य होने के चलते उनके कुछ स्थानीय नेता बांग्लादेशियों को अवैध घुसपैठ में मदद कर रहे थे और जाली करेंसी के गोरखधंधे को बढ़ावा दे रहे थे.
वहीं मणिपुर, मिजोरम में ईसाई मिशनरियां इतनी तेजी से सेवा कार्य़ों के जरिए धर्म परिवर्तन के काम में लगी थीं कि मणिपुर में आज की तारीख में हिंदू जहां 41.40 फीसदी हैं त ईसाई 41.30 फीसदी तक पहुंच गईं.
ऐसे में सेवा कार्यों और सांस्कृतिक चेतना के सहारे ही आगे बढ़ा जा सकता था. बहुत कम लोगों को पता होगा कि उत्तर प्रदेश के प्रचारक डॉ. कृष्ण गोपाल ने पंद्रह से बीस साल आसाम सहित इन्हीं पूर्वोत्तर राज्यों में बिताए हैं और आज वो आरएसएस के सह कार्यवाह हैं.
राममाधव ने निभाई बड़ी भूमिका
बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व को दूसरा सहयोग मिला राम माधव का, जो कश्मीर, असम, मणिपुर जैसे राज्यों में बीजेपी के लिए काम कर चुके हैं. उनके पास मणिपुर में काम करने का अच्छा-खासा अनुभव है जो सरकार बनाने में काम आया.
आरएसएस ने बना ली जगह
लेकिन इन सबके बीच आरएस के जमीन स्तर पर किए गए कामों का नजरंदाज नहीं किया जा सकता है.
केवल 3500 होम्योपैथी डॉक्टर आरएसएस की ओर असम में ही कैंप लगाते हैं और 500 बाकी राज्यों में.
आरएसएस की रोजाना शाखाएं पूरे पूर्वोत्तर में हजार के करीब पहुंच चुकी हैं और संघ की महिला शाखा राष्ट्रीय सेविका समिति ने भी अपनी शाखाओं की संख्या 250 के पार पहुंचा दी है.
इतिहास बदलने की कोशिश
इतिहास संकलन समिति स्थानीय इतिहास को नए सिरे से लिखने में लगी है तो साहित्य परिषद स्थानीय साहित्य को सुरक्षित रखने और बढ़ावा देने के काम में. संस्कार भारती स्थानीय कलाओं को विकसित करने का काम देख रही हैं.
बीजेपी ने दिया स्थानीय मुद्दों पर जोर
इधर बीजेपी ने पूरी तरह जनता की समस्याओं को राजनीतिक स्तर पर उठाना शुरू किया, जनता के बीच उनके कई तरह के सवाल होते थे- आपका विधायक आखिरी बार आपके कब मिला?
आप राजधानी के इतने पास हैं तो पीने के पानी की समस्या क्यों है? क्या सरकारी विभागों में बिना पैसा दिए काम हो जाता है? आपकी सड़क पक्की क्यों नहीं है? स्ट्रीट लाइट्स क्यों नहीं है?
पीएम आवास योजना का आपको लाभ मिला कि नहीं? उज्जवला गैस योजना से आपको गैस मिली कि नहीं? जन धन खाता खुलवाया कि नहीं?
आपके गांव का नाम बिजली के लिए आपके डीएम या विधायक ने भेजा कि नहीं? पीएम दुर्घटना बीमा योजना में रजिस्ट्रेशन करवाया कि नहीं? अटल पेंशन योजना के लिए आवेदन किया कि नहीं?
ऐसे तमाम सवालों के जरिए हाल ही में उन्होंने केन्द्र सरकार की योजनाओं का तो प्रचार किया ही, जनता को ये भी समझाया कि राज्य सरकार भ्रष्ट हैं.
शाह की रैली में उमड़ी थी भीड़
अमित शाह सितम्बर 2016 में बूथ लेबल के कार्य़कर्ताओं का सम्मेलन करने मणिपुर आए तो 30,000 की विशाल भीड़ को देखकर हैरत में पड़ गए. राम माधव ने भी हेमंत विश्वसर्मा जैसे नेता को बीजेपी में शामिल करवाकर राह आसान कर दी.
अब हेमंत पूरे पूर्वोत्तर में नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस के संयोजक के तौर पर बीजेपी को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं.
अरुणाचल में भी पेमा खांडू की अगुवाई में पूरी की पूरी पार्टी को बीजेपी में शामिल करके पहली बीजेपी सरकार बनवाने के पीछे राम माधव का ही हाथ बताया जा रहा है.
जब कांग्रेस को दिया था पहला झटका
इधर मणिपुर में बीजेपी ने 278 म्यूनिसिपल काउंसिल में से पहली बार 62 सीटों पर जीत दर्ज की, ऐसे ही इम्फाल म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन में पिछली बार उसकी एक सीट थी, जून 2016 में दस सीटे जीतीं. जबकि कांग्रेस के हिस्से में 12 ही आईं.
बीजेपी की मुश्किलें अभी नही हुई हैं दूर
लेकिन सत्ता पाने से ही उनकी मुश्किलें दूर नहीं हो गई हैं, समर्थन की बैशाखी पर टिकी सरकार को टिकाए रखना है और दोबारा पूर्ण बहुमत से आना भी है.
और फिर सालों तक टिकना भी है. इसमें केन्द्रीय बीजेपी नेतृत्व और मुख्यमंत्री को बहुत जल्द बड़े फैसलों और योजनाओं से मणिपुरवासियों का दिल जीतना होगा, जो आसान काम नहीं है.
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