लखनऊ: अमेठी और रायबरेली के बाद समाजवादी पार्टी (SP) और कांग्रेस गठबंधन के बीच लखनऊ और कानपुर की कुछ सीटों पर भी पेंच फंस गया है. कांग्रेस आलाकमान के आदेश के बावजूद कई उम्मीदवारों ने अपना नाम वापस लेने से इंकार कर दिया है. भले ही ये दावा किया जा रहा है कि यूपी को अखिलेश यादव और राहुल गांधी का ये साथ पसंद है, लेकिन जमीनी स्तर पर दोनों पार्टियों के बीच कई जगहों जंग जारी है.
लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर और बहराइच जिले की कई सीटों पर SP और कांग्रेस के उम्मीदवार आमने सामने हैं. कुछ सीटों पर विवाद इस कदर बढ़ गया है कि उसके निपटारे के लिए दोनों पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व में बातचीत के बाद साधा प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई.
दोनों पार्टियों के बीच हुए समझौते के मुताबिक कांग्रेस ने लखनऊ मध्य, बिन्दकी, सोरांव, प्रयागपुर और छानवे सीट से अपने उम्मीदवार वापस ले लिए हैं. जबकि SP ने महाराजपुर, कानपुर कैंट, कोरांव, बारा और महरौनी सीट से अपने उम्मीदवार वापस लेने का एलान किया है. हालांकि कई उम्मीदवारों ने कांग्रेस आलाकमान के आदेश को मानने से इंकार कर दिया है.
समझौते के बावजूद क्यों फंसा पेंच ?
गठबंधन समझौते के मुताबिक SP को 298 और कांग्रेस को 105 सीटों पर चुनाव लड़ना था. लेकिन 17 सीटें ऐसी थी जिस पर दोनों पार्टियों ने अपने उम्मीदवार पहले से ही तय कर दिए थे. इन्हीं सीटों को लेकर मामला फंस गया है. कानपुर कैंट सीट पर कांग्रेस के सोहेल अंसारी SP के हारून रूमी को टक्कर देने उतर गए.
तो लखनऊ मध्य सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार तय होने के बावजूद SP के रविदास मेहरोत्रा ने नामांकन भर दिया. इसी तरह रायबरेली की सरैनी सीट पर SP के देवेन्द्र प्रताप सिंह को चुनौती देने कांग्रेस के अशोक सिंह उतर आए, बलरामपुर सीट पर SP के गुरुदास सरोज के खिलाफ कांग्रेस के शिवलाल चुनावी मैदान में उतर गए हैं.
अंदर की बात ये है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की फ्रेंडली फाइट भी गठबंधन की रणनीति का अहम हिस्सा है. दोनों पार्टियों ने जिन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, वहां रणनीति ये है कि कांग्रेस या SP में से कोई उम्मीदवार ऐसा हो, जो विरोधी उम्मीदवार के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा सके. इससे वोटों का बंटवारा होगा, जिसका फायदा कांग्रेस या SP में से किसी ना किसी को तो जरूर मिलेगा. हालांकि इस रणनीति में ये खतरा भी है कि कहीं SP और कांग्रेस के उम्मीदवार आपस में वोट कटवा ना बन जाएं.