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UP Election 2017 : क्या मोदी की रैलियों ने माहौल बदला है ? पढ़ें- पहले चरण की ग्राउंड रिपोर्ट

मेरठ.  यूपी  विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 73 सीटों के लिए हुए मतदान को लेकर बीजेपी की सारी रणनीति धरी की धरी रह गई. लेकिन पार्टी के लिए राहत वाली बात यह रही कि पीएम मोदी की रैलियों की वजह से माहौल बदल गया.
वोटरों के मिजाज से अंदाजा लगाया जा रहा है कि इस चरण में बीजेपी ने विरोधियों को अच्छी टक्कर दी है लेकिन लोकसभा चुनाव 2014 की तरह वैसी लहर भी नहीं दिखाई दी. यह कहना थोड़ा जल्दबाजी होगी कि बीजेपी इन इलाकों से कितनी सीट जीत रही है.
इतना तो तय है कि पार्टी ने यहां पर बाकी दलों से अच्छी खासी बढ़त बना ली है.पहला चरण हर लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था क्योंकि यह अब आगे चरणों में मुस्लिम वोटों को काफी प्रभावित करेगा जिनका वोट बैंक हर लिहाज से निर्णायक है. बात करें बीएसपी की तो इस बार यहां पर यह पार्टी भी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है.
इसकी सबसे बड़ी वजह 97 मुस्लिम प्रत्याशियों और कुछ ब्राह्णमण नेताओं को टिकट हो सकते हैं. जिनमें रामवीर उपाध्याय, श्याम सुंदर शर्मा, मधुसूदन शर्मा प्रमुख हैं.
मायावती इस चरण के लिए प्रत्याशियों के चयन में जातिगत समीकरणों का पूरा ध्यान रखा है जो सपा-कांग्रेस के गठबंधन से उन्हें आगे काफी आगे ले जा सकता है.
लेकिन इन सबके बीच पीएम मोदी की रैलियां इस इलाके में सब पर भारी पड़ी है जिन्होंने बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने में पूरी मदद की है. दरअसल विरोधी नेता इस बार फिर पीएम मोदी के भाषणों के काट नहीं ढूढ़ काट पाने में नाकाम साबित रहे.
और न चाहते हुए भी पीएम मोदी एक बार फिर से प्रचार का केंद्र बन गए.  जहां बाकी नेता जातिगत समीकरणों साधने में जुटे हुए थे वहीं अकेले मोदी हर रैली में विकास की बात करके रहे.वह वोटरों को यह समझा रहे थे कि वह यूपी में किस तरह से अच्छे दिन ला सकते हैं.
जब विरोधी उन पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाते तो मोदी बजाए इस बात का जवाब देने की बजाए विकास की बात करने लगते और वह बार रैली में खुद को 20 साबित करते नजर आए.
इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि बिहार में हुई हार से सबक लेते हुए बीजेपी ने यूपी में प्रचार का अभियान उसी लाइन से शुरू किया जहां से लोकसभा-2014 का चुनाव खत्म हुआ था.
यानी सोशल इंजीनियरिंग के साथ-साथ नरम हिंदुत्व और विकास का एजेंडा प्रचार अभियान में शामिल किया गया. बिहार के चुनाव में बीजेपी नेता हिंदुत्व की बात करने में घबरा रहे थे और वहां पर वह जातिगत समीकरणों में उलझ रह गए.
वहीं बात करें सपा- कांग्रेस गठबंधन की तो परिवार में हुए झगड़े के बाद अखिलेश यादव के पक्ष में जो सहानुभूति हुई थी उसे वह सपा बनाए रखने में कामयाब नहीं हो पाई.
विकास की जो छवि अखिलेश यादव ने प्रचार में बनाने की कोशिश की थी उसे वह प्रत्याशियों के चयन और कमजोर प्रचार अभियान के चलते गंवाते नजर आए.
ग्राउंड रिपोर्ट की मानें तो विकास की जिस छवि के बूते अखिलेश गैर-यादव वोटरों को लुभाने में कामयाब होते नजर आ रहे थे वह इस बार इस चरण में बीजेपी के पाले में जाते दिखाई दे रहे हैं.
यानी 90 के दशक में जो वोट बैंक कल्याण सिंह की वजह से बीजेपी को मिलता था अब वह फिर दोबारा जुड़ता दिखाई दे रहा है. अब इसकी
वजह मोदी की रैलियां भी हो सकती हैं तो कहना गलत न होगा. इसका कारण बीजेपी के ओबीसी नेता भी हो सकते हैं.
लेकिन बीजेपी के लिए अगर कोई सबसे बड़ा नुकसानदायक साबित हो सकता है तो वह राष्ट्रीय लोकदल है. चौधरी अजित सिंह ने इस  बार जाटों को समझाने में कामयाब होते नजर आ रहे हैं.
हरियाणा में जाट आरक्षण की आग इस इलाके में बीजेपी को झुलसा सकती है. लेकिन इस वोट बैंक का युवा वोटर अभी भी मोदी की रैलियों से प्रभावित हैं और इनका समर्थन मोदी के ही पक्ष में जाता दिखाई दे रहा है.
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