लखनऊ : बहुमत के दम पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भले ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हों लेकिन कानूनन इसकी मान्यता नहीं है.
लखनऊ : बहुमत के दम पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भले ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हों लेकिन कानूनन इसकी मान्यता नहीं है.
समाजवादी पार्टी के संविधान के मुताबिक राष्ट्रीय अधिवेशन या कार्यकारिणी की बैठक बुलाने का अधिकार सिर्फ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पास है और अगर कोई खेमा असंतुष्ट होता है तो वह सबसे पार्टी के अध्यक्ष से चिट्ठी लिखकर कहता है कि अधिवेशन बुलाया जाए.
अगर ऐसा नहीं होता है तो ही वह स्वतंत्र रूप से पार्टी का अधिवेशन बुला सकता है. लेकिन समाजवादी पार्टी में जो कुछ हुआ वह नियमों के बिलकुल खिलाफ है और तकनीकी तौर पर अभी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ही हैैं.
कैसे होगा फैसला
अभी पार्टी में इसे विभाजन के तौर पर देखा जा सकता है. अखिलेश के गुट को चुनाव आयोग जाना होगा और उनको पार्टी के सिंबल पर अपना दावा ठोंकना होगा कि असली पार्टी उन्हीं की है. ऐसी स्थिति में आयोग देखेगा कि दोनों गुटों के समर्थन में कितने विधायक, सांसद और कार्यकारिणी के सदस्य हैं. इस प्रक्रिया में काफी लंबा वक्त लगता है या फिर मुलायम सिंह यादव अखिलेश यादव को अपना अध्यक्ष मान लें.
कोर्ट का भी रास्ता खुला, हो सकती है साइकिल ‘फ्रीज’
दोनों पक्षों मेें से किसी के भी खिलाफ अगर आयोग निर्णय सुनाता है तो वह कोर्ट भी जा सकता है. ऐसी स्थिति में पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल फैसला होने तक रद्द किया जा सकता है. जिसकी संभावना ज्यादा दिख रही है. अगर ऐसा हुआ तो दोनों गुटों को किसी नए निशान पर चुनाव लड़ना पड़ सकता है.
इतनी आसान नहीं होगी अखिलेश की राह
अखिलेश यादव के समर्थन में भले ही 200 से ज्यादा विधायक और भारी संख्या में समर्थनक दिखाई दे रहे हैं लेकिन विधानसभा चुनाव में उनकी राह बिलकुल आसान नहीं होगी. अगर वह अकेेले चुनाव लड़ेेंगे तो शिवपाल का गुट उनको तगड़ा नुकसान पहुंचाएगा.
लेकिन वह कांग्रेस, आरएलडी के साथ गठबंधन करते हैैं तो उनको 100 से 200 सीटों पर समझौता करना पड़ सकता है ऐसी स्थिति मेें उनके समर्थक जिनको टिकट नहीं मिलेगा वह शिवपाल के साथ जा सकते हैं.