राजीव गांधी होते तो क्या कांग्रेस इतनी कमजोर होती?

देश पर सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाली भारतीय कांग्रेस पार्टी आज बेहद कमजोर नजर आ रही है. एक समय पर देश की एकमात्र पार्टी नजर आने वाली कांग्रेस का इस स्थिति में पहुंचना कोई छोटी घटना नहीं है. अपनी मां को खोने और कांग्रेस की रीढ़ टूटने के बावजूद भी पार्टी को संभालने वाले राजीव गांधी अगर आज होते, तो क्या कांग्रेस की स्थिति यही होती?

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राजीव गांधी होते तो क्या कांग्रेस इतनी कमजोर होती?

Admin

  • August 20, 2016 12:48 pm Asia/KolkataIST, Updated 8 years ago

नई दिल्ली. देश में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बेहद कमजोर नजर आ रही है. लोकसभा, विधानसभा और उपचुनावों में भी हार के बाद कांग्रेस की पकड़ जनता के बीच से खिसकती दिखती है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी की भरपूर कोशिशें जारी हैं. पश्चिम बंगाल में वाम दलों से हाथ मिलाना हो या हर छोटे—बड़े मुद्दे पर सरकार को घेरना फिर भी कांग्रेस लोगों के बीच विश्वास नहीं बना पा रही है.

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एक समय पर देश की एकमात्र पार्टी नजर आने वाली कांग्रेस का इस स्थिति में पहुंचना कोई छोटी घटना नहीं है. इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता की हत्या के बावजूद भी कांग्रेस ने अपना आधार नहीं खोया था लेकिन राहुल गांधी तक पहुंचते—पहुंचते आखिर कांग्रेस का यह हश्र कैसे हुआ? अपनी मां को खोने और कांग्रेस की रीढ़ टूटने के बावजूद भी पार्टी को संभालने वाले राजीव गांधी अगर आज होते, तो क्या कांग्रेस की स्थिति यही होती? क्या आज कांग्रेस एक मजबूत नेतृत्व की कमी से गुजर रही है? राजीव गांधी की जन्मतिथि पर ये सवाल आज अपनेआप जहन में आ जाते हैं.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जहां पूरा परिवार डरा हुआ था, सोनिया गांधी, राजीव गांधी को राजनीति में कदम रखने से रोक रही थीं, फिर भी उन्होंने पार्टी के भार को अकेले अपने कंधे पर उठाया. कई उतार चढ़ावों से गुजर रही कांग्रेस तब 1984 के लोकसभा चुनावों में 542 में से 411 सीटें जीतकर भारी बहुमत से सत्ता में आई. इससे न केवल कांग्रेस को लोगों के बीच नया भरोसा मिला बल्कि उन्हें एक युवा नेता भी मिल गया. राजीव गांधी को उनके नये विचारों और तकनीक को प्राथमिकता देने के उनके प्रयासों ने अलग पहचान दिलाई. उन्होंने बाजार से लेकर तकनीक में सुधार की शुरुआत की. देश को विश्वस्तर पर लाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया.

लेकिन, इसके बाद भोपाल गैस कांड, शाह बानो मामले में सरकार की तुष्टिकरण की नीति और बोफोर्स कांड से राजीव गांधी की ईमानदार छवि को नुकसान हुआ. इनसे सरकार की लोकप्रियता गिरने से सरकार अगले चुनावों में हार गई और 411 से 197 सीटों पर पहुंच गई.

तब सबसे ज्यादा सीट पाने वाली पार्टी होने के बावजूद भी राजीव गांधी ने सरकार नहीं बनाई और विपक्ष में बैठे. उन्होंने कोई जोड़—तोड़ नहीं किए. उस समय वीपी सिंह ने भाजपा और लेफ्ट के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई. लेकिन, पीएम न बन पाने से दुखी चंद्रशेखर ने जनता दल को तोड़ दिया और नई पार्टी समाजवादी जनता पार्टी बनाई. कांग्रेस ने चंद्रशेखर को बाहर से समर्थन दिया. तब वीपी सिंह की सरकार 11 महीने ही चलकर गिर गई और कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. उस समय चंद्रशेखर को समर्थन देकर राजीव गांधी ने देश में फिर से चुनाव होने से रोक लिए. लेकिन, चंद्रशेखर सरकार भी केवल सात महीने ही चल पाई क्योंकि कांग्रेस ने राजीव गांधी की जासूसी कराने के आरोप में सरकार से समर्थन वापस ले लिया. इन स्थितियों में राजीव गांधी ने राजनीतिक तिकड़में न करने और जनता के प्रति ईमानदारी दिखाने के गुणों का परिचय दिया. जिसने उनकी छवि को और मजबूत किया.

अब फिर से लोकसभा चुनाव हुए और इनमें कांग्रेस के जीतने की पूरी संभावना बनने लगी. लेकिन, चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। इससे कांग्रेस को बड़ा झटका लगना स्वाभाविक था. पार्टी का भविष्य अधर में लटक गया. हालांकि, इसके बाद भी कांग्रेस वर्ष 1991 के चुनाव जीती और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. नरसिम्हा राव ने कांग्रेस को नेतृत्व तो दिया लेकिन वे खुद अपने नेतृत्व को लेकर डरे हुए थे. उन्हें डर था की कहीं कांग्रेस में नया नेतृत्व बनते ही उन्हें पीछे न धकेल दिया जाए. इसके लिए उन्होंने पार्टी में ही फूट डालनी शुरू की. इससे पार्टी अंदरूनी तौर पर कमजोर हो गई. उस समय अगर राजीव गांधी होते, तो शायद ऐसा न होता.

इसके बाद लगभग सात साल कांग्रेस सत्ता से बाहर रही और सरकारे बनतीं और बिगड़ती रहीं. लेकिन, साल 2004 में जब कांग्रेस वापस सत्ता में लौटी, तो भी वह कोई ऐसा नेतृत्व न प्रदान कर सकी जो लोगों पर अपना जादू कर सके. सोनिया गांधी को अपने विदेश मूल के कारण लोगों के बीच स्वीकृति न मिलने से मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया. उनकी छवि ईमानदार होने के बावजूद भी वह कभी पार्टी का चेहरा न बन सके. हमेशा मुखिया के तौर पर सोनिया गांधी ही नजर आईं.

अगर पार्टी और सरकार का नेतृत्व एक ही व्यक्ति करता तो स्थिति यह नहीं होती. पार्टी और सरकार दोनों में सामंजस्य होता. जैसा की कांग्रेस के इतिहास में देखने को मिलता है. राजीव गांधी के बाद कांग्रेस को एक नई सोच व दृढ़ सिद्धांतों वाला कद्दावर युवा नेता और पार्टी के लिए एक मजबूत नेतृत्व नहीं मिल पाया. सोनिया गांधी पार्टी स्तर पर तो स्वीकृति रखती हैं लेकिन सरकार के स्तर पर नहीं. वहीं, राहुल गांधी आज दोनों ही स्तरों पर संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में कह सकते हैं कि राजीव गांधी या उनका जैसा नेतृत्व मिलने पर कांग्रेस की स्थिति कुछ अलग हो सकती थी.

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