नई दिल्ली. दो सेनाओं की क्रॉस फायरिंग में अक्सर ‘बेचारे’ ही फंसते हैं. यूपी में बीजेपी और बीएसपी के बीच मायावती के अपमान पर खिंची तलवारों से अब कांग्रेस को लहूलुहान होने का डर सता रहा है जो चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम मास्टरप्लान के सहारे यूपी में कायापलट की कोशिश में जुटी है.
यूपी में 1989 के बाद हाशिए पर जा पहुंची कांग्रेस ने 2017 के यूपी चुनाव में आखिरी दांव प्रशांत किशोर पर लगाया है. 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के प्रचार-रथ के सारथी और 2015 में बिहार में नीतीश कुमार की अगुवाई वाले महागठबंधन की जीत के सूत्रधार के तौर पर मशहूर प्रशांत किशोर यानी पीके यूपी में कांग्रेस के नए हीरो बनकर आए हैं.
‘पीके’ के मास्टरप्लान को पलीता ?
अब तक यूपी में कांग्रेस के रिवाइवल का जो प्लान पीके ने बनाया है, उससे ये साफ है कि वो यूपी में ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित वोटरों के दम पर कांग्रेस की वापसी कराना चाहते हैं लेकिन मायावती को बीजेपी से विदा किए जा चुके दयाशंकर सिंह की गाली के बाद अब कांग्रेस को डर सता रहा है कि कहीं पीके के प्लान को दया की गाली से लगी आग पलीता ना लगा दे.
बीएसपी-बीजेपी की जंग, कांग्रेस दंग
मायावती को दयाशंकर की गाली के बाद बीएसपी और बीजेपी की जंग के साइड इफेक्ट्स का डर कांग्रेस को कितना सता रहा है, इसका एहसास गुरुवार को संसद में हुआ. मायावती के अपमान के मुद्दे को कांग्रेस ने संसद में ज़ोर-शोर से उठाया.
कांग्रेस को लग रहा था कि इसी बहाने दलितों को ये संदेश तो मिलेगा कि कांग्रेस किसी दलित का अपमान बर्दाश्त नहीं करेगी, चाहे वो मायावती ही क्यों ना हों.
गुजरात में दलितों के साथ मार-पीट के मुद्दे पर मायावती ने कांग्रेस को भी ताना मारा था कि गुजरात में मुख्य विपक्षी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस दलितों की आवाज़ उठाने में पीछे रह गई. मायावती के अपमान का मुद्दा उठाकर कांग्रेस ने हिसाब बराबर करने की कोशिश की.
कांग्रेस की ग्रह दशा सुधरेगी क्या ?
अब मायावती के अपमान को मुद्दा बनाकर कांग्रेस यूपी में ‘पीके प्लान’ को कितना संभाल पाएगी, ये तो पता नहीं, लेकिन यूपी की राजनीति से वाकिफ लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस की ग्रह दशा एक बार फिर बिगड़ गई है.
यूपीः दलित-मुस्लिम-ब्राह्णण का गणित
दरअसल यूपी के 12 फीसदी ब्राह्मण वोटर हमेशा सत्ता के करीब रहने में दिलचस्पी रखते हैं, जबकि 18 फीसदी मुस्लिम वोटरों का रुझान 90 के दशक की शुरुआत से हमेशा उस पार्टी की ओर रहा है, जो बीजेपी को हरा सके.
1989 तक दलित वोट बैंक पर कांग्रेस का एकाधिकार था, जिसे कांशीराम की रणनीति और मायावती के तेवर ने छीन लिया. पिछले दो विधानसभा चुनावों में यूपी में जिस पार्टी को इन तीनों का साथ एक साथ मिला, उसकी पौ-बारह होती रही.
2007 में बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग वाली जीत दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण समीकरण का नतीजा थी. 2012 के चुनाव में सपा को भी लैपटॉप और बेरोज़गारी भत्ते वाली योजना का फायदा मिला था, जो अगड़ी जातियों, खासकर ब्राह्मणों के मन को भा गई थी.
पीके ने क्या सोचा था ?
इस बार यूपी में ब्राह्णमों के पास कोई सियासी सरमाया नहीं दिख रहा था. इसलिए कांग्रेस की नैया के खेवनहार बने पीके ने पहला दांव ब्राह्मणों पर ही चला.
दिल्ली की सत्ता से बेदखल कान्यकुब्ज कन्नौजी ब्राह्मण परिवार की बहू शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. सोच यही थी कि ब्राह्मणों को संदेश दिया जाए कि कांग्रेस ही उनकी असली संरक्षक है.
दूसरी कोशिश दलितों को कांग्रेस से जोड़ने की थी, जिसके लिए भगवती प्रसाद चौधरी को यूपी कांग्रेस की नई टीम में वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया. मुस्लिमों को रिझाने के लिए इमरान मसूद को वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में ‘बोटी-बोटी’ वाले भड़काऊ बयान के बाद सुर्खियों में आए थे.
पीके के प्लान में पंडित जी !
यूपी में कांग्रेस की रणनीति में ब्राह्णणों को तरजीह देने की वजह बड़ी साफ है. यूपी में ब्राह्णणों को आज भी सबसे ज्यादा प्रभावशाली वोट बैंक माना जाता है, जो एकजुट हुए तो अपने साथ 5-7 फीसदी वोटर दूसरी जातियों से खींच सकते हैं.
कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर यही सोचा है कि अगर ब्राह्मणों का झुकाव पार्टी की ओर हुआ, तो यूपी में ज़मीन चाहे ना बने, हवा तो बनेगी.
फिर ये भी हो सकता है कि हवा के बहाव में मुस्लिम वोटरों को ये संदेश मिल जाए कि यूपी में कांग्रेस मजबूत हो रही है. पूरे यूपी में ना सही, लेकिन जिन सीटों पर कांग्रेस थोड़ी भी मजबूत होगी, वहां मुस्लिम वोटर कांग्रेस के साथ तो जुड़ ही जाएंगे.
ये कोई अचंभे वाली बात भी नहीं है क्योंकि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी के मुस्लिम वोटरों के बहाव और झुकाव का अनुभव हो चुका था.
बीजेपी के दया ने कांग्रेस की दिक्कत बढ़ा दी ?
लेकिन बीजेपी के दयाशंकर की गंदी जुबान के बाद कांग्रेस की दिक्कतें बढ़ती हुई नज़र आ रही हैं. पीके और उनकी टीम को भी ये डर ज़रूर सता रहा होगा कि दलितों के जिस तबके का मायावती से मोहभंग हो रहा था और जिन पर कांग्रेस डोरे डाल सकती थी, कहीं वो दलित स्वाभिमान में बहकर मायावती के पाले में डट गए तो क्या होगा?
दलितों के बीएसपी के साथ एकजुट होने का मतलब यही होगा कि मुस्लिम वोटर कांग्रेस की बजाय बीएसपी में अपनी जीत खोजने लगेंगे. बचे ब्राह्मण तो अगर उनका बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ आ भी गया, तो होगा ही क्या? पीके का प्लान तो दलित-मुस्लिम के बिना फीका ही रह जाएगा.