नई दिल्ली. समलैंगिकता से जुड़ी धारा 377 की याचिकाओं पर सुनवाई पूरी हो गई है. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है. धारा 377 की वैधता से संबंधित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट पिछले सप्ताह से सुनवाई कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को आईपीसी की धारा 377 की वैधता से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि अगर इससे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो इसे रद्द भी किया जा सकता है. क्या दो वयस्कों की बीच सहमति से किया गया सेक्स अपराध है या नहीं, मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, ए. एम. खानविलकर, डी.वाई.चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की पांच जजों की संवैधानिक पीठ कर रही है.
बहस के दौरान ईसाई संस्थाओं ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, इस कानून में 3 चीजें शामिल हैं. धारा 377 में दो हिस्से हैं. पहला है शारीरिक संभोग, जो प्रकृति के तहत है और दूसरा उसके खिलाफ. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से कहा, किसी की जान लेने की धमकी देकर भी सहमति हासिल की जा सकती है. कोर्ट को यह नहीं कहना चाहिए कि यह प्रकृति के आदेश के तहत नहीं है. कोर्ट को शारीरिक संभोग की परिभाषा देनी नहीं चाहिए.
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि सहमति शब्द धारा 377 से गायब है और वह इस शब्द को प्रावधान में लाना चाहते हैं. जिरह के दौरान चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि ‘सेक्स’ और सेक्स की ओर झुकाव को लिंक मत कीजिए. यह एक निरर्थक प्रयास है. वहीं जस्टिस रोगिंग्टन ने कहा, जस्टिस रोगिंग्टन प्रकृति का नियम क्या है? क्या प्रकृति का नियम यही है कि सेक्स प्रजनन के लिए किया जाए? अगर इससे अलग सेक्स किया जाता है तो वो प्रकृति के नियम के खिलाफ है? हमने NALSA फैसले में सेक्स को ट्रांसजेंडर तक बढ़ा दिया है.
जस्टिस रोहिंटन ने कहा, अगर हम संतुष्ट हुए कि धारा 377 असंवैधानिक है और इससे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो इसे रद्द करना हमारा फर्ज है. मामले में वकील मनोज जॉर्ज ने कहा कि पारसी विवाह और तलाक कानून में अप्राकृतिक यौनाचार तलाक का आधार है. जस्टिस रोहिंटन इसे अच्छी तरह जानते हैं.
इस पर रोहिंटन ने कहा कि अप्राकृतिक यौनाचार को 377 का हिस्सा बनाया जा सकता है. बहस के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर 377 पूरी तरह चली जाती है तो अराजकता फैल जाएगी. आप अपनी यौन प्राथमिकताओं को बिना सहमति के दूसरों पर नहीं थोप सकते.
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