नई दिल्ली. कहा जाता है कि अगर पानीपत के युद्ध से ठीक पहले मराठों और भरतपुर के जाट राजा सूरजमल में मतभेद ना हुए होते तो भारत का इतिहास ही कुछ और होता. सूरजमल साथ नहीं आए और अहमद शाह अब्दाली की सेना के सामने मराठे टिक नहीं पाए और 1761 के उस युद्ध में जितना मराठों का कत्ले आम हुआ, वो ना पहले कभी हुआ था और ना बाद में कभी. इसी युद्ध में मराठों की तरफ से एक खास योद्धा लड़ा था, नाम था शमशेर बहादुर, मराठा इतिहास के सबसे वीर पेशवा बाजीराव प्रथम और मस्तानी का बेटा. युद्ध में हारकर घायल शमशेर जब अपने साथियों के साथ पानीपत से भरतपुर की तरफ पहुंचा तो राजा सूरजमल ने सारे मतभेद भुलाकर सारे मराठों को शरण दी और शमशेर तो आखिरी दम तक राजा सूरजमल के राज्य में ही रहा.
संजय लीला भंसाली की मूवी आई तब ज्यादातर लोगों को पता चला कि देश में कोई बाजीराव भी था, कोई मस्तानी भी थी और उसका कोई बेटा भी था. उस बेटे के नाम और धर्म को लेकर जो विवाद हुआ, वो भी इस मूवी ‘बाजीराव-मस्तानी’ के जरिए ही लोगों को पता लगा लेकिन मूवी खत्म हो जाती है और उसके बाद का इतिहास भी लोगों के लिए खत्म ही हो गया. लेकिन ऐसे में बाजीराव के कृष्ण और शमशेर की बहादुरी की दास्तान खत्म नहीं हो गई, बल्कि वो इतिहास के पन्नों में आज भी दबी पड़ी है और उसकी जिंदगी में अहम रोल निभाने वाले राजा सूरजमल की जयंती 13 फरवरी से बेहतर उन पन्नों पर से धूल हटाने का और कोई मौका नहीं.
14 जनवरी यानी मकर संक्रांति, शुभ दिन लेकिन 257 साल पहले देश भर में मराठा ताकत के पतन की कहानी इसी दिन लिखी गई थी, पानीपत के तीसरे युद्ध में जो 14 जनवरी 1761 को हुआ था. 18वीं शताब्दी में एक ही दिन में एक साथ इतनी मौतों का उदाहरण पूरी दुनियां में और कहीं नहीं मिलता. ये दिन था लगातार जीतों के बाद मराठों के दम्भ के चकनाचूर होने का, एक विदेशी अहमद शाह अब्दाली के साथ घर के भेदियों रोहिल्ला अफगानों और अवध के नवाब के गठजोड़ का और कई हिंदू राजाओं के किसी ना किसी वजह से युद्ध से दूर रहने का, साथ ही कभी अपनी तेजी के लिए विख्यात मराठा सेना के मुगल सेना जैसी लाव-लश्कर वाली सेना में तब्दीली के फैसले को गलत साबित होने का और इसके लिए उन्हें भारी कीमत देनी पड़ी.
शुजाउद्दौला के दीवान काशीराज ने इस युद्ध के लिए लिखा था, करीब चालीस हजार मराठा युद्ध बंदियों को काट दिया गया था. शुजाउद्दौला की मां ने उसे सलाह भी दी थी कि रोहिल्लों के खिलाफ तुम्हारे पिता सफदरजंग की फर्रुखाबाद के युद्ध में मदद की थी, तुम्हें मराठों का साथ देना चाहिए, लेकिन वो नहीं माना, जिसकी मराठों को उम्मीद ना थी. उम्मीद उन्हें ये भी नहीं थी कि मजबूत जाट राजा सूरजमल सदाशिव राव से नाराज होकर युद्ध में उनका सहयोग करने से हाथ खींच लेगा. जिसके चलते आस पास के इलाके के जाटों ने भी मराठों को सहयोग करने से मना कर दिया, अब्दाली ने जैसे ही मराठों की सप्लाई लाइन काटी, मराठे स्थानीय मदद के बिना एकदम पंगु हो गए. काफी भयंकर युद्ध हुआ और तमाम मराठा सेनापति इस युद्ध में मारे गए, और बाकी पकड़े गए और काट डाले गए.
इन्हीं मराठा योद्धाओं के बीच एक और मराठा-मुसलमान बड़ी वीरता से लड़ रहा था, लेकिन उसके पास कम सेना थी. वो केवल पांच हजार की घुड़सवार टुकड़ी का सेनापति था, नाम था उसका शमशेर बहादुर. मराठा सेना जहां हाथियों के सहारे लड़ने के चलते बुरी तरह मात खा रही थी, वहीं शमशेर बाजीराव पद्धति से तीव्र गति से दौड़ते घोडों से ही युद्ध में मोर्चा संभाल रहा था और शायद पूरी सेना वही तकनीक अपनाती तो कारगर भी रहता. उस वक्त तक सभी बड़े मराठा सेनापति मारे जा चुके थे, तब सुध ली गई शमशेर बहादुर की, बाजीराव-मस्तानी का वो बेटा जिसका नाम बाजीराव ने बड़े प्यार से कृष्णाराव रखा था, लेकिन पूना के पुरोहितों ने उसका उपनयन संस्कार इसलिए करने से मना कर दिया था क्योंकि वो एक मुसलमान मस्तानी की कोख से जन्मा था, बाजीराव उस वक्त पुरोहितों से भिड़ गया था, मस्तानी ने उसका नाम शमशेर बहादुर कर दिया था.
1740 में पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की मौत के बाद मस्तानी भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाईं. मस्तानी की मौत के समय कुल 6 साल का ही था शमशेर बहादुर उर्फ कृष्णाराव. अब तक की उसकी जिंदगी काफी मुश्किल भरी थी, कई बार उसे मारने की कोशिश की गई थी. ऐसे में सामने आईं काशी बाई, बाजीराव की पहली बीवी. वो बाजीराव की आखिरी निशानी था, पेशवा खानदान का चिराग था और काशी बाई मस्तानी से नाराज रहने के बावजूद कृष्णा से नाराज नहीं थी. उन्होंने उसे अपने महल में ही रहने बुला लिया और अपने ही बच्चों के साथ पाला. साथ ही पढ़े, साथ ही खेले और युद्ध का प्रशिक्षण भी साथ ही साथ लिया.
पानीपत के तीसरे युद्ध में यानी 1761 तक शमशेर बहादुर उर्फ कृष्णा राव 27 साल का हो चुका था, उसका निकाह हो चुका था और उसके एक बेटा भी था, अली बहादुर. काशी बाई ने उसे पेशवा का बेटा मानकर ही उसके हिस्से में बुंदेलखंड की कालपी और बांदा की जागीरें दे दीं थीं. बचपन में इतने तिरस्कार के वाबजूद उसने कभी विद्रोह की कोशिश नहीं की, मराठों और पेशवा खानदान के प्रति हमेशा वफादार रहा. तभी तो पानीपत के तीसरे युद्ध के समय वो अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ वक्त से पहले तैयार था. शायद वही अकेला योद्धा था जो आखिर तक अब्दाली और शुजाउद्दौला को छकाता रहा.
Bajirao Mastani son Krishna Rao
आखिर में वो बुरी तरह घायल हो गया तो उसके सैनिक उसे बचाकर ले भागे. भरतपुर के पास जाटों ने उनको शरण दी. राजा सूरजमल की सेना ने सैकड़ों मराठा सैनिकों को शरण दी, उनके घावों पर मरहम लगाया, शमशेर बहादुर और उनकी सेना को भी सूरजमल और उनकी रानी ने काफी मदद की. लेकिन शरीर के घाव काफी गहरे थे, उससे ज्यादा ये सदमा था कि पूरा मराठा साम्राज्य खत्म सा हो गया था, जिनके साथ वो पला बढ़ा खेला था, वो अब जिंदा नहीं थे. शमशेर की वहीं मौत हो गई और उसकी याद में महाराजा सूरजमल ने भरतपुर में ही एक मकबरा बनवा दिया. उस मकबरे में आज भी बाजीराव और मस्तानी के चित्र लगे हुए हैं. इधर शमशेर बहादुर की मौत के बाद बेटे अली बहादुर ने उसकी जागीरें संभाल ली और बांदा शहर के नवाब की पदवी ली, अली बहादुर का बेटा बाद में 1803 मे हुए अंग्रेज मराठा युद्ध में मराठों की तरफ से लड़ा भी था. इस तरह बेटे शमशेर उर्फ कृष्णा ने मरते दम तक अपनी मां मस्तानी के वचन की और पिता बाजीराव की विरासत की लाज रखी.
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