नई दिल्लीः इंदिरा गांधी की जिंदगी में 19 तारीख कुछ खास है, 19 नवंबर को रानी लक्ष्मीबाई की जयंती को वो पैदा हुईं और 19 जनवरी 1966 को पहली बार पीएम बनने के लिए उनके नाम को मंजूरी मिली. लेकिन इंदिरा का पीएम बनना मोदी की तरह ही काफी मुश्किल था, उस वक्त कांग्रेस के कुछ सीनियर लीडर्स नहीं चाहते थे कि पार्टी की कमान युवा और कम अनुभवी इंदिरा गांधी के हाथों में सौंपी जाए. ऐसे में उनके सपोर्ट में आया एक ऐसा 6-7 ताकतवर लोगों का एक ऐसा सिंडिकेट, जिसने बना दिया इंदिरा को पीएम और वो भी तब जब उस वक्त कांग्रेस का सबसे बड़ा दिग्गज खुद पीएम बनना चाहता था.
पहले जानिए कि उस सिंडीकेट में कौन कौन शामिल था. सबसे पहला नाम कामराज का, उस वक्त साउथ का सबसे ताकतवर नेता, 9 साल तक मद्रास (तमिलनाडु) का मुख्यमंत्री रहने के बाद केन्द्र में कांग्रेस के नेशनल प्रेसीडेंट की पोस्ट पर थे कामराज. दूसरा नेता था नीलम संजीवा रेड्डी, जो बाद में राष्ट्रपति बने. तीसेर थे एस के पाटिल, उस दौर में उन्हें मुंबई का किंग कहा जाता था, महाराष्ट्र की राजनीति पर अच्छी पकड़ थी. चौथे थे अतुल्य घोष, बंगाल कांग्रेस कमेटी के प्रेसीडेंट और एस निंजालिंगप्पा, मैसूर के चीफ मिनिस्टर, जो कामराज के बाद कांग्रेस के प्रेसीडेंट बने और इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया. कुछ और लोग भी थे, ये सिंडीकेट पार्टी में उन ताकतवर लोगों का था, जो हिंदी पट्टी के नहीं थे, लेकिन पार्टी पर इनकी पकड़ काफी मजबूत थी.
1964 में नेहरू जी की मौत के बाद पार्टी प्रेसीडेंट कामराज और उनके सिंडीकेट पर जिम्मेदारी आ गई कि पीएम किसे बनाया जाए. हालांकि ये तय माना जा रहा था कि मोरारजी देसाई ही बनेंगे. मोरारजी उस वक्त नेहरू के बाद उनके मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ और ताकतवर थे. लेकिन सिंडीकेट अपनी ताकत खोना नहीं चाहता था, और मोरारजी उनके लिए उपयुक्त उम्मीदवार नहीं थे, क्योंकि फिर पार्टी और सरकार दोनों के सर्वेसर्वा मोरारजी ही होते और उनसे कुछ भी कह पाने की हिम्मत किसी की नहीं थे. ऐसे में कामराज ने तीन दिन तक पार्टी की किसी भी मीटिंग पर रोक लगा दी, यानी 30 मई तक.
अपने पीएम बनने को लेकर लगभग निश्चिंत मोरारजी ने इन तीन दिनों में कुछ नहीं किया, लेकिन कामराज और उनकी सिंडिकेट ने खेल कर दिया. नॉन हिंदी पट्टी के सारे राज्यों, यहां तक कि यूपी और बिहार तक के नेताओं से संपर्क साधकर लाल बहादुर शास्त्री का नाम आगे कर दिया गया, जोकि केबिनेट और पार्टी में अपने सरल हृदय के लिए जाने जाते थे. एक जून को अकेले में कामराज ने मोरारजी देसाई से मुलाकात की और उन्हें समझाने में कामयाब हो गए कि बहुमत आपके पास नहीं है, हालांकि मोरारजी वोटिंग करवाना चाहते थे. इस तरह 1964 में शास्त्रीजी को पीएम बना दिया गया.
शास्त्रीजी की ताशकंद में संदिग्ध मौत के बाद, यानी 19 महीने बाद देश फिर उसी मोड़ पर आकर खड़ा हो गया कि अगला पीएम कौन? 11 जनवरी को शास्त्रीजी की मौत के दो घंटे के अंदर गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक पीएम जरुर बना दिया गया था. इस बार ना गुलजारी लाल नंदा पीएम की पोस्ट छोड़ना चाहते थे और ना ही इंदिरा गांधी. दोनों ही लोग पिछली बार इसे चूक गए थे. ऐसे में नेताओं के समर्थन की जरूरत थी, तो इंदिरा ने अगली सुबह किया किसी खास आदमी को फोन, वो आदमी जिसने इंदिरा को पीएम बनवाने में अहम भूमिका अदा की.
ये थे एमपी के सीएम द्वारका प्रसाद मिश्रा, इंदिरा के सलाहकार और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, मिश्रा रसूखदार कांग्रेसी नेता थे, इंदिरा के बाद उनके पास गुलजारी लाल नंदा का भी फोन आया. इतना तय था कि दोनों ही पीएम बनना चाहते हैं और कोई कोरकसर छोड़ना नहीं चाहते थे. दोनों उनसे समर्थन और सलाह दोनों चाहते थे. डीपी मिश्रा ने अपनी किताब ‘पोस्ट नेहरू इरा’ में इन बातों का जिक्र किया है. उन्हीं की सलाह पर इंदिरा ने जानबूझकर पीएम पद की अपनी उम्मीदवारी में देरी की. इंदिरा को पीएम बनाने की कमान संभाली डीपी मिश्रा ने, पहले कुछ चीफ मिनिस्टर्स से मीटिंग की. उन्हें राजी किया कि पहले कामराज से पूछा जाएगा कि अगर वो पीएम बनना चाहते हैं, तो उनको हम सपोर्ट कर सकतें हैं, लेकिन अगर कामराज राजी नहीं होंगे तो इंदिरा को सपोर्ट करिए.
इधर कोलकाता के अमूल्य घोष ने कमान संभाली कामराज को पीएम बनाने की, अमूल्य उस सिंडिकेट के नेता थे, जो गैर हिंदी भाषाई कांग्रेस नेताओं का ताकतवर ग्रुप था. कामराज ने कहा दिया नो हिंदी, नो इंगलिश, हाउ. दिलचस्प बात थी कि इंदिरा के पास समर्थन मांगने गुलजारी लाल नंदा भी जा पहुंचे, लेकिन इंदिरा ने पत्ते नहीं खोले, कहा अगर सब लोग आपको सपोर्ट करेंगे तो हम भी कर देंगे. इधर मोरारजी देसाई भी मैदान में आ गए. जो शास्त्री के वक्त कामराज के समझाने पर मान गए थे. 12 चीफ मिनिस्टर्स मोरारजी को रोकने के लिए इंदिरा के साथ आ गए, केवल यूपी की सीएम सुचेता कृपलानी और गुजरात के सीएम मोरारजी की होम स्टेट होने के चलते ही उनके साथ थे. ज्यादातर नेता नहीं चाहते थे कि मोरारजी पीएम बनें क्योंकि उनको कंट्रोल करना किसी के बस में नहीं था और इंदिरा सबको गूंगी गुडिया लगती थीं.
मोरारजी देसाई भी इस बार कोई कोर कसर छोड़ना नहीं चाहते थे, पिछली बार उनके साथ होमस्टेट गुजरात के ही लोग थे, लेकिन इस बार उन्होंने यूपी और बिहार के नेताओं से भी बात कर ली थी। उन्हें कामराज पर भी भरोसा नहीं था. ऐसे में कामराज ने अपना ट्रम्प कार्ड खेला, इंदिरा गांधी. नेहरू जब पीएम थे, तो इंदिरा ने अपने पति से तलाक लेकर उनके साथ रहना शुरू कर दिया था. बाद में इंदिरा उनकी पर्सनल असिस्टेंट की तरह हर काम में हाथ बंटाने लगी थी.
शास्त्रीजी की सरकार बनी तो इंदिरा को सूचना प्रसारण मंत्री बना दिया गया था. हालांकि दोनों के बीच कोई बेहतर ट्यूनिंग नहीं थी और वो इंदिरा को हटाना भी चाहते थे. ऐसे में शास्त्री की मौत की खबर के बाद इंदिरा ने अपने करीबी दोस्तों से सलाह मशवरा शुरू कर दिया. कामराज को लगता था कि मोरारजी देसाई को हैंडल करना आसान नहीं, लेकिन इंदिरा अभी युवा हैं, राजकाज की भी कम समझ है, सिंडिकेट उन्हें आराम से काबू में रख सकता है, इसी नाते उनका नाम बढ़ा दिया गया. मोरारजी देसाई ने सांसदों से वोटिंग की मांग की. दवाब बढ़ाने के लिए कामराज ने 16 में से 11 राज्यों के मुख्यमंत्रियों से समर्थन लैटर मंगा लिए. फिर भी वोटिंग करवाई गई, मोरारजी को सांसदों के 169 वोट मिले और इंदिरा को 355. बाहर आए कांग्रेसी सांसद तो लोगों ने पूछा लड़का हुआ या लड़की? यानी मोरारजी या इंदिरा? तो सांसदों का मुस्कराते हुए जवाब था- लड़की.
मोरारजी की पीएम बनने की हसरत फिर अधूरी रह गई थी. इंदिरा गांधी के नाम को 19 जनवरी 1966 के दिन पार्टी ने पीएम पद के लिए मंजूर कर लिया. इंदिरा के सपोर्ट में गुलजारी लाल नंदा ने भी अपना नाम वापस ले लिया, एस के पाटिल और नीलम संजीवा रेड्डी भी पीएम पोस्ट के लिए कोशिश कर रहे थे. यूं तो इंदिरा ने पांच दिन बाद यानी 24 जनवरी को पीएम पद की शपथ ली. लेकिन 19 जनवरी से ही वो सिंडिकेट की निगरानी में आ गई थीं. इन पांच दिनों में सिंडिकेट के ताकतवर सदस्यों ने समझा दिया था कि उनको सरकार कैसे चलानी है, क्या क्या ऐसी बातें या मुद्दे हैं, जिनकी पार्टी या सिंडिकेट से बिना मंजूरी या चर्चा किए फैसले नहीं लिए जाने हैं.
19 जनवरी ही वो तारीख थी, जिस दिन से पीएम के रूप में देश को वो इंदिरा गांधी मिली, जिसे अगले कुछ सालों तक ‘मोम की गुड़िया’ कहा जाने लगा. इंदिरा खामोश रहती थीं और सिंडिकेट के सदस्य ही बड़े मामलों में मीडिया से बात करते थे. 1967 के चुनावों में इसका असर दिखा, हालांकि कांग्रेस चुनाव जीती, लेकिन वोटिंग परसेंटेज काफी गिर गई. अकेले दिल्ली में ही सात में से छह सीटों पर जनसंघ जीता, गुजरात की 24 में से 13 सीटें और राजस्थान की 20 से में आठ, तमिलनाडु की 39 में से 26 सीटें डीएमके ने जीत लीं. उड़ीसा और बंगाल में भी ऐसा ही हाल था.
सवाल इंदिरा पर उठे और इंदिरा सिंडिकेट से परेशान थीं, साथ ही डिप्टी प्राइम मिनिस्टर मोरारजी देसाई से भी. यहीं से एक नई इंदिरा का उदय हुआ और वो फैसले लेने लगीं, कई मामलों में सिंडिकेट को भनक तक नहीं लगती थी. दोनों के बीच तनाव बढ़ने लगा, अच्छा काम ये हुआ कि 1967 में कामराज विधायक का चुनाव भी हार गए. मैसूर के पूर्व सीएम निंजालिंगप्पा कांग्रेस के नेशनल प्रेसीडेंट बने. कामराज 2 साल बाद बाई इलेक्शन में लोकसभा सीट जीत कर संसद में आए. लेकिन इंदिरा और सिंडिकेट के बीच मामला बढ़ता गया और निंजालिंगप्पा ने इंदिरा को पार्टी से निकाल दिया.
तब इंदिरा ने नई पार्टी कांग्रेस (आर) का ऐलान कर दिया, उनको इलेक्शन कमीशन ने कांग्रेस का सिम्बल भी नहीं दिया. उन्हें गाय का दूध पीता बछड़ा पर चुनाव लड़ना पड़ा. 71 के चुनावों में इंदिरा की बड़ी जीत हुई, उसके बाद इलेक्शन कमीशन ने उसी पार्टी को असली कांग्रेस की मान्यता दे दी, सिंडीकेट बिखर गया. उसके बाद उसी साल बांग्लादेश की आजादी को लेकर पाक से हुई जंग में मिली जीत से इंदिरा को मोम की गुड़िया या गूंगी गुड़िया कहने वालों के मुंह भी बंद हो गए. लेकिन इंदिरा का खुद पर जो आत्मविश्वास बढ़ा, वो एक दिन में अहम में तब्दील हो गया और चार साल बाद लगी इमरजेंसी उसकी परिणति थी.
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