मराठा साम्राज्य का इतिहास बहुत पुराना है. छत्रपति शिवाजी ने जिस मराठा साम्राज्य की नींव डाली थी उसी पर महल भी बनाया गया. लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब समय ने करवट बदला और आपस में ही लड़ाई शुरू हो गई.
नई दिल्ली: छत्रपति शिवाजी ने जिस मराठा साम्राज्य की नींव डाली थी, उसी नींव पर महल खड़ा किया था पेशवाओं ने, खासकर बालाजी विश्वनाथ और बाजीराव प्रथम ने. बाजीराव प्रथम के जमाने में मराठाओं की पताका अटक से कटक तक फहराती थी, बाद में दो मौके ऐसे आए जब मराठों ने मुगल गद्दी पर भी अपनी पसंद का बादशाह तय किया. लेकिन पानीपत के तीसरे युद्ध ने मराठा स्वाभिमान पर ऐसा कलंक लगाया कि मराठे ताकत ही नहीं साहस भी खो बैठे, तब महादजी शिंदे और नाना फड़नवीस ने आखिरी कोशिशें कीं, लेकिन मराठा साम्राज्य ढहता चला गया. इसी दौर में आपस में झगड़ रहे मराठों ने एक पेशवा तक का कत्ल कर दिया और दूसरे ने अपने मुख्यमंत्री के दवाब में आत्महत्या कर ली.
जिस मराठा सरदार ने अहमदशाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह को हराकर सरहिंद पर कब्जा किया था, वही पानीपत के तीसरे युद्ध से बच निकला. दरअसल उसने सदाशिवराव भाऊ के सामने कुछ शर्तें रख दीं, जिन्हें पूरी कर पाना कठिन था. इस मराठा सरदार का नाम था रघुनाथ राव उर्फ राघोबा, बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मौत के बाद वो खुद पेशवा बनना चाहता था. लेकिन जब उसके भतीजे माधव राव प्रथम के नाम का ऐलान पेशवा की गद्दी के लिए हुआ तो वो बिफर गया. माधव राव चतुर था, हौसले वाला भी, कम उम्र का होते हुए भी वो चाचा राघोबा की चालों को नाकाम करता रहा. लेकिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था, अचानक 1772 में माधवराव की मौत हो गई. राघोवा ने फौरन पेशवा पद की गद्दी पर अपनी दावेदारी ठोक दी. लेकिन मराठों ने माधव राव के भाई नारायण राव को पेशवा बनाने का ऐलान कर दिया तो राघोबा भड़क उठा.
राघोबा ने एक ऐसा षडयंत्र रचा कि अगले साल ही यानी 1773 में युवा पेशवा नारायण राव को अपनी आंखों के सामने मरवा डाला. उस वक्त तक नारायण राव संतानहीन था, ऐसे में पेशवा का पद भी राघोवा को ही मिलना तय हो गया. हालांकि कोई नहीं चाहता था. लेकिन राघोबा ने खुद को पेशवा घोषित कर दिया. इधर एक मराठा सरदार नाना फड़नवीस धीरे धीरे मजबूत हो रहा था, उसे राघोबा का पेशवा बनना बिलकुल पंसद नहीं था. नारायण राव की पत्नी गंगाबाई गर्भवती थी, 18 अप्रैल 1974 को उसके बेटा हुआ तो नाना फड़नवीस ने राघोबा के विरोधियों से हाथ मिलाकर नवजात बच्चे माधवराव नारायण 40 दिन का होने पर ही 28 मई को पेशवा घोषित कर दिया.
राघोबा को फिर जलालत झेलनी पड़ी. नाना फड़नवीस ने 12 लोगों की एक समिति बना ली, जिसे बारभाई नाम दिया गया. नाना फड़नवीस उस समिति के प्रधान के रूप में बालक माधवराव नारायण के नाम पर शासन चलाने लगा, इधर राघोबा अंग्रेजों की शरण में चला गया. अंग्रेजों ने उसी के खर्चे पर अपने सैनिक उसे दे दिए. इसके चलते प्रथम अंग्रेज मराठा युद्द 1775 में शुरू हुआ जो 7 सालों यानी 1782 तक चलता रहा. नाना इसमें विजयी रहा. राघोबा को इस युद्ध के बाद पेंशन दे दी गई, अगले साल उसकी मौत हो गई.
इधर नाना फड़नवीस का विरोध महादजी शिंदे या सिंधिया की तरफ से भी होना शुरु हो गया था. दोनों में काफी दिनों तक तनातनी रही थी. लेकिन 1794 में महादजी की मौत के बाद नाना फड़नवीस का मराठा साम्राज्य पर एकछत्र राज्य हो गया था, पेशवा अभी युवा था. इधर नाना लगातार मराठा साम्राज्य का पुराना गौरव लौटाने के काम में जुट गया, टीपू सुल्तान को हराया, निजाम को भी हराया. लेकिन उसका युवा पेशवा पर कठोर नियंत्रण था, जिसे युवा पेशवा माधवराव नारायण सहन नहीं कर पा रहा था. एक दिन उस युवा पेशवा ने आत्महत्या कर ली, पूरे मराठा इतिहास में किसी पेशवा या मराठा योद्धा द्वारा आत्महत्या का ये पहला मामला था.
तक तक पेशवा पद वंशानुगत ही हो चला था, ऐसे में पेशवा के खानदान का एक ही चिराग जीवित बचा था, वो था राघोबा का बेटा बाजीराव द्तीय. राघोबा की तरह वो भी नाना फड़नवीस से उतनी ही नफरत करता था, लेकिन मराठों के विरोध के चलते उसको पेशवा बनाना पड़ गया. पेशवा बाजीराव द्तीय और मुख्यमंत्री नाना फड़नवीस दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ चालें चलते रहते थे. मराठा साम्राज्य का पतन यहीं से शुरू हो गया था, नाना फड़नवीस ने आखिरी कोशिश मराठा अस्मिता की रक्षा के लिए की थी. लेकिन 13 मार्च 1800 को नाना फड़नवीस की भी मौत हो गई और एक अयोग्य पेशवा बाजीराव द्तीय मराठा साम्राज्य का प्रमुख बन गया था.
नाना फड़नवीस के मरते ही मराठे सरदार बेलगाम हो गए, दौलत राव शिंदे और जसवंत होल्कर आपस में लड़ने लगे। दोनों पेशवा को अपने नियंत्रण में लेना चाहते थे, दोनों ने पूना के बाहर युद्ध शुरू कर दिया. पेशवा ने शिंदे को समर्थन दिया लेकिन होल्कर की सेना ने दोनों की संयुक्त सेना को हरा दिया. तब बाजीराव द्तीय ने वो काम किया, जिसने मराठों की स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया, वो अंग्रेजों के पास चला गया। 31 दिसम्बर 1802 को उसने अंग्रेजों के साथ बसई की संधि की. इसमें कई अपमानजनक शर्तें उसने मान लीं, जैसे अंग्रेजी सेना का पूना में रखना, इतना बड़ा इलाका अंग्रेजों को देना जिससे अंग्रेजों की सेना का खर्च निकल सके, किसी दूसरे यूरोपियन की सेवाएं ना लेना आदि. इसी वजह से बाजीराव द्तीय को इतिहास का सबसे कायर मराठा बोला जाता है. इस बसई संधि से मराठा सरदार भड़क उठे, जिसकेस चलते दूसरा मराठा युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज जीत गए.
लेकिन बाजीराव द्तीय अंग्रेजों से भी रिश्ता नहीं निभा पाया, 1817-18 में उसने अंग्रेजों के खिलाफ भी मोर्चा ले लिया। लेकिन तब तक उसकी अपनी छवि अपने ही लोगों के बीच खराब हो चुकी थी. इधर अंग्रेज मराठों के इलाके में ही काफी मजबूत थे. इसी दौरान महार सैनिक कोरगांव में अंग्रेजों की सेना से पेशवा के खिलाफ लड़े, हर कोई इस कायर पेशवा के खिलाफ था. नतीजा ये हुआ कि अंग्रेजों ने इसे हराकर बंदी बना लिया और कानपुर के पास बिठूर भेज दिया. जहां 1853 में पेशवा की मौत हो गई, नाना साहब इसी के दत्तक पुत्र थे, जिन्होंने बाद में तात्या टोपे, मुगल बादशाह, रानी लक्ष्मी बाई आदि के साथ 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था.
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