नई दिल्ली. 2019 लोकसभा चुनाव अपने मुकाम पर पहुंचने वाला है. 19 मई को सातवें चरण का चुनाव है इसके चार दिन बाद यानी 23 मई को लोकसभा चुनावों के नतीजे आ जाएंगे. इस बीच मीडिया में एक्जिट पोल (Exit Polls) अलग-अलग चैनलों, अखबारों पर अलग-अलग दावें कर रहे हैं. हर बार नतीजों से पहले एक्जिट पोल और चुनावों से पहले ओपीनियन पोल मीडिया में छाये रहते हैं. आखिर क्या हैं ओपीनियल पोल और एक्जिट पोल? कैसे होती है इनकी गणना और क्या है इनका पूरा गणित. आइए समझते हैं कैसे काम करता है ओपीनियल पोल और एक्जिट पोल का पूरा सिस्टम.
ओपीनियन पोल और एक्जिट पोल में अंतर क्या है
ओपीनियन पोल जैसा कि नाम से ही जाहिर है लोगों की रायशुमारी के लिए किया जाता है. इसमें जो भी एजेंसी ओपीनियन पोल करवाती है वह वोटरों से आने वाले चुनावों में वो किस तरह से वोट करेंगे, किन मुद्दों और किन पार्टियों को तरजीह देंगे आदी बातों की जानकारी ली जाती है. वहीं एक्जिट पोल चुनाव में वोट डालकर बाहर आ रहे वोटर से सवाल-जवाब करता है. इसीलिए चुनावों के पहले आपको हर चैनल पर अलग-अलग संस्थाओं द्वारा करवाए गए ओपीनियन पोल दिखते हैं. वहीं चुनावों के बाद इन्हीं चैनलों पर एक्जिट पोल के आंकड़े दिखाए जाते हैं.
1965 के केरल विधानसभा चुनाव में हुआ था पहला एक्जिट पोल
सी वोटर, हंसा रिसर्च, सीएसडीएस, निल्सन, लोकनीति, चाणक्य जैसी संस्थाएं एक्जिट पोल और ओपीनियन पोल आयोजित करवाती हैं. इन संस्थाओं की अपनी टीम होती है जो हर लोकसभा सीट के हिसाब से रणनीति बनाती है. कई स्तरों पर एक लोकसभा सीट को बांटा जाता है. यह विधानसभा सीटों, उम्र वर्ग, शहरी-ग्रामीण, पेशेगत विभाजन आदी आधारों पर वोटर का विभाजन करते हैं. इसके बाद सैंपल साइज चुना जाता है. सैंपल साइज यानी सर्वे में शामिल होने वाले लोगों की कुल संख्या. यह संख्या अलग-अलग संस्थाओं में अलग होती है. अमूमन सैंपल साइज की संख्या 1500 से 50,000 तक होती है. सीएसडीएस ने भारत में सबसे पहले 1965 में केरल विधानसभा चुनावों में पहला ओपीनियन पोल किया था.
क्या है एक्जिट पोल का पूरा गणित
जैसा हमने बताया देश में अलग-अलग सर्वे एजेंसियां हैं. ये सर्वे कराने वाली प्रोफेशनल संस्थाएं हैं. ये अपना सर्वे कराती हैं और इसे मीडिया संस्थाओं को बेचती हैं. अब एक सर्वे एजेंसी कैसे एक्जिट पोल या ओपीनियन पोल सर्वे कराती है इसे समझें. हम 2019 लोकसभा चुनावों के उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करते हैं. देश भर की कुल 543 सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं जो सात चरणों में समाप्त होंगे. अब एक सर्वे एजेंसी सबसे पहले अपना सैंपल साइज चुनती है. सैंपल साइज यानी एजेंसी कितने लोगों से बात करेगी.
जैसे कोई एजेंसी यह तय कर सकती है कि वह कुल 50 हजार लोगों से बात करेगी जो इन 543 सीटों के वोटर होंगे. ऐसे में वह इन वोटरों का अलग-अलग आधारों पर विभाजन करेगी. इन्हें वह शहरी और ग्रामीण वोटरों में बांट सकती है. इन्हें वह पुरुष और महिला वोटर, अलग उम्र वर्ग के वोटरों (जैसे- 18-35 वर्ष, 35 से 60 वर्ष और 60 से ऊपर आदी ) वर्गों में बांट सकती है. सर्वे एजेंसी उन्हें जाति और धर्म के आधार पर भी बांट सकती है. इसी तरह विभाजन का आधार लोगों का पेशा, आय आदी हो सकता है. ऐसे ही विभिन्न आधारों पर सैंपल का वर्गीकरण सर्वे से पहले ही कर लिया जाता है.
इन आधारों पर किए जाते हैं एक्जिट पोल
सवाल: सर्वे में लोगों से सवाल पूछे जाते हैं जिससे उनका मत किस तरफ पड़ने की संभावना है इसका अंदाजा लगाया जाता है. अगर एक्जिट पोल सर्वे के सवाल हैं तो लोगों ने किसे चुना यह पता लगाने के उद्देश्य से सवाल तय किये जाते हैं. सवालों को तय करने के पीछे भी एक खास गणित काम करता है. सवाल छोटे और स्पष्ट होने चाहिए. सवाल ऐसे होने चाहिए जिसके जवाब से एजेंसी जरूरी आंकड़े निकाल सके. सवालों की संख्या भी 5 से 10 के बीच होती है. ऐसे सवालों का चयन करने की कोशिश की जाती है जिसका हां या ना में जवाब लिया जा सकता हो. सवाल लंबे और उलझाऊ न हों. हर सवाल से वोटर की प्रवृति, उसका मूड उसके पसंदीदा नेता या पार्टी का पता चलता हो. वोटर की अपनी समस्याओं को लेकर भी स्पष्ट राय लेने की कोशिश की जाती है कि वह वर्तमान सरकार को 5 में से या 10 में से कितने नंबर देता है. वोटर की मार्किंग भी इस ओर इशारा करती है कि वह वर्तमान सरकार से खुश है या नाराज.
पारदर्शिता: सर्वे एजेंसियां इस बात का ध्यान रखती हैं कि सर्व में शामिल लोग प्रमाणिक हैं. इसके साथ ही सर्वे प्रक्रिया सही तरीके से संपादित हो. ऐसा न हो कि एक व्यक्ति कई लोगों के लिए जवाब दे दे. इसलिए सर्वे एजेंसियां पेड वर्कर्स नियुक्त करती हैं जो अलग-अलग जगहों पर जाकर सर्वे करते हैं. उन्हें लिखित और अब तो डिजिटल प्रमाण भी देने होते हैं कि सर्वे करने वाले लोग उन इलाकों में सदेह पहुंचे थे जहां सर्वे हुआ.
प्रतिनिधित्व: 2019 लोकसभा चुनावों में भारत में लगभग 90 करोड़ वोटरों ने वोट डाला है. ऐसे में किसी सर्वे एजेंसी के लिए यह संभव नहीं है कि वह सभी लोगों से बात कर सके. ऐसे में एजेंसी यह कोशिश करती है कि वह लोकसभा सीटों को इस आधार पर बांटे और अपने सैंपल साइज का चयन इस तरीके से करे कि उसमें हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो जाए. जैसे फर्ज करें कि एक लोकसभा सीट जहां सर्वे होना है वहां का सैंपल साइज 1000 है. अब अगर इस लोकसभा सीट में 10 विधानसभा सीटें आती हैं तो इस सैंपल को इन 10 भागों में बांटा जाएगा. अगर इन 10 विधानसभा सीटों में मान लेते हैं 25 पंचायत हैं तो एजेंसी कोशिश करती है कि वह अधिकांश पंचायतों में अपने सर्वे एजेंट को भेज कर पंचायतों का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित करे. इस लोकसभा सीट के जातीय/धार्मिक गणित के आधार पर भी सैंपल को बांटा जा सकता है. प्रतिनिधित्व के प्रतिशत के आधार पर सैंपल साइज के प्रतिशत को भी बांट दिया जाता है. ताकि हर वर्ग के लोगों से सवाल पूछा जा सके. जो एजेंसियां इन सभी आधारों पर बांटकर अपना सैंपल चुनती हैं उनके एक्जिट पोल के ज्यादा सटीक होने की उम्मीद होती है.
जवाबों के आधार पर सर्वे का स्वरूप: सर्वे एजेंसी के सवाल पहले से तय होते हैं. सवालों के जवाब के आधार पर क्या आंकड़ें निकल सकते हैं इसका हिसाब-किताब भी सवालों के चयन के वक्त कर लिया जाता है. सर्वे पूरा होने के बाद एजेंसियां जवाबों का वर्गीकरण करती हैं. जवाबों के हिसाब से क्षेत्रवार, उम्रवार, जातिवार आदि आकंड़ें निकाले जाते हैं. इससे एजेंसी को यह अंदाजा लगता है कि वोटर का मूड किस तरफ है. आंकड़ें तैयार होने के बाद अलग-अलग मीडिया संस्थानों के साथ करार के तहत ये सर्वे बेचे जाते हैं. सर्वे चाहे वो एक्जिट पोल हो या ओपीनियन पोल एक अनुमान भर बताता है. कोई तयशुदा तौर पर यह दावा नहीं कर सकता कि उसके सर्वे 100 फीसदी सही साबित होगा.
अलग-अलग एजेंसियों के एक्जिट पोल में इतना अंतर क्यों?
यह बात समझने वाली है कि भारत में 2019 लोकसभा चुनावों में वोटर हैं 90 करोड़. बड़ी से बड़ी सर्वे एजेंसी का भी सैंपल साइज एक लाख से ज्यादा नहीं होता. ऐसे में 1 फीसदी वोटर के पास भी आज तक कोई सर्वे एजेंसी नहीं पहुंच पाई है. ऐसे में पूरे देश का मिजाज क्या है यह दावे के साथ कोई नहीं बता सकता. सर्वे एजेंसियां एक अनुमान जारी करती हैं. कई बार यह अनुमान असली नतीजों के करीब पहुंचता है तो कई बार तस्वीर बिल्कुल उल्टी भी हो जाती है. जिस सर्वे एजेंसी ने ऊपर लिखे गए आधारों का सच्चाई के साथ पालन किया होगा उसके नतीजे सत्य के आस-पास हो सकते हैं.
2014 में क्या हुआ था?
हर सर्वे एजेंसी का सैंपल साइज अलग होता है. उनके सर्वे पैटर्न में भी विविधताएं होती हैं. ऐसे में एक ही चुनाव के नतीजों के बारे में अलग-अलग सर्वे एजेंसियों की अलग-अलग राय होती है. उदाहरण के तौर पर 2014 लोकसभा चुनावों से पहले तमाम एक्जिट पोल ने दावा किया था कि बीजेपी नीत एनडीए को 225 से 270 सीटें मिलेंगी सिर्फ चाणक्य एजेंसी ने दावा किया था कि एनडीए को 340 सीटें मिल सकती हैं. पहले सभी चैनलों और विशेषज्ञों ने इस सर्वे का मजाक उड़ाया लेकिन नतीजों में एनडीए को 336 सीटें मिलीं. ऐसे में दस सर्वे एजेंसी में किसका तुक्का तीर बन जाए यह कोई नहीं जानता. हर सर्वे एजेंसी कोशिश जरूर करती है कि वह सटीक तस्वीर के ज्यादा से ज्यादा करीब पहुंचने की कोशिश करें.
एक्जिट पोल पर भरोसा करें या नहीं!
एक और बात यहां समझनी होगी कि जिन लोगों से सवाल पूछा जाता है उन्होंने किस मनोस्थिति में जवाब दिया है यह पता लगाने का कोई उपाय सर्वे एजेंसी के पास नहीं है. भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था है. ऐसे में कई लोग अपना मत गुप्त ही रखना चाहते हैं तो कई लोग पार्टियों के सक्रिय कार्यकर्ता हैं ऐसे में उनका जवाब उनकी निजी निष्ठा पर आधारित होता है. ऐसे कई कारक सर्वे के नतीजों में अंतर पैदा करते हैं. ऐसे में चुनाव के नतीजों को लेकर किसी सर्वे एजेंसी के दावे को न तो अंतिम मानना चाहिए न ही पूर्ण सत्य. इसे एक आंकलन के तौर पर देखा जाना चाहिए.
कई बार फेल हुए हैं एक्जिट पोल
मीडिया जिस तरह अतिरेक में इन एक्जिट पोल्स को परोसता है उससे टीआरपी तो मिल जाती है लेकिन बाद में एक्जिट पोल के असली नतीजों से मेल न खाने पर किरकिरी भी होती है. चुनावी दावों का यह खेल हर चुनाव में शुरू होता है और नतीजों के बाद खत्म हो जाता है. 2014 में भद्द पिटने के बाद 2019 में एक्जिट पोल एक बार फिर से पूरे जोर-शोर के साथ हाजिर हैं. आप भी चाय की चुस्कियों के साथ इसका मौज उठाइए अपना ब्लडप्रेशर मत बढ़ाइए. 23 मई 2019 को देश की जनता का क्या मत है यह सबके सामने होगा. तब तक एक्जिट पोल का बाजार गर्म रहेगा.
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