भीमा कोरेगांव में शौर्य दिवस मनाने पहुंचे दलितों पर हमला कर दिया गया. यहां उनकी गाड़ियां तोड़ डाली गईं और आगजनी की गई. इस मुद्दे पर दो दिन महाराष्ट्र में दलित संगठनों ने बंद बुलाया. जिस लड़ाई से लगभग सभी अंजान थे इस घटना के बाद सारे देश में इसकी चर्चा होने लगी. हम आपको बता रहे हैं इसका इतिहास.
नई दिल्ली. नए साल से महाराष्ट्र का भीमा कोरेगांव लगातार सुर्खियों में है. यहां शौर्य दिवस मनाने को लेकर शुरू हुआ विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. शौर्य दिवस पर करीब चार दर्जन गाड़ियां तोड़ डाली गईं. दो को आग के हवाले कर दिया गया और एक व्यक्ति की मौत हो गई. यह सब 200 साल पहले हुए युद्ध के परिणाम को लेकर हो रहा है. वह युद्ध जो अंग्रेजी सेना का पेशवा सेना के साथ हुआ था. इसमें पेशवा सेना की हार हुई थी और अंग्रेजी सेना ने जीत हासिल की थी. इसपर सवाल खड़ा हो रहा है कि अंग्रेजी सेना जीती थी तो शौर्य दिवस मनाने वाले कौन हैं और क्यों अंग्रेजी सेना की जीत का जश्न मना रहे हैं. आखिर क्या है यह विवाद और क्या है शौर्य दिवस इसके बारे में इनखबर आपको बता रहा है पूरा मामला.
पेशवा बाजीराव द्वितीय (बाजीराव मस्तानी वाले पेशवा बाजीराव नहीं) के शासनकाल में जातिवाद चरम पर था. यह वह दौर था जब दलितों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी टांगनी पड़ती थी और रास्ते पर चलने के लिए पीछे झाड़ू लटकानी पड़ती थी जिससे उनके पैरों के निशान रास्ते से मिटते जाएं. यानि उन्हें इंसान का दर्जा ही नहीं मिला हुआ था. जानवरों से भी बदतर हालात थे. रोजी रोटी के संकट में महारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी ज्वाइन कर ली. ईस्ट इंडिया कंपनी उन दिनों छोटे-छोटे राज्यों को प्रलोभन देकर या दबाकर अपना विस्तार कर रही थी. इसी दौरान पेशवा बाजीराव द्वितीय के राज्य को भी ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल करने की बात की गई. बाजीराव द्वितीय ने कंपनी से युद्ध करना बेहतर समझा.
बाजीराव द्वितीय के पास 20 हजार घुड़सवार और 8 हजार पैदल सैनिक थे. 31 दिसंबर 1799 को पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपनी सेना ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से लड़ने के लिए भेजी. इनका मुकाबला पुणे से करीब तीस किलोमीटर दूर भीमा नदी के पास हुआ. यहां अंग्रेजों ने महार सैनिकों को पेशवा सेना से युद्ध करने के लिए भेजा था. कप्तान फ्रांसिस स्टैंटन के नेतृत्व में, कंपनी के सैनिकों ने लगभग 12 घंटे के लिए अपनी स्थिति का बचाव किया. 1 जनवरी 1818 को आखिर पेशवा सेना को हार माननी पड़ी.
इस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने अपने उन सैनिकों की याद में जयस्तंभ बनाया जिन्होंने इस युद्ध में जान गंवाई थी. इस जीत को लेकर पुराने समय से ही जश्न मनाया जाता रहा है. 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर इस मेमोरियल पर पहुंचे थे. पेशवा की सेना में मराठा सैनिक भी थे. लेकिन इस युद्ध को लेकर कुछ इतिहासकारों का मत है कि महारों ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों से अपनी अस्मिता की लड़ाई जीती थी. ब्राह्मणों ने छुआछूत दलितों पर थोप दिया था इससे वो नाराज़ थे. जब महारों ने आवाज उठाई तो ब्राह्मण नाराज हो गए. इसी वजह से महार ब्रिटिश फ़ौज से मिल गए.
इस लड़ाई का जिक्र जेम्स ग्रांट डफ़ की किताब ‘ए हिस्टरी ऑफ़ द मराठाज़’ में भी मिलता है. जिसके अनुसार, भीमा नदी के किनारे हुए इस युद्ध में महार समुदाय के सैनिकों ने 28 हज़ार मराठों को रोके रखा. ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक, इस लड़ाई में पेशवा के 500-600 सैनिक मारे गए थे. भारत सरकार ने महार रेजिमेंट पर 1981 में स्टाम्प भी जारी किया था. 200 साल पुराने इसी युद्ध को लेकर भीमा कोरेगांव में युद्ध का माहौल बन गया. यहां दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा शौर्य दिवस के जश्न में विध्न डालने के आरोप लग रहे हैं. ताजा हालातों में इसे अंग्रेजों की जीत का जश्न बताया जा रहा है.
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