कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ तो लाखों कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। कुछ ने वेतन में कटौती कर दी। क्या इससे समस्या का समाधान हुआ, नहीं। यह सवाल देश के नामचीन उद्योगपति रतन टाटा ने उठाया था। उन्होंने कहा कि कंपनियों को संवेदनशील होना चाहिए। सालों आपकी कंपनी को बढ़ाने वालों को संकट के वक्त में बेहाल छोड़ देना, न समाधान और न मानवता है। कंपनी संचालकों को उनके लिए संभावनाओं पर काम करना चाहिए। कंपनी संपदा से नहीं, उसके समर्पित कर्मचारियों से बनती है। यही कारण है कि बगैर सरकार के सहयोग के, टाटा आज भी सबसे अच्छा और भरोसेमंद नाम बना हुआ है। सरकार को भी बेहतर जनहित की संभावनाओं ओर योजनाओं पर काम करना चाहिए।
चीन और कनाडा की सरकार ने इस पर काम किया है। नतीजतन, महामारी के इस दौर में भी इन देशों ने खुद को दूसरों से बेहतर साबित किया। टाटा जैसे चंद उदाहरण ही हैं। हमारे देश के बुरे हाल हैं। कारपोरेट सिर्फ अपने फायदे के लिए काम करता है। उसे किसी के जीवन से कोई सरोकार नहीं। वह आत्मा से नहीं, सिस्टम से चलता है। कारपोरेट के सिस्टम को चलाने वाले सिर्फ अपने लिए सोचते हैं, और मोटे पैकेज लेकर चलते बनते हैं। लोकतंत्र में वहां के नागरिक सरकार बनाते हैं। सरकार का कर्तव्य होता है कि वह सदैव अपने नागरिकों के हितों को सर्वोपरि रखकर काम करे। मगर अब कारपोरेट सर्वोपरि है क्योंकि उसके धन से सबकुछ चल रहा है।
वजह साफ है कि इन राज्यों में किसानों के लिए मंडियां भी हैं और किसानों के लिए व्यवस्थायें भी। बिहार से लेकर अन्य तमाम राज्यों में किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं है। जिससे वहां का किसान न अधिक कमाता है और न सक्षम है। सरकार कहती है कि उसने यह कानून बनाकर किसान के लिए बेहतर संभावनायें खोली हैं। वह अपने अनाज का भंडारण भी कर सकेगा और अच्छी कीमत पर कहीं भी बेच सकेगा। इससे आढ़ती का मुनाफा कम होगा। हमें भी पहली नजर में सरकार की बात सही लगी, मगर जब गहराई से जांचा, तो लगा कि इसका विरोध किसान ही क्यों करे? हम सभी क्यों नहीं?
हम खुद एक किसान परिवार से हैं। हमें पता है कि हम अपनी उपज को मंडी में भी बेचने नहीं जाते। एमएसपी से एक रुपये कम पर आढ़ती को खलिहान में ही बेच देते हैं। बदले में हमें अधिक सुविधा मिलती है कि आढ़ती ही उपज वहां से ले जाता है। यह उसका सिरदर्द होता है कि वह उपज को बारिश से बचाये और भंडारण करे। वह जरूरत पर अग्रिम भुगतान भी करता है।
उन्होंने यूरोप और अमेरिका के किसानों का उदाहरण देते हुए समझाया था कि वहां कारपोरेट ही खेती करवाता है मगर किसान बदहाल है। सरकार किसान को अनुदान के जरिए संबल देती है। सुषमा स्वराज ने कहा था कि मंडी और आढ़ती किसान के बैंकर होते हैं। उनकी मदद से ही किसान के घर में जश्न मनता है। दुखद है कि उनकी सरकार आने पर अब कारपोरेट की पैरवी हो रही है। किसान को सिर्फ सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं। उसे कारपोरेट का मजदूर बनाने की संसद से मुहर लग चुकी है। यह किया है, उसके उन नुमाइंदों ने, जिन्हें उसने अच्छे दिन की आश में चुना था।
यही कारण है कि आधा दर्जन राज्यों के किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं। देश के जागरुक लोग तथा मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस उनकी लड़ाई संसद से सड़क तक लड़ रहे हैं। यह लड़ाई सिर्फ किसान ही क्यों लड़ रहा है, हम सभी क्यों नहीं? हम सभी दीपिका, सुशांत, रिया और न जाने किस मदारी के खेल को न्यूज चैनल्स पर देखने में व्यस्त हैं, जिनसे देश को कुछ हासिल नहीं होने वाला।
आपको याद होगा, चंद महीने पहले जब आलू-प्याज की उपज आई थी, तो किसानों को दो रुपये किलो की भी कीमत नहीं मिली थी। जो किसान किराया लगाकर नासिक की मंडी में उपज ले गये, वहां पहुंचकर वो बरबादी का शिकार हुए। आलू-प्याज सड़कों पर फेककर चल दिये थे। इस वक्त आलू-प्याज 40 रुपये प्रति किलो हमें मिल रहा है। यही स्थिति टमाटर की हुई थी। अब टमाटर सौ रुपये प्रति किलो से अधिक है। किसान की उपज से असल में कमा कौन रहा है, व्यापारी? जी, क्योंकि वह किसान की उपज का भंडारण करने और किसान को अग्रिम भुगतान करने की हैसियत रखता है।
पंजाब-हरियाणा का किसान समृद्ध है, तो उसकी औसत सालाना आमदनी करीब 2.40 लाख से ढाई लाख के करीब है। बिहार के किसान की आमदनी 44 हजार रुपये मात्र है। उड़ीसा और बंगाल में और भी कम है। कारण पंजाब-हरियाणा में आढ़तियों की मदद से किसान मंडियों में अच्छी कीमत हासिल कर लेता है, जबकि बिहार जैसे राज्यों में मंडियां और आढ़ती व्यवस्था नहीं है। सरकार एमएसपी पर पूरी खरीद ही नहीं करती। इस कानून के बनने के बाद कृषि उत्पादों पर कारपोरेट का कब्जा हो जाएगा।
वह मनमानी खरीद भी करेगा और भंडारण भी। फिर वह मनमानी कीमत पर हमें ही बेचेगा। वह कारपोरेट फार्मिंग के जरिए खेतों पर भी कब्जा करेगा। किसान उसका मजदूर बनने को बाध्य होगा। किसान की उपज से वह हमें लूटकर मालामाल होगा। यह आशंका नहीं है बल्कि सत्य है, क्योंकि कारपोरेट सिर्फ अपने फायदे के लिए काम करता है। हम देख चुके हैं कि वह खुद को बनाने वालों को भी नौकरियों से निकालने में नहीं चूका।
जब कारपोरेट का सिस्टम खेत में उतरेगा, तो वह सिर्फ फसल के मुनाफे को काटेगा। वह किसान को वही देगा, जिससे उसे लाभ हो। वह भंडारण करके कृषि उपज को हम सभी को भारी भरकम कीमत पर बेचेगा क्योंकि कीमत पर कोई कानूनी नियंत्रण नहीं रह गया है। हमें खाना खाना है तो कारपोरेट के आगे उनकी कीमत देकर हाथ फैलाने होंगे। यही कारण है कि हमें किसान को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। इससे तो हम सभी के भविष्य का संकट खड़ा होगा। हम सभी को किसान का साथ देने को आगे आना चाहिए। अमेरिका-यूरोप के लोगों और सरकार ने कभी भी किसानों को अकेला नहीं छोड़ा है। यह राजनीति की नहीं, जनहित की लड़ाई है।
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)
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