Upper Cast 10% Reservation: नरेंद्र मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का बड़ा फैसला लिया है. लेकिन इस फैसले के साथ यह सवाल शुरू हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट में यह फैसला किस हद तक टिक सकेगा? बता दें कि संविधान के अनुसार यह फैसला असंगत है. ऐसे में इस फैसले से जुड़े विभिन्न पक्षों पर पढ़े यह रिपोर्ट.
नई दिल्ली. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने सोमवार को बड़ा चुनावी दांव चलते हुए सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया है. इस फैसले से आर्थिक रूप से कमजोर सर्वणों को सरकारी नौकरी में आरक्षण का लाभ मिलेगा. सवर्णों के आरक्षण के लिए संविधान में संशोधन लाए जाने की बात की जा रही है. लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि सवर्णों का 10 प्रतिशत आरक्षण सुप्रीम कोर्ट में कितना टिक पाएगा? बताते चले कि भारतीय संविधान के अनुसार 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. साथ ही सवर्णों के आरक्षण का यह मामला काफी पेचीदा है.
विशेषज्ञों की नजर में लोकसभा चुनाव 2019 से ठीक पहले सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा सवर्णों को लुभाने के लिए किया गया है. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि संविधान में 50 प्रतिशत से ज्यादा और आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का कोई प्रावधान ही नहीं है. ऐसे में मोदी सरकार को इस घोषणा के लिए संविधान में संशोधन करना होगा.
#UPDATE 10 percent reservation approved by Union Cabinet for economically weaker upper caste sections. Reservation approved in Govt jobs and education https://t.co/fu82M2xfoc
— ANI (@ANI) January 7, 2019
सरकार के लिए संविधान संशोधन करवा पाना भी काफी मुश्किल है. शीतकालीन सत्र मंगलवार को समाप्त हो रहा है. उसके बाद मोदी सरकार के हाथ में मात्र एक सेशन (बजट सत्र) बचेगा. ऐसे में सरकार सवर्णों के 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए अध्यादेश लेकर आएगी. अध्यादेश के बारे में आप जानते ही हैं कि अध्यादेश को 6 महीने के अंदर दोनों सदनों से पास करा कर राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी पड़ती है. ऐसे में मजबूत विपक्ष के सामने मोदी सरकार अपने आखिरी सत्र में अध्यादेश को पास करा पाएगी, कहना काफी मुश्किल है.
दूसरी ओर इस फैसले से मोदी सरकार को लाभ मिलने की बात कही जा रही है. एससी-एसटी एक्ट में 2018 में हुए संशोधन के बाद जो सवर्ण बीजेपी से नाराज बताए जा रहे थे, उनका विश्वास इस फैसले से फिर से जीता जाएगा. बता दें कि पिछले साल एससी-एसटी एक्ट में हुए संशोधन के बाद सवर्ण समाज के लोग बीजेपी से नाराज थे. जिसकी वजह से उन्हें 2018 के विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा.
सवर्णों का 10 प्रतिशत आरक्षण अदालत की दहलीज में टिकेगी, इसकी बहुत कम उम्मीद है. क्योंकि आरक्षण से संबंधित पिछले जितने भी मामले रहे है उनका अऩुभव यहीं बताता है. साल 2014 में लोकसभा चुनाव के साथ-साथ कई राज्यों में विधानसभा चुनाव भी थे. विधानसभा की परीक्षा से गुजरने से पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में क्रमश: जाट और मराठा के लिए आरक्षण की घोषणा की गई थी.
तब दोनों राज्यों में हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी. लेकिन आरक्षण का फायदा न तो लोगों को मिला और नहीं कांग्रेस सरकार को. 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण हो जाने के कारण कोर्ट ने दोनों ही राज्यों में सरकार के फैसले पर स्टे लगा दिया. साथ ही दोनों ही राज्यों में आरक्षण का अलख जगाने वाली कांग्रेस पार्टी की हार हुई.
राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पाटीदार के लिए आरक्षण दिए जाने वाले फैसले का भी यही हाल हुआ. संविदान साफ तौर पर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण की मंजूरी नहीं देती है. लेकिन तमिलनाडु एक मात्र ऐसा राज्य है, जहां 68 प्रतिशत आरक्षण है. लेकिन इसके लिए आरक्षण के फैसले को संविधान की अनुसूची 9 में रखी गई है. बता दें कि अनुसूची 9 में रखे गए विषयों पर सुप्रीम कोर्ट समीक्षा नहीं कर सकती है.
निष्कर्षत सोमवार को नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से घोषित किए गए सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को लागू करने के लिए सरकार सदन, कोर्ट से लेकर सड़क तक लंबी लंबाई लड़नी होगी. विशेषज्ञों की राय में इस फैसले में अभी बहुत लोचा है. क्योंकि आर्थिक रूप से पिछड़ापन अभी तय नहीं किया गया है.