नई दिल्ली. ट्रिपल तलाक बिल यानी एक बार में तीन तलाक कहकर शादी तोड़ने को अपराध बनाने वाला विधेयक अब राज्यसभा में लटका हुआ है और कांग्रेस समेत विपक्ष और बीजेपी का साथ देने वाली बीजेडी, एआईएडीएमके और टीडीपी जैसी पार्टियां भी इसे राज्यसभा की सेलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग पर अड़ी हैं. संसद के शीतकालीन सत्र का आखिरी दिन शुक्रवार है और अगर ये आज पास नहीं हुआ तो बजट सत्र तक के लिए लटका ही रहेगा. मोदी सरकार को अप्रैल में राज्यसभा में बहुमत मिलने का आसार है जब 60 के करीब सांसद रिटायर होंगे और उनकी जगह नए सांसद आएंगे. संभव है कि मोदी सरकार सेलेक्ट कमिटी में भेजने की विपक्षी मांग को नजरअंदाज करके अप्रैल में राज्यसभा में अपने बहुमत का इंतजार कर ले और फिर मॉनसून सत्र में बिल को पास कराकर 2019 के लोकसभा चुनाव का बिगुल फूंंक दे.
कांग्रेस के आनंद शर्मा ने राज्यसभा में तीन तलाक बिल पर चर्चा के दौरान इसे सेलेक्ट कमिटी में भेजने की मांग के साथ-साथ कमिटी के सदस्यों का नाम भी प्रस्तावित कर दिया और कांग्रेस चाहती है कि राज्यसभा में इस प्रस्ताव पर वोटिंग हो जाए. जाहिर है कि राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत है और वोटिंग हुई तो आनंद शर्मा का प्रस्ताव पारित हो जाएगा और फिर ये बिल राज्यसभा की सेलेक्ट कमिटी में चला जाएगा. सरकार इससे बचना चाहती है इसलिए फ्लोर मैनेजमेंट के तहत सदन की कार्यवाही भेंट चढ़ा दी गई. सरकार बहुत बुरी तरह घिर जाएगी तो भी सेलेक्ट कमिटी का प्रस्ताव वो खुद पेश करेगी ताकि कमिटी के सदस्यों के नाम तय करने में उसकी चले. कांग्रेस बिल में तीन साल की सजा के प्रावधान का विरोध कर रही है और वो चाहती है कि तलाक का सामना करने वाली महिलाओं के हित की गारंटी को कानून में स्पष्ट और मजबूत तरीके से रखा जाए. तो आखिर क्या होती है ये सेलेक्ट कमिटी और कैसे काम करती है, वो पढ़िए.
राज्यसभा की सेलेक्ट कमिटी- सेलेक्ट कमिटी सदन के सदस्यों की एक छोटी समिति होती है जिसमें कुछ सदस्य किसी खास मसले या विधेयक पर चर्चा करके अपनी रिपोर्ट राज्यसभा के चेयरमैन यानी उपराष्ट्रपति को देते हैं और उस रिपोर्ट पर राज्यसभा में बहस होती है. किसी विधेयक या मसले पर सेलेक्ट कमिटी का गठन सदन के किसी सदस्य के प्रस्ताव पर सदन के प्रस्ताव पारित करने से होता है चाहे वो प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हो या बहुमत से. विपक्ष के लिए सेलेक्ट कमिटी एक बड़ा हथियार है अगर सदन में उसका बहुमत हो. सेलेक्ट कमिटी के जरिए विपक्ष सरकार को उस बिल में अपनी पसंद के संशोधन के लिए मजबूर कर सकती है. राज्यसभा के नियम 125 के अनुसार सेलेक्ट कमिटी के पास मामला जाने के बाद इसमें शामिल लोग उस बिल के तमाम पहलुओं पर चर्चा करते हैं और फिर अपनी रिपोर्ट राज्यसभा के चेयरमैन को देते हैं.
डेडलाइन या तीन महीने के अंदर सेलेक्ट कमिटी को देना होता है रिपोर्ट- अगर सेलेक्ट कमेटी को डेडलाइन दी गई है तो वो उस तय सीमा में अपनी चर्चा पूरी करके रिपोर्ट देती है और अगर डेडलाइन ना दी गई हो तो फिर अधिकतम 3 महीने में उसे अपनी रिपोर्ट सौंपनी होती है. अगर डेडलाइन तक या 3 महीने की मियाद पूरी होने तक भी सेलेक्ट कमिटी अपना काम पूरा ना कर पाए तो फिर से सदन में प्रस्ताव पारित करके ही उसका कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है. जैसे ही सेलेक्ट कमेटी का काम पूरा हो जाता है तो वो भंग हो जाती है. भारत के अलावा ब्रिटेन आधारित वेस्टमिंस्टर सिस्टम अपनाने वाले ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में भी सेलेक्ट कमेटी होती है.
असहमति की बातें भी दर्ज होती हैं सेलेक्ट कमिटी की रिपोर्ट में- सेलेक्ट कमिटी की बैठक में 1 तिहाई सदस्यों की उपस्थिति जरूरी है और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो कमिटी के चेयरमैन को बैठक स्थगित या टालना पड़ता है. कमिटी अगर रिपोर्ट पारित करने में वोटिंग करती है तो बहुमत का फैसला कमिटी का रिपोर्ट माना जाता है लेकिन उस फैसले के खिलाफ रहे सदस्यों की असहमति की बातें रिपोर्ट में दर्ज करनी पड़ती है. अगर कमिटी में वोटिंग की नौबत आए और पक्ष-विपक्ष दोनों के वोट बराबर हो जाएं तो कमिटी का चेयरमैन निर्णायक वोटिंग करता है.
राष्ट्रपति इन हालात में बुला सकते हैं दोनों सदनों की विशेष बैठक
अगर कोई बिल एक सदन में पास हो जाए और दूसरे में लटक जाए और उसे लटके छह महीने से ज्यादा बीत जाएं तो उस हालात में राष्ट्रपति चाहें तो गतिरोध खत्म करने के लिए राज्यसभा और लोकसभा की संयुक्त बैठक बुला सकते हैं. इस बैठक में बिल पर वोटिंग कराई जाती है जिसका नतीजा दोनों सदनों का फैसला माना जाता है. अगर ट्रिपल तलाक बिल पर ऐसी स्थिति बनी तो सरकार के पास दोनों विकल्प हैं. एक तो वो अप्रैल तक राज्यसभा में अपने बहुमत का इंतजार कर ले या फिर 6 महीने बाद राष्ट्रपति के जरिए संसद का संयुक्त सत्र बुलवा ले. राष्ट्रपति सिर्फ मनी बिल और संविधान संशोधन बिल पर संयुक्त सत्र नहीं बुला सकते.
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