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जब मास्को में इंदिरा ने फेल कर दिया था लेफ्ट का मेगा प्लान

आजादी के बाद का दौर था, दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी. अमेरिका और सोवियत संघ के बीच कोल्ड वार जारी थी. ऐसे में पंडित नेहरू ने निर्गुट आंदोलन की अगुवाई की. लेकिन ये आसान नहीं था. उस वक्त देश के पास संसाधन नहीं थे, बड़े देशों से तकनीकी और वित्तीय मदद लिए बिना गुजारा मुमकिन नहीं था. ऐसे में पंडित नेहरू ने 1955 में सोवियत संघ की यात्रा की, लेकिन रुसी क्रांति के नायकों से प्रभावित भारत में लेफ्ट पार्टी के नेता नहीं चाहते थे कि नेहरू को इस यात्रा में कोई कामयाबी मिले. तब इंदिरा गांधी ने इस योजना को कैसे विफल किया, इसे उन्होंने अपनी एक करीबी दोस्त पुपुल जयकर से शेयर किया था, पूरे किस्से को पुपुल ने इंदिरा पर लिखी अपनी किताब में लिखा है.

दरअसल इंदिरा गांधी इलाहाबाद छोड़कर पंडित नेहरू के पास ही दिल्ली आ गईं थीं. नेहरू जी प्रधानमंत्री बने तो वो उनकी पर्सनल सेक्रेट्री के तौर पर काम करने लगीं, घर और ऑफिस में उनके सभी छोटे बड़े काम और उनकी देखभाल करने लगीं. ऐसे में उनका दखल सरकार के भी हर काम में हो गया था, जहां पिता को मुश्किल में देखतीं उसका हल निकालने की सलाह या आइडिया जरूर देतीं. कभी कभी तो बिना नेहरू की मर्जी के भी फैसले ले लेती थीं. चीन युद्ध के दौरान तेजपुर जाने का उनका फैसला ऐसा ही था.

1953 में जब इंदिरा सोवियत संघ की यात्रा पर अकेले गई थीं, तो वो उनके स्कूली सिस्टम से काफी प्रभावित हुई थीं, बच्चों के लिए काम करने वालीं कई संस्थाएं उनको काफी अच्छी लगीं थीं. वो वहां से सोचकर गई थीं कि ऐसी संस्थाएं भारत में भी शुरू करनी चाहिए. उसके बाद उनका दूसरा सोवियत दौरा हुआ 1955 में, जब पंडित नेहरू आधाकारिक दौरे पर सोवियत संघ पहुंचे. उन दिनों निकिता ख्रुश्चेव उन दिनों सोवियत रूस के प्राइम मिनिस्टर थे. नेहरूजी उनसे मदद मांगने में काफी झिझक रहे थे. सो बात आगे नहीं बढ़ पा रही थी. इंदिरा को अपने सूत्रों से ये भी पता चल गया था कि भारत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के नेता नहीं चाहते थे कि पंडित नेहरू से सोवियत रूस का कोई टाईअप हो, इसके लिए उन्होंने सोवियत सरकार को ब्रीफ भी किया था.

अंदर मीटिंग चल रही थी और बाहर सिटिंग रूम में इंदिरा गांधी नेहरूजी के इंतजार में बैठी थीं क्योंकि उसके बाद लंच होना था. अचानक ख्रुश्चेव किसी काम से मीटिंग रूम से बाहर आए तो उन्होंने इंदिरा को वहां बैठे देखकर अभिवादन किया तो इंदिरा ने पूछा कि मीटिंग कैसी चल रही है? ख्रुश्चेव ने साफ बताया कि मीटिंग ब्लॉक पड़ी है, कोई ज्यादा प्रगति नहीं है. इंदिरा ने बोल्ड फैसला लिया और ख्रश्चेव से कहा, कि ‘’आपको ये याद रखना चाहिए कि मेरे पिता इंडिया की आवाज हैं, और सीपीआई इंडिया का प्रतिनिधित्व नहीं करती’’. ख्रुश्चेव ये सुनकर अवॉक ही रह गए, लेकिन उन्होंने काफी गर्मजोशी से इंदिरा को भरोसा दिलाया कि जरूर कुछ अच्छा ही होगा और ये कहकर वो वापस मीटिंग में चले गए.

जब मीटिंग खत्म तो नेहरूजी और ख्रुश्चेव मुस्कराते हुए बाहर निकले, पता चला कि सोवियत रूस से भारत की गहरी दोस्ती की नींव उसी मीटिंग से पड़ गई थी. इंदिरा भी मीटिंग की कामयाबी की खबर जानकर काफी खुश हुईं, ख्रुश्चेव ने उन्हें एक मिंक कोट भी गिफ्ट में दिया और अगले कई सालों तक इंदिरा उसी मिंक कोट में कई फंक्शंस में नजर भी आईं. लैफ्ट पार्टियों द्वारा इतनी महत्वपूर्ण मीटिंग में देश की सरकार के खिलाफ जाना इंदिरा को अखर गया था, तभी तो चार साल बाद जब केरल में देश की पहली नॉन कांग्रेस सरकार ने लैफ्ट ने बनाई तो इंदिरा उसे बीच में ही गिराकर मानीं. जिसको लेकर उनकी अपने पति फीरोज से भी बिगड़ गई.

ये अलग बात है कि उन्हीं इंदिरा गांधी ने बिलकुल यही काम जो लैफ्ट ने उनके लिए किया था, मोरारजी देसाई के साथ तब किया, जब मोरारजी रूस के दौरे पर थे. इमरजेंसी के बाद इंदिरा की सरकार गिर गई और मोरारजी की अगुवाई में सरकार बनी. जब वो सोवियत रूस के दौरे पर पहुंचे तो इंदिरा की गुजारिश के मुताबिक वहां की सरकार ने मोरारजी की अगवानी तो भव्य की, उन्हें घुमाया, उनकी शान में कई फंक्शन उनके लिए रखे, लेकिन खाली हाथ लौटा दिय़ा. इस बात का जिक्र भी उनकी दोस्त पुपुल जयकर ने अपनी किताब में किया है.

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Aanchal Pandey

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