ये कांग्रेस प्रेसीडेंट इतने ताकतवर थे कि पीएम इंदिरा गांधी को ही पार्टी से निकाल दिया

कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एस निंजालिंगप्पा ने वहां की राजनीति में कांग्रेस को खड़ा किया था. इंदिरा को निंजालिंगप्पा द्वारा पार्टी से निकाले जाने वाली चुभ गई. उन्होंने तुरंत दोनों सदनों के संसद सदस्यों की बैठक बुलाई. तब कांग्रेस के 429 सांसदों में से 310 ने बैठक में भाग लिया और कांग्रेस दो भागों में बंट गई.

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ये कांग्रेस प्रेसीडेंट इतने ताकतवर थे कि पीएम इंदिरा गांधी को ही पार्टी से निकाल दिया

Aanchal Pandey

  • December 15, 2017 7:42 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

जितना कठोर फैसला लेने की हिम्मत इस कांग्रेस प्रेसीडेंट ने दिखाई, वैसी हिम्मत गांधी नेहरू परिवार के कांग्रेस अध्यक्षों के अलावा किसी और कांग्रेस अध्यक्ष ने नहीं दिखाई. साउथ के रहने वाले इस कांग्रेस नेता ने बतौर कांग्रेस प्रेसीडेंट इंदिरा गांधी के ही कांग्रेस पार्टी से निष्कासन का निर्णय ले लिया, जो पार्टी ही नहीं पूरे देश के लिए हैरतअंगेज था. खुद इंदिरा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई कांग्रेस प्रेसीडेंट उनके वजूद को इस तरह नकार कर उन्हें पार्टी से से ही निकाल सकता है, ये अलग बात है कि उसके बाद इंदिरा गांधी ने पार्टी तोड़कर नई पार्टी बना ली थी. इन महाशय का नाम एस निंजालिंगप्पा.

दरअसल निंजालिंगप्पा ने कर्नाटक की राजनीति में कांग्रेस को खड़ा किया था, वो मैसूर (अब कर्नाटक) राज्य के मुख्यमंत्री बने, आज उन्हें मेकर ऑफ मॉर्डन कर्नाटक बोला जाता है. ये उन्हीं नेताओं में से थे, जो कामराज प्लान के तहत चीफ मिनिस्टर की अपनी कुर्सी छोड़ पार्टी मजबूत करने के लिए केन्द्र की राजनीति में आ गए थे. 1968 में वो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने, लेकिन इंदिरा गांधी से उनकी भी नहीं बनी. इंदिरा गांधी के लिए 1967 के चुनावों में जीत और सिंडिकेट के नेताओं की हार के बावजूद मुश्किलें अभी खत्म नहीं हुई थी. कामराज भले ही चुनाव हार गए थे,  लेकिन अभी भी कांग्रेस प्रेसीडेंट पद पर उनके करीबी एस निंजालिंगप्पा थे. जिनको नहीं पता वो जान लें कि कांग्रेस के अंदर सिंडिकेट उन नेताओं का ताकतवर गुट था, जो गैरहिंदी भाषी थे और नेहरूजी की मौत के बाद लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को पहली बार पीएम चुनने के पीछे भी इन्हीं नेताओं का हाथ था. इनकी अगुवाई कर रहे थे के कामराज, जो अब कांग्रेस अध्यक्ष नहीं रहे थे. इंदिरा गांधी इस सिंडिकेट से टकराकर 1967 के चुनावों में फिर से प्रधानमंत्री चुनी जा चुकी थीं. लेकिन सिंडिकेट के दवाब में इंदिरा को मोरारजी देसाई को डिप्टी पीएम और फाइनेंस मिनिस्टर तो बनाना पड़ा था, लेकिन वो सहज नहीं हो पा रही थीं.

ऐसे में इंदिरा को एक मौका भाग्य से मिला, अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही भारत के राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन की मौत हो गई, वीवी गिरी उस वक्त वाइस प्रेसीडेंट थे, उनको कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया. सिंडिकेट चाहता था कि उनके बीच के ही नेता नीलम संजीव रेड्डी को प्रेसीडेंट बना दिया जाए, जबकि वो पहले से लोकसभाध्यक्ष थे. इंदिरा को ये डर था कि कहीं सिंडिकेट की पसंद का राष्ट्रपति बन गया तो कल को उन्हें गद्दी से उतारकर मोरारजी की ताजपोशी की जा सकती है. ऐसे में उन्होंने जगजीवन राम का नाम कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में रखते हुए गांधीजी के उस जन्मशती वर्ष में दलित को सर्वोच्च अधिकार देने के सपने की याद दिलाई. लेकिन सिंडिकेट के नेताओं के आगे इंदिरा गांधी की एक ना चली और नीलम संजीवा रेड्डी को कांग्रेस का ऑफीशियल प्रेसीडेंट बना दिया गया. वैसे भी बाबू के खिलाफ कई बातें चली गईं मसलन कई सालों से उन्होंने अपना रिटर्न तक फाइल नहीं किया था.
इधर वीवी गिरी ने प्रेसीडेंट की पोस्ट के लिए निर्दलीय ही नामांकन कर दिया. सीजेआई मौ. हिदायुल्लाह को कार्यवाहक राष्ट्रपति बना दिया गया. सिंडिकेट ने ये भी ऑफर किया कि गिरि को लोकसभाध्यक्ष बनाया जा सकता है. माना जाता है कि गिरी को खड़ा करने में परदे के पीछे से इंदिरा गांधी की ही भूमिका थी. इंदिरा ने अपनी चाल चली और बतौर लोकसभा में कांग्रेस सदस्यों का नेता होने के चलते कांग्रेस सदस्यों के लिए व्हिप जारी करने से साफ मना कर दिया. कुल 163 कांग्रेसी सासंदों ने वीवी गिरी को वोट दिया और कांग्रेस शासित 12 राज्यों में से 11 राज्यों में बहुमत भी रेड्डी को मिला.

इधर इंदिरा को आसानी सिंडिकेट के इस फरमान से भी हो गई कि जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के कैंडिडेट सीडी देशमुख को दूसरी प्राथमिकता का वोट दिया जाए. इंदिरा ने चुनाव को लैफ्ट बनाम राइट देकर गिरी के सपोर्ट को नैतिक बल भी दिया. इधर जीत वीवी गिरी की हुई और उधर अपनी ही पार्टी के कैंडिडेट को हराकर इंदिरा भी जीत गईं. अब इंदिरा के निशाने पर सिंडिकेट के नेता थे. कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष एस निंजालिंगप्पा के खिलाफ सिग्नेचर कैम्पेन शुरू हो गया, इधर इंदिरा अलग अलग राज्यों के दौरे पर जाकर वहां कांग्रेसियों को अपने पक्ष में लामबंद करने लगीं.
इंदिरा के समर्थकों ने स्पेशल कांग्रेस सैशन बुलाने की मांग की ताकि नया प्रेसीडेंट चुना जा सके. तो गुस्से में निंजालिंगप्पा ने पीएम को खुला खत लिखकर पार्टी की इंटरनल डेमोक्रेसी को खत्म करने का आरोप लगाया, साथ में इंदिरा के दो करीबियों फखरुद्दीन अली अहमद और सी सुब्रामण्यिम को एआईसीसी से निकाल बाहर किया. बगल में इंदिरा ने निंजालिंगप्पा की बुलाई मीटिंग्स में हिस्सा लेना बंद कर दिया. एक नवम्बर को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की दो जगहों पर मीटिंग हुईं. एक पीएम आवास में और दूसरी कांग्रेस के जंतर मंतर रोड कार्यालय में. कांग्रेस कार्यालय में हुई मीटिंग में इंदिरा को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निकाल दिया गया और संसदीय दल से कहा गया कि वो अपना नया नेता चुन लें.

इंदिरा को पार्टी से निकालने वाली बात अंदर तक चुभ गई. इंदिरा ने फौरन दोनों सदनों के संसद सदस्यों की मीटिंग बुलाई. कांग्रेस के कुल 429 सांसदों में से 310 ने इंदिरा की मीटिंग में भाग लिया. इस तरह कांग्रेस दो भागों में बंट गई, खुद इंदिरा ने उसे तोड़ डाला. इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (आर— Requisition ) और दूसरी पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (ओ–Organisation). हालांकि इससे इंदिरा पर बहुमत संकट आ गया, लेकिन इंदिरा ने सीपीआई और डीएमके की मदद से कांग्रेस (ओ) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया.

इस तरह से इंदिरा को सिंडीकेट के कई नेताओं कामराज, निंजलिंगप्पा, एस के पाटिल और मोरारजी आदि से मुक्ति मिल गई. इस घटना के बाद निंजालिंगप्पा ने एक्टिव पॉलिटिक्स से संन्यास ले लिया और समाजसेवा के कार्य़ों से जुड़े रहे. इंदिरा गांधी को निकालने का फैसला लेने की उन्हें इस कदर कीमत चुकानी पड़ी कि लोग ये भूल गए कि तिब्बत के लोगों के पुनर्वास के लिए सबसे ज्यादा जमीन उन्होंने सीएम रहते दी थी, चार बड़ी कॉलोनियां या कस्बे तिब्बतियों के लिए खड़े किए गए. तभी तो 2011 में उनकी प्रतिमा का अनावरण करने खुद दलाई लामा वहां आए थे.

उस कांग्रेस अध्यक्ष की कहानी जिसे समर्थन के बावजूद इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति नहीं बनने दिया

जब इंदिरा गांधी को ही निकाल बाहर किया उनकी पार्टी ने, कांग्रेस के हो गए दो हिस्से

 

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