भारत में 5 अप्रैल को बनी थी पहली लेफ्ट सरकार, लेकिन इंदिरा ने दो साल मे ही गिरा दिया था विकेट

भारत की वामपंथी राजनीति में ये 5 अप्रैल की तारीख काफी अहम है, ये अलग बात है कि वो खुद अब इसे याद नहीं रखते. दिलचस्प बात है कि अगला ही दिन 6 अप्रैल बीजेपी की राजनीति में काफी अहम है, लेकिन वो इसे जोरशोर से मनाते हैं. दरअसल 4 अप्रैल 1957 को देश में पहली लैफ्ट सरकार केरल में चुनी गई और पूरी दुनियां में इसे लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई पहली कम्युनिस्ट सरकार माना गया था.

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भारत में 5 अप्रैल को बनी थी पहली लेफ्ट सरकार, लेकिन इंदिरा ने दो साल मे ही गिरा दिया था विकेट

Aanchal Pandey

  • April 5, 2018 3:04 pm Asia/KolkataIST, Updated 7 years ago

नई दिल्ली. भारत की वामपंथी राजनीति में ये 5 अप्रैल की तारीख काफी अहम है, ये अलग बात है कि वो खुद अब इसे याद नहीं रखते. दिलचस्प बात है कि अगला ही दिन 6 अप्रैल बीजेपी की राजनीति में काफी अहम है, लेकिन वो इसे जोरशोर से मनाते हैं. दरअसल 4 अप्रैल 1957 को देश में पहली लैफ्ट सरकार केरल में चुनी गई और पूरी दुनियां में इसे लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई पहली कम्युनिस्ट सरकार माना गया था. पूरी दुनियां मैं इसको लेकर चर्चा हुई थी, रूस और चीन जैसे देश काफी खुश थे, तो अमेरिका जैसे देशों ने अपनी चिंता जताई. महज 2 साल के अंदर इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू पर दवाब बनाकर इस सरकार को बीच में ही गिरवा दिया, यहां तक कि इसके लिए उन्हें पति फीरोज गांधी से भी पंगा लेना पड़ गया था.

पहले जानिए किस नेता ने लैफ्ट की देश में पहली सरकार बनाने में मदद की, वो थे ईएमएस नम्बूरीबाद, कट्टर ब्राह्मण परिवार के थे, लेकिन जातिवाद से सख्त खिलाफ थे. काफी दिन कांग्रेस की राजनीति में हिस्सा लिया, लेकिन पूरी तरह कांग्रेस को भी पसंद नहीं करते थे. तो कांग्रेस के अंदर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के निर्माण में अहम भूमिका अदा की. उसी से विधायक भी चुने गए. लेकिन बाद में केरल के उन शुरूआती नेताओं में शामिल रहे, जिन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को आगे बढ़ाया. पहली सरकार सीआई से बनाई, लेकिन बाद में सीपीआई से टूटकर सीपीएम बनी तो वो उससे जुड़ गए और आखिर तक उसके पोलित ब्यूरो में रहे.

दिलचस्प बात ये थी कि वो हकलाते थे, तो उनका एक किस्सा चर्चित है, किसी ने उनसे पूछा कि आप क्या हमेशा हकलाते हैं? तो उनका जवाब था कि नहीं, जब बोलता हूं तभी हकलाता हूं. उन्होंने केरल में कांग्रेस के खिलाफ ऐसा माहौल खड़ा किया कि केरल की जनता ने उनके हाथ में कमान दे दी और 5 अप्रैल 1957 को उन्होंने केरल में देश की पहली लैफ्ट सरकार बना दी. पूरी दुनियां में इसकी चर्चा होने लगी, अमेरिका ने चिंता व्यक्त की. एक आईबी रिपोर्ट भी सामने आई कि नम्बूरीपाद को चुनाव लड़ाने और जिताने के लिए कई कम्युनिस्ट देशों ने काफी धन भेजा है. लेकिन नेहरू लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार के विरोध मॆं कुछ भी करने को तैयार नहीं थे. लेकिन इंदिरा गांधी को कम्य़ुनिस्ट सरकार बनना रास नहीं आ रहा था. सोवियत रूस से समझौते के दौरान भी उन्हें भारत के कम्युनिस्ट नेताओं की नकारात्मक पत्राचार की खबरें पता लग चुकी थीं, जो उन्होंने रूस की कम्युनिस्ट पार्टी से किया था.

ऐसे में आग में घी का काम किया नम्बूरीपाद के सुधार कार्यक्रमों ने, सबसे ज्यादा बवाल कटा एजुकेशन सुधारों को लेकर. नम्बूरीपाद ने दावा किया कि ये सुधार वो फीस ढांचे में कमी और टीचर्स की सेलरी मे बढ़ोत्तरी आदि के लिए कर रहे हैं. लेकिन जब स्कूलों से गांधीजी की तस्वीरें हटाकर उनकी जगह माओ और स्टालिन की तस्वीरें लगाई जाने लगीं, नेहरू और इंदिरा भी बेचैन हुए. इधर पंडित नेहरु भी चीन से तनातनी के चलते कम्युनिस्टों से उतने खुश नहीं थे. इंदिरा को मदद मिली केरल में शुरू हुए उस आंदोलन से जो एजुकेशन बिल के खिलाफ शुरू हुआ था. इसमें दो प्रमुख संस्थाओं का रोल था, एक तो चर्च जैसी संस्थाएं, जो काफी स्कूल कॉलेज केरल में संचालित करती थीं, वो सरकारी दखल नहीं चाहती थीं, दूसरी थी केरल की नायर कम्युनिटी, जिसके काफी चैरिटेबल स्कूल थे. उनको भी सरकारी दखल से दिक्कत थी, फिर नम्बूरीपाद सरकार का सिलेबस बदलना भी किसी को रास नहीं आ रहा था. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस ने इस आंदोलन को अपने हाथ में ले लिया.

कांग्रेस में केरल के गांधी कहे जाने वाले मन्नथ पिल्लई ने इस आंदोलन की अगुवाई की, उनकी संत जैसी छवि थी. आलम ये हुआ कि सरकार ने 248 जगहों पर लाठीचार्ज किया और करीब 1.5 लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया. इस आंदोलन से आम जनता भी तब भ़ड़क गई जब एक मछुआरा समुदाय की प्रेग्नेंट महिला को गलती से पुलिस ने जान ले ली. फिर तो आंदोलन हिंसक हो उठा. इधर इंदिरा गांधी 1959 में कांग्रेस की प्रेसीडेंट बन चुकी थीं. वो लगातार नेहरू पर केरल सरकार गिराने के लिए दवाब बना रही थीं.

फीरोज गांधी को लेकर एक किताब ‘फीरोज: द फ़ॉरगॉटन गांधी’ में स्वीडिश लेखक और भारत में सालों पत्रकारिता कर चुके बर्टिल फाक लिखते हैं, कि जैसे ही फीरोज को इंदिरा की इस जिद का पता चला तो वो भी काफी नाराज हुए और इंदिरा से त्रिमूर्ति भवन में लंच के दौरान खूब झगड़े, इतना ही नहीं फीरोज ने इंदिरा को फासिस्ट तक कह डाला, इससे इंदिरा और ज्यादा उखड़ गईं. लेकिन इंदिरा तो सरकार गिराकर ही मानीं, 21 जुलाई 1959 को राष्ट्रपति शासन का फैसला ले लिया गया। दोनों के बीच इस बात से काफी दरार आ गई. इंदिरा के कई करीबियों ने बाद में कहा भी कि इंदिरा बिलकुल तलाक लेने के मूड में आ चुकी थीं, लेकिन एक दिन ऐसा आया कि इंदिरा और फीरोज वापस से करीब आ गए. जब इंदिरा नेहरू के साथ भूटान दौरे पर थीं तो उन्हें खबर मिली कि फीरोज को हर्ट अटैक आया है, इंदिरा फौरन वापस लौटीं. हालांकि ये पहला था औऱ उतना गम्भीर नहीं था, लेकिन इंदिरा ने फीरोज की काफी सेवा की.

जब इंदिरा ने कांग्रेस प्रेसीडेंट की पोस्ट से इस्तीफा दिया तो तमाम छोटी वजहों के अलावा जो सबसे बड़ी वजह थी वो थी इंदिरा की किडनी में स्टोन. जिसका ऑपरेशन मुंबई में हुआ और उस दौरान पूरे वक्त फीरोज इंदिरा के साथ थे, तब तक जब तक इंदिरा ठीक नहीं हो गईं. जब केरल सरकार गिर गई और अगले चुनाव में कांग्रेस की सरकार भी बन गई तो उसके बाद इंदिरा एक वूमेन कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने केरल के ही त्रिवेन्द्रम गई हुई थीं। वो लौटकर दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरी ही थीं कि उन्हें खबर मिली कि फीरोज को दूसरा हर्ट अटैक आया है, उसमें फीरोज बच नहीं पाए थे. ये फीरोज ही थे जो लंदन में पढ़ने के दौरान अपने कई लैफ्टिस्ट दोस्तों से इंदिरा को लगातार मिलवाते रहते थे। उसी इंदिरा ने लैफ्ट की पहली सरकार गिरा दी थी तो उन्हें काफी गुस्सा आया था. उसकी वजह भी थी, कई बातों में एक विचारधारा होने के बावजूद कम्युनिस्ट का इंटरनेशनल कनेक्शन इंदिरा को परेशान करता था. उस पर नम्बूरीपाद कांग्रेस और देश के सम्माननीय गांधीजी को एक फंडामेंटलिस्ट हिंदू मानते थे. ये भी अजब संयोग है, जब ये लेख लिखा जा रहा है तब लैफ्ट राजनीति सांप सीढ़ी के गेम में फिर से नीचे आ गई है, उसके पास बस उसी केरल में ही सरकार है और उस पर भी खतरा मंडरा रहा है.

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