IPC 377 पर सुप्रीम फैसला आज: समलैंगिक सेक्स को अपराध से बाहर लाने की कानूनी लड़ाई का सफर

समान लिंग के दो व्यसकों के बीच संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखने वाली धारा 377 पर आज सुप्रीम कोर्ट फैसला सुनाएगा. बता दें कि बीते 10 जुलाई को इसपर सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई को आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. वहीं हम आपको समलैंगिक सेक्स को अपराध से बाहर लाने की कानूनी लड़ाई के सफर को टाइमलाइन (IPC 377 Timeline) के जरिए बताने जा रहे हैं.

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IPC 377 पर सुप्रीम फैसला आज: समलैंगिक सेक्स को अपराध से बाहर लाने की कानूनी लड़ाई का सफर

Aanchal Pandey

  • September 5, 2018 6:05 pm Asia/KolkataIST, Updated 6 years ago

नई दिल्ली. समान लिंग के दो बालिग लोगों के बीच सहमति सेक्स को अपराध के श्रेणी में रखने वाली धारा 377 पर आज सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच द्वारा फैसला सुनाया जाएगा. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, ए. एम. खानविलकर, डी.वाई.चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की बेंच सुबह 10.30 बजे इसपर सुनवाई शुरु करेगी. बता दें कि इस साल सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को इसपर सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई को आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. बता दें IPC की 377 धारा के तहत दो समान लिंग के लोग अगर आपसी सहमति या असहमति से भी अप्राकृतिक संबंध बनाते है और दोषी करार दिए जाते हैं तो उनको 10 साल की सजा से लेकर उम्रकैद की सजा हो सकती है. आइये टाइमलाइन (IPC 377 Timeline) के जरिए जानते हैं कि कैसा है समलैंगिक सैक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर लाने की लड़ाई का सफर.

साल 1861- ब्रिटिश इंडिया द्वारा लाई गई धारा 377

धारा 377 को ब्रिटिश इंडिया द्वारा पेश किया गया था, जिसे 1533 के बुगरी अधिनियम पर बनाया गया था. बगरी अधिनियम का यह खंड 1838 में थॉमस मैकॉले द्वारा तैयार किया गया और इसे 1861 में लागू किया गया था. इसने ‘बगरी’ को अप्राकृतिक यौन कृत्य के रूप में परिभाषित किया. इसमे कहा गया कि ये ईश्वर और मनुष्य के खिलाफ है और साथ ही समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया. साथ ही इसमें गिरफ्तारी के लिए किसी प्रकार के वारेंट की जरूरत नहीं होगी.

साल 2001- धारा 377 को मिली चुनौती 

हाईकोर्ट में सेक्स वर्करों के लिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने ये कहते हुए संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया था कि अगर दो व्यसक सहमति से आपस में अकेले में सेक्स करते हैं तो इसे अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाना चाहिए.  दिल्ली उच्च न्यायालय ने नाज़ फाउंडेशन याचिका खारिज कर दी और कहा कि इस मामले में फाउंडेशन का कोई लेना देना नहीं था. फिर नाज़ फाउंडेशन ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में धारा 377 की बर्खास्तगी की अपील की, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय को इस मामले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया.

2 जुलाई 2009- हाईकोर्ट का फैसला

साल 2009 के जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने नाज फाउंडेशन द्वारा दायर पीआईएल पर सुनवाई करते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और कहा था कि अगर दो व्यसक अपनी मर्जी से सेक्स संबंध बनाते हैं तो उसे अपराध नहीं माना जाएगा. ऐसा करने पर संविधान के आर्टिकल 14, 15 और 21 का हनन होगा. बता दें कि आर्टिकल 14 में न्याय का अधिकार है, आर्टिकल 15 में धर्म, जात या लिंग के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध हैं जबकि आर्टिकल 21 जीने और निजी आजादी का अधिकार देता है. उस समय कोर्ट ने सभी नागरिकों की समानता की बात की थी. उस समय चीफ जस्टिस एपी शाह और जस्टिस एस मुरलीधर की बेंच ने 105 पन्नों के जजमेंट में कहा था कि धारा 377 किसी समलैंगिक व्यक्ति से आर्टिकल 21 यानि जीने के अधिकार को छीनती है.

दिसंबर 2012- सुप्रीम कोर्ट ने पलटा हाईकोर्ट का फैसला

हाईकोर्ट के फैसले के बाद साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता के मामले में उम्रकैद की सजा के प्रावधान को बरकरार रखने का फैसला किया. उसने हाईकोर्ट के फैसले को पूरी तरह खारिज कर दिया जिसमें दो व्यसकों के सहमति के सेक्स किए जाने को अपराध की श्रेणी से बाहर रखा गया था.

साल 2014- शशि थरूर का प्राइवेट मेंबर बिल

2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने शपथ ग्रहण करने के बाद यह कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद धारा 377 के बारे में फैसला लेगा. लोकसभा के लिखित उत्तर में, राज्य मंत्री (गृह) किरेन रिजजू ने कहा था, “मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उप-न्याय है. आईपीसी की धारा 377 के संबंध में एक निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसले की घोषणा के बाद ही लिया जा सकता है. ”
एक साल बाद, जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने समलैंगिकता को खत्म करने के लिए एक निजी सदस्य के विधेयक की शुरुआत की, तो लोकसभा ने इसके खिलाफ मतदान किया.

साल 2016- सुप्रीम कोर्ट में धारा 377 के खिलाफ 5 याचिकाएं

एस जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ रितु डालमिया, होटलियर अमन नाथ और बिजनेस एक्जीक्यूटिव आयशा कपूर द्वारा पांच याचिकाएं दायर की गईं। प्रसिद्ध एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ताओं द्वारा दायर याचिका में कहा गया कि धारा 377 नागरिक से यौन संबंध, यौन स्वायत्तता, यौन साथी, जीवन, गोपनीयता, गरिमा और समानता के विकल्प और अन्य मौलिक अधिकारों को छीनती है.

साल 2018- सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377  पर सुनवाई शुरु की

भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में पांच न्यायाधीशीय संवैधानिक खंडपीठ ने धारा 377 को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई शुरू की. खंडपीठ में जस्टिस आर एफ नरीमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चन्द्रचुद और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं. इस साल सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को इसपर सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई को आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की याचिकाओं का विरोध कर रहे लोगों ने कोर्ट से धारा 377 का भविष्य संसद पर छोड़ देने का आग्रह किया था.

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